Books - व्यक्तित्त्व परिष्कार की साधना अद्भुत और अनुपम सुयोग
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
आत्म देव की साधना
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
यह साधना अपनी सुविधानुसार दिन में एक बार भटके हुए देवता के मंदिर में की जाती है। इस कक्ष में दर्पण लगे हुए हैं। दर्पण के सामने खड़े होकर अपनी आत्मचेतना को जाग्रत्, सक्रिय करने की यह विशिष्ट साधना है।सामान्य रूप से मनुष्य अपने आपको परिस्थितियों में बंधा एक कर्ता-भोक्ता ही मानता है किन्तु वस्तुतः के अन्दर चेतना की अन्य पर्तें भी हैं, जो द्रष्टा निर्देशक और नियन्ता की क्षमताएं भी रखते हैं। शरीर के अन्दर अनेक जटिल प्रक्रियाएं चलती रहती हैं जिन्हें वैज्ञानिक बड़ी मुश्किल से थोड़ा-बहुत समझ पाते हैं, किन्तु उन क्रियाओं का कुशल संचालन हमारी अन्तःचेतना सतत करती रहती है। पाचन से प्रजनन तक की सारी क्रियाएं अंतःचेतना द्वारा ही संचालित हैं। उनके सूक्ष्म से सूक्ष्म अद्भुत पक्ष अंतःचेतना के नियंत्रण में रहते चलते हैं।
संसार का कोई भी कला-कौशल, ज्ञान-विज्ञान हो; उसकी उपयोगिता तभी है, जब वह अपने व्यक्तित्व के दायरे में हो। किसी देवी देवता से इष्ट की शक्ति अपने ही अंदर प्रकट होती है। अपना ट्रांजिस्टर ठीक हो, तो संसार का कोई भी रेडियो प्रसारण पकड़ा-सुना जा सकता है। अपनी ट्युनिंग ठीक न हो, तो शक्तिशाली से शक्तिशाली प्रसारण (ट्रॉस्मिशन) का भी लाभ नहीं उठाया जा सकता। मानवी व्यक्तित्व में अनन्त से सम्पर्क करने आदान-प्रदान करने की क्षमता है। आत्मदेव की साधना में अपने अंदर के द्रष्टा, निर्देशक, नियन्ता को जाग्रत्-विकसित, प्रतिष्ठत किया जाता है।
इस कक्ष में पांच आदमकद दर्पण लगे हैं। उन पर पांच सूत्र लिखे हैं- 1. सोऽहम् 2. शिवोऽहम् 3. सच्चिदानन्दोऽहम् 4. अयमात्मा ब्रह्म 5. तत्त्वमसि। इन्हीं सूत्रों के आधार पर यह साधना की जाती है।
दर्पण के सामने खड़े हों या बैठ जायें। अपने बिम्ब को ध्यान से देखें। अनुभव करें कि यह हमारा सबसे निकट का मित्र, सच्चा हितैषी तथा अनन्त क्षमताओं से सम्पन्न है। हमारे गुण दोष न तो इससे छिपे हैं और न यह उनकी ओर से उदासीन रहता है। इसके सहयोग से कोई भी दोष हटाया एवं कोई भी गुण विकसित किया जा सकता है। इस प्रकार बोध करते हुए अपने दोषों गुणों की समीक्षा करते हुए दोषों के निष्कासन तथा गुणों के संवर्धन के सार्थक ताने-बाने बुने जा सकते हैं। दर्पण पर अंकित सूत्रों को भी इस साधना का आधार बनाया जा सकता है।
1. सोऽहम् (मैं वही हूं)
मैं वही हूं, जिसे नियन्ता ने सर्वश्रेष्ठ मानव योनि में भेज दिया। मेरे लिए उच्च मानवीय क्षमताएं सहज-सुलभ हैं। मैं साधक हूं, जिसे युग ऋषि ने युगतीर्थ में रहकर साधना करने का अवसर दिया। साधक का कोई क्रम मेरे लिए कठिन क्यों होगा?
