Books - युग गायन पद्धति
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युग की यही पुकार
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टिप्पणी- पश्चिम से हवा चली खाओ पियो और मौज करो (ईट ड्रिंक एण्ड बी मैरी)
इसी में बड़प्पन माना जाने लगा। लेकिन अब स्वार्थ और भोगवादी
जीवन पद्धति के बुरे परिणाम सामने आये तो उस पंक्ति में सुधार
किया गया और कहा जाने लगा ‘‘जियो और जीने दो’’। लेकिन इतना तो पशु भी कर लेते हैं। भारतीय संस्कृति मनुष्य जीवन को परमार्थ परायण ही मानती है। वसंती
रंग सेवा, त्याग- परमार्थ की भावना का ही प्रतीक है। आज समय यही
माँग कर रहा है कि मनुष्य कि नीयत वासंती बनें।
स्थाई- युग की यही पुकार, बसंती चोला रंग डालो।
त्याग तितिक्षा का रंग है यह, सुनो जगत वालों॥
बसंती चोला रंग डालो॥
जिसके मन में त्याग, तपस्या सेवा की वासंती भावना उभरती है, वह नश्वर सुख सुविधाएँ छोड़कर महानता के मार्ग पर आगे चल पड़ता है। शहीदों का मन ऍसी ही वासंती भावों से ओत- प्रोत रहा है।
अ.1- इस चोले को पहन भगतसिंह, झूला फाँसी पर।
इस चोले का रंग खिला था, रानी झाँसी पर।
त्याग और बलिदान न भूलो, ऊँचे पद वालों॥
वासंती भाव वाले कोई बहादूर अपना जीवन दाँव पे लगा देता है तो धन सम्पदा भी सद् उद्देश्यों के लिए अपनी सम्पती न्योछावर कर देते हैं। भामाशाह उन्हीं में से थे। नरसी मेहता की परमार्थ परायणता के नाते ही भगवान ने सांवलिया शाह बनकर उनकी हुण्डी स्वीकार कर ली थी।
अ.2- बासन्ती चोले को, भामाशाह ने अपनाया।
नरसिंह का चोला तो सबसे, अद्भुत रंग लाया।
इस चोले से बढ़े द्रव्य की, शोभा धन वालों॥
यदि हरिश्चन्द्र अपने अंदर की वासंती भावनाओं को सार्थक न करते तो अन्य राजाओं की तरह सुख भोग की जिन्दगी जीकर चले जाते। देवों द्वारा स्तुत्य महान यश एवं सम्मान के भागीदार न बनते उनकी पत्नी तारा ने भी उनका साथ दिया और धन्य हुई।
अ.3- इसे पहनकर हरिश्चन्द्र ने, सत्य नहीं छोड़ा।
चली अग्नि पथ पर तारा ने, पहना यह चोला।
मानवीय गरिमा न भुलाओ, भटके मन वालों॥
नरेन्द्र और रखाल जैसे नौजवानों ने जब ठाकुर रामकृष्ण परमहंस के निर्देशों को जीवन में धारण किया, तो वे भारतीय संस्कृति के झण्डे को विश्व में फहराने का श्रेय और गौरव प्राप्त कर सके।
अ.4- परमहंस के इस चोले को जिसने, अपनाया।
संस्कृति के झण्डे को जिसने, नभ तक फहराया।
अपने गौरव को पहचानो, युवा शक्ति वालों॥
हमारी इसी त्याग, तपस्या, सेवा की भावना ने हमें विश्व गुरु, चक्रवर्ती जैसे सम्मान दिलवाये थे। हम उस परम्परा को भूले तो गुलाम बने और दीन- हीन कहलाने लगे। अब भारत को पुनः उसी गरिमामय स्थान पर प्रतिष्ठित करने का समय आ गया है। उठो, संकीर्णता छोड़ो अपने गौरव के अनुरूप चिंतन चरित्र और आचरण बनाकर आगे बढ़ों। समय स्वागत करने को तैयार है।
अ.5- भूल गये हम अपना पौरुष, गये अनय से हार।
हुए संकुचित हृदय हमारे, बन बैठे अनुदार।
लेकिन अब तो दिशा बदलकर, बढ़ो लगन वालों॥
बसन्ती चोला रंग डालो-
युग निर्माण योजना सबको आमंत्रित करती है, त्याग तितिक्षा के रूप में थोड़ा सा समय- थोड़े से साधन नवसृजन के कार्यों में लगायें। पुनः स्थाई दुहरायें।
स्थाई- युग की यही पुकार, बसंती चोला रंग डालो।
त्याग तितिक्षा का रंग है यह, सुनो जगत वालों॥
बसंती चोला रंग डालो॥
जिसके मन में त्याग, तपस्या सेवा की वासंती भावना उभरती है, वह नश्वर सुख सुविधाएँ छोड़कर महानता के मार्ग पर आगे चल पड़ता है। शहीदों का मन ऍसी ही वासंती भावों से ओत- प्रोत रहा है।
अ.1- इस चोले को पहन भगतसिंह, झूला फाँसी पर।
इस चोले का रंग खिला था, रानी झाँसी पर।
त्याग और बलिदान न भूलो, ऊँचे पद वालों॥
वासंती भाव वाले कोई बहादूर अपना जीवन दाँव पे लगा देता है तो धन सम्पदा भी सद् उद्देश्यों के लिए अपनी सम्पती न्योछावर कर देते हैं। भामाशाह उन्हीं में से थे। नरसी मेहता की परमार्थ परायणता के नाते ही भगवान ने सांवलिया शाह बनकर उनकी हुण्डी स्वीकार कर ली थी।
अ.2- बासन्ती चोले को, भामाशाह ने अपनाया।
नरसिंह का चोला तो सबसे, अद्भुत रंग लाया।
इस चोले से बढ़े द्रव्य की, शोभा धन वालों॥
यदि हरिश्चन्द्र अपने अंदर की वासंती भावनाओं को सार्थक न करते तो अन्य राजाओं की तरह सुख भोग की जिन्दगी जीकर चले जाते। देवों द्वारा स्तुत्य महान यश एवं सम्मान के भागीदार न बनते उनकी पत्नी तारा ने भी उनका साथ दिया और धन्य हुई।
अ.3- इसे पहनकर हरिश्चन्द्र ने, सत्य नहीं छोड़ा।
चली अग्नि पथ पर तारा ने, पहना यह चोला।
मानवीय गरिमा न भुलाओ, भटके मन वालों॥
नरेन्द्र और रखाल जैसे नौजवानों ने जब ठाकुर रामकृष्ण परमहंस के निर्देशों को जीवन में धारण किया, तो वे भारतीय संस्कृति के झण्डे को विश्व में फहराने का श्रेय और गौरव प्राप्त कर सके।
अ.4- परमहंस के इस चोले को जिसने, अपनाया।
संस्कृति के झण्डे को जिसने, नभ तक फहराया।
अपने गौरव को पहचानो, युवा शक्ति वालों॥
हमारी इसी त्याग, तपस्या, सेवा की भावना ने हमें विश्व गुरु, चक्रवर्ती जैसे सम्मान दिलवाये थे। हम उस परम्परा को भूले तो गुलाम बने और दीन- हीन कहलाने लगे। अब भारत को पुनः उसी गरिमामय स्थान पर प्रतिष्ठित करने का समय आ गया है। उठो, संकीर्णता छोड़ो अपने गौरव के अनुरूप चिंतन चरित्र और आचरण बनाकर आगे बढ़ों। समय स्वागत करने को तैयार है।
अ.5- भूल गये हम अपना पौरुष, गये अनय से हार।
हुए संकुचित हृदय हमारे, बन बैठे अनुदार।
लेकिन अब तो दिशा बदलकर, बढ़ो लगन वालों॥
बसन्ती चोला रंग डालो-
युग निर्माण योजना सबको आमंत्रित करती है, त्याग तितिक्षा के रूप में थोड़ा सा समय- थोड़े से साधन नवसृजन के कार्यों में लगायें। पुनः स्थाई दुहरायें।