2. शिवोऽहम् (मैं शिवरूप हूं) शिव- अर्थात् कल्याणकारी। मैं मूलतः शिव-कल्याणकारी हूं मेरी भावनाओं, विचारणाओं, इच्छाओं, चेष्टाओं, अभ्यास आदि में अशिव का स्थान कैसे हो सकता है? यदि पदार्थ के संसर्ग से कुछ चिपक गया है, तो वह विजातीय है, उसे हटाने में क्या संकोच क्या कठिनाई?
3. सच्चिदानन्दोऽहम् (मैं सत् चित् आनन्द रूप हूं) मैं असत् से प्रभावित क्यों होऊं? मैं जो शुभ नहीं टिकाऊ नहीं, उसे क्यों चाहूं? मैं आनन्द हूं, पदार्थों में खोजता हुआ क्यों भटकूं । मैं श्रेष्ठतम में ही रस क्यों न पैदा कर लूं? आदि।
4. अयमात्मा ब्रह्म (यह आत्मा ही ब्रह्म है) सागर भी जल है- बूंद भी तो जल ही है। हर किरण में सूर्य का गुण है। आत्मा चाहे जितना छोटा अंश हो, उसमें ब्रह्म से जुड़ने की क्षमता है और उससे जुड़ने के बाद छोटा-बड़ा क्या? नल की टोंटी और विशाल टंकी- दोनों में पानी देने की समान क्षमता है, तो दीन क्यों बनूं समर्थ बन कर क्यों न रहूं?
5. तत्त्वमसि (वह तुम्हीं हो) जीवन में –संसार में जो कुछ भी श्रेष्ठ है, वह सब तुम (परमात्मा) ही तो हो। हर दृश्य प्रकाश ही तो है। फिर श्रेष्ठता खोजता क्यों भटकूं , पदार्थ की गुलामी क्यों करूं, सारी श्रेष्ठता तुममें-हर श्रेष्ठता में तुम्हें ही क्यों न देखूं?
उक्त सूत्रों के आधार पर अपनी समीक्षा करते हुए अपने बिम्ब द्रष्टा- नियंता को अभीष्ट लक्ष्य तक ले चलने के लिए प्रेरित करना चाहिए। इस साधना से अपने ही अंदर गुरुत्त्व जागृत होने लगता है- हर समस्या का समाधान और उसे चरितार्थ करने की शक्ति का स्रोत अंदर ही प्रकट होने लगता है।
आसन, मुद्रा, बन्ध
हर साधक को आसनों का सुगम किन्तु अति प्रभावकारी योग प्रज्ञा अभियान का योग व्यायाम भी सिखाया जाता है। उसके साथ शिथिलीकरण मुद्रा, शक्तिचालिनी मुद्रा, खेचरी मुद्रा, खेचरी मुद्रा आदि साधक की आवश्यकता एवं मनःस्थिति के अनुसार सिखा दी जाती हैं। इसी प्रकार शक्ति प्रवाहों को गलत दिशा में प्रवाहित होने से रोक कर उन्हें ऊर्ध्वगामी बनाने के लिए आवश्यकतानुसार मूलबन्ध, उड्डियान बन्ध एवं जालंधर बन्ध का भी अभ्यास कराया जाता है।
विशिष्ट प्राणायाम
ऋषियों की अद्भुत ऋषियों की अद्भुत देन में से प्राणायाम एक है। वैज्ञानिक कहते हैं यह सृष्टि तीन आयामी (थ्रीडायमेंशनल) है। वे हैं लंबाई, चौड़ाई तथा ऊंचाई या गहराई इन्हीं से किसी वस्तु का आकार-विस्तार जाना जाता है। किन्तु ऋषि कहते हैं- प्राणियों के साथ एक और चौथा आयाम जुड़ा रहता है, जिसे ‘‘प्राण’’ कहते हैं। प्राण का आयाम विकास हो, तो सामान्य आकार का व्यक्ति भी असाधारण कार्य करता है। संतों-महापुरुषों में प्राण की अधिकता ही उन्हें महान बनाती है। विश्व ब्रह्माण्ड में प्राण का अनन्त सरोवर लहरा रहा है। सामान्य रूप से श्वांस-प्रश्वांस के साथ प्राण का उतना आवागमन बना रहता है, जिसके सहारे जीवन टिका रह सके। पर जीवट प्राप्त करने के लिए संकल्पपूर्वक श्वांस-प्रश्वांस के साथ प्राणायाम प्रक्रिया अपनानी होती है। जीवन साधना सत्रों में तीन विशिष्ट प्राणायामों का प्रशिक्षण दिया- अभ्यास कराया जाता है। वे हैं 1.प्राणाकर्षण 2.अनुलोम-विलोम-सूर्यवेधन तथा 3.नाड़ी शोधन। इनकी विधि इस प्रकार है:-
संसार का कोई भी कला-कौशल, ज्ञान-विज्ञान हो; उसकी उपयोगिता तभी है, जब वह अपने व्यक्तित्व के दायरे में हो। किसी देवी देवता से इष्ट की शक्ति अपने ही अंदर प्रकट होती है। अपना ट्रांजिस्टर ठीक हो, तो संसार का कोई भी रेडियो प्रसारण पकड़ा-सुना जा सकता है। अपनी ट्युनिंग ठीक न हो, तो शक्तिशाली से शक्तिशाली प्रसारण (ट्रॉस्मिशन) का भी लाभ नहीं उठाया जा सकता। मानवी व्यक्तित्व में अनन्त से सम्पर्क करने आदान-प्रदान करने की क्षमता है। आत्मदेव की साधना में अपने अंदर के द्रष्टा, निर्देशक, नियन्ता को जाग्रत्-विकसित, प्रतिष्ठत किया जाता है।
इस कक्ष में पांच आदमकद दर्पण लगे हैं। उन पर पांच सूत्र लिखे हैं- 1. सोऽहम् 2. शिवोऽहम् 3. सच्चिदानन्दोऽहम् 4. अयमात्मा ब्रह्म 5. तत्त्वमसि। इन्हीं सूत्रों के आधार पर यह साधना की जाती है।
दर्पण के सामने खड़े हों या बैठ जायें। अपने बिम्ब को ध्यान से देखें। अनुभव करें कि यह हमारा सबसे निकट का मित्र, सच्चा हितैषी तथा अनन्त क्षमताओं से सम्पन्न है। हमारे गुण दोष न तो इससे छिपे हैं और न यह उनकी ओर से उदासीन रहता है। इसके सहयोग से कोई भी दोष हटाया एवं कोई भी गुण विकसित किया जा सकता है। इस प्रकार बोध करते हुए अपने दोषों गुणों की समीक्षा करते हुए दोषों के निष्कासन तथा गुणों के संवर्धन के सार्थक ताने-बाने बुने जा सकते हैं। दर्पण पर अंकित सूत्रों को भी इस साधना का आधार बनाया जा सकता है।
1. सोऽहम् (मैं वही हूं)
मैं वही हूं, जिसे नियन्ता ने सर्वश्रेष्ठ मानव योनि में भेज दिया। मेरे लिए उच्च मानवीय क्षमताएं सहज-सुलभ हैं। मैं साधक हूं, जिसे युग ऋषि ने युगतीर्थ में रहकर साधना करने का अवसर दिया। साधक का कोई क्रम मेरे लिए कठिन क्यों होगा?
2. शिवोऽहम् (मैं शिवरूप हूं) शिव- अर्थात् कल्याणकारी। मैं मूलतः शिव-कल्याणकारी हूं मेरी भावनाओं, विचारणाओं, इच्छाओं, चेष्टाओं, अभ्यास आदि में अशिव का स्थान कैसे हो सकता है? यदि पदार्थ के संसर्ग से कुछ चिपक गया है, तो वह विजातीय है, उसे हटाने में क्या संकोच क्या कठिनाई?
3. सच्चिदानन्दोऽहम् (मैं सत् चित् आनन्द रूप हूं) मैं असत् से प्रभावित क्यों होऊं? मैं जो शुभ नहीं टिकाऊ नहीं, उसे क्यों चाहूं? मैं आनन्द हूं, पदार्थों में खोजता हुआ क्यों भटकूं । मैं श्रेष्ठतम में ही रस क्यों न पैदा कर लूं? आदि।
4. अयमात्मा ब्रह्म (यह आत्मा ही ब्रह्म है) सागर भी जल है- बूंद भी तो जल ही है। हर किरण में सूर्य का गुण है। आत्मा चाहे जितना छोटा अंश हो, उसमें ब्रह्म से जुड़ने की क्षमता है और उससे जुड़ने के बाद छोटा-बड़ा क्या? नल की टोंटी और विशाल टंकी- दोनों में पानी देने की समान क्षमता है, तो दीन क्यों बनूं समर्थ बन कर क्यों न रहूं?
5. तत्त्वमसि (वह तुम्हीं हो) जीवन में –संसार में जो कुछ भी श्रेष्ठ है, वह सब तुम (परमात्मा) ही तो हो। हर दृश्य प्रकाश ही तो है। फिर श्रेष्ठता खोजता क्यों भटकूं , पदार्थ की गुलामी क्यों करूं, सारी श्रेष्ठता तुममें-हर श्रेष्ठता में तुम्हें ही क्यों न देखूं?
उक्त सूत्रों के आधार पर अपनी समीक्षा करते हुए अपने बिम्ब द्रष्टा- नियंता को अभीष्ट लक्ष्य तक ले चलने के लिए प्रेरित करना चाहिए। इस साधना से अपने ही अंदर गुरुत्त्व जागृत होने लगता है- हर समस्या का समाधान और उसे चरितार्थ करने की शक्ति का स्रोत अंदर ही प्रकट होने लगता है।
आसन, मुद्रा, बन्ध
हर साधक को आसनों का सुगम किन्तु अति प्रभावकारी योग प्रज्ञा अभियान का योग व्यायाम भी सिखाया जाता है। उसके साथ शिथिलीकरण मुद्रा, शक्तिचालिनी मुद्रा, खेचरी मुद्रा, खेचरी मुद्रा आदि साधक की आवश्यकता एवं मनःस्थिति के अनुसार सिखा दी जाती हैं। इसी प्रकार शक्ति प्रवाहों को गलत दिशा में प्रवाहित होने से रोक कर उन्हें ऊर्ध्वगामी बनाने के लिए आवश्यकतानुसार मूलबन्ध, उड्डियान बन्ध एवं जालंधर बन्ध का भी अभ्यास कराया जाता है।
विशिष्ट प्राणायाम
ऋषियों की अद्भुत ऋषियों की अद्भुत देन में से प्राणायाम एक है। वैज्ञानिक कहते हैं यह सृष्टि तीन आयामी (थ्रीडायमेंशनल) है। वे हैं लंबाई, चौड़ाई तथा ऊंचाई या गहराई इन्हीं से किसी वस्तु का आकार-विस्तार जाना जाता है। किन्तु ऋषि कहते हैं- प्राणियों के साथ एक और चौथा आयाम जुड़ा रहता है, जिसे ‘‘प्राण’’ कहते हैं। प्राण का आयाम विकास हो, तो सामान्य आकार का व्यक्ति भी असाधारण कार्य करता है। संतों-महापुरुषों में प्राण की अधिकता ही उन्हें महान बनाती है। विश्व ब्रह्माण्ड में प्राण का अनन्त सरोवर लहरा रहा है। सामान्य रूप से श्वांस-प्रश्वांस के साथ प्राण का उतना आवागमन बना रहता है, जिसके सहारे जीवन टिका रह सके। पर जीवट प्राप्त करने के लिए संकल्पपूर्वक श्वांस-प्रश्वांस के साथ प्राणायाम प्रक्रिया अपनानी होती है। जीवन साधना सत्रों में तीन विशिष्ट प्राणायामों का प्रशिक्षण दिया- अभ्यास कराया जाता है। वे हैं 1.प्राणाकर्षण 2.अनुलोम-विलोम-सूर्यवेधन तथा 3.नाड़ी शोधन। इनकी विधि इस प्रकार है:-