Books - युग परिवर्तन-प्रज्ञावतरण
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Language: HINDI
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धर्मतंत्र से लोक शिक्षण का बीस सूत्री कार्यक्रम
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यह संसार जड़ और चेतन से मिलकर बना है। भौतिक क्षेत्र की सुरक्षा, व्यवस्था, प्रगति एवं समृद्धि का उत्तरदायित्व राजतंत्र सम्भालता है और चेतना को उत्कृष्ट चिन्तन, आदर्श चरित्र तथा सहकारी सद् व्यवहार के लिए प्रशिक्षित करने की जिम्मेदारी धर्म-तंत्र के कन्धे पर आती है। इसीलिए राजतंत्र और धर्मतंत्र की गरिमा- महिमा को समतुल्य माना गया है। राजतंत्र को सम्भालने के लिए कितनी ही प्रतिभाएं कार्यरत रहती हैं किन्तु इसे दुर्भाग्य की कहना चाहिए कि धर्मतंत्र के दूरगामी परिणामों पर ध्यान न दिये जाने, उपेक्षा बरते जाने से उस क्षेत्र पर निहित स्वार्थों का आधिपत्य हो गया। भ्रांतियां विकृतियां घुस पड़ीं। फलतः वह उपहास-तिरस्कार का भाजन बना और उपयोगिता गंवा बैठा। इस कारण व्यक्ति और समाज को असीम हानि सहनी पड़ी। दृष्टिकोण में निकृष्टता भर जाने से साधनों का दुरुपयोग हुआ और परिस्थिति वह बन गई, जिसमें हम सब व्यथा पूर्वक रहते और अनेकानेक कष्ट-संकट सहते हैं।
धर्मतंत्र का पुनरुत्थान समय की सबसे बड़ी मांग है। व्यक्तित्वों का स्तर उसी आधार पर परिष्कृत हो सकता है। इसके बिना सुख-शांति का आधार ही नहीं बनता। सम्पदा-चतुरता, सर्प को दूध पिलाने पर विष बढ़ने की तरह उल्टे दुष्परिणाम उत्पन्न करती है। दुर्मतिजन्य दुर्गति को सुधारना है, तो उलटे को उलट कर सीधा करना होगा यही प्रज्ञा अभियान के अंतर्गत किया भी जा रहा है।
स्वतंत्रता संग्राम में सन् 30 से 47 का निरन्तर कार्यरत रहने बार-बार जेल जाने के उपरान्त पू. गुरुदेव ने इसी क्षेत्र में प्रवेश किया। गायत्री पुरश्चरणों की लम्बी तपश्चर्या से आत्म-बल बढ़ाया। गायत्री तपोभूमि मथुरा की स्थापना की। सहस्रकुण्डी गायत्री महायज्ञ का आयोजन करके देश भर के प्रगतिशील धर्मप्रेमियों को एकत्रित किया और सुनियोजित ढंग से धर्मतन्त्र से लोक शिक्षण का व्यापक कार्यक्रम चलाया।
अभी भी भारत की जनगणना में 60 लाख धर्मजीवी हैं। उनका निर्वाह व्यय जनता वहन करती है। तीर्थ यात्रा, पूजा-अर्चा, कर्मकाण्ड कथा, कीर्तन, मन्दिर, मठ आदि पर हर वर्ष अरबों की सम्पदा खर्च होती है। असंख्यों का चिन्तन एवं समय इस निमित्त नियोजित रहता है। गये गुजरे जमाने में भी धर्मतंत्र के हाथों प्रचुर साधन हैं। 7 लाख गांवों के नव निर्माण में यदि उपरोक्त जन शक्ति एवं धन शक्ति का नियोजन हो सका होता तो वह गई-गुजरी स्थिति न रहती, जो आज दृष्टिगोचर हो रही है।
पू. गुरुदेव ने इसे सुधारने का प्रयत्न तो भरपूर किया, पर उसमें निहित स्वार्थों के अवरोध ने सफलता नहीं मिलने दी। अस्तु उन्होंने नये सिरे से धर्म तन्त्र का स्वरूप निखारने तथा उसे नव सृजन में नियोजित करने का व्रत लिया और उसे उत्साहवर्धक स्तर तक आगे बढ़ाया है।
इन दिनों देश भर में 2400 प्रज्ञापीठें बनीं हैं, जिनके द्वारा अपने-अपने क्षेत्र में युगान्तरीय चेतना का विस्तार का भाव भरा प्रयास किया जाता है। इन सभी में युगशिल्पी, प्रशिक्षित पुरोहितों की नियुक्ति की गई है। जो अपने-अपने निर्धारण कार्य क्षेत्र में नियमित रूप से जन-जागरण की पंच सूत्री योजना चलाते हैं। (1) हर शिक्षित को प्रज्ञा-साहित्य नियमित बिना मूल्य पढ़ाने वापिस लेने की स्वाध्याय प्रक्रिया (2) स्लाइड प्रोजेक्टर और टेपरिकॉर्डर के द्वारा हर गली मुहल्ले में युग चेतना का आलोक वितरण-सत्संग (3) दीवारों पर आदर्श वाक्यों का लेखन तथा घरों को प्रेरणाप्रद वाक्यों से कलेण्डरों की तरह सजाना। (4) जन्म दिवसोत्सवों को पर्व संस्कारों तथा प्रज्ञा आयोजनों के माध्यम से नव युग की विचारणा से जन-जन को अवगत अनुप्राणित करना (5) एक घण्टा समय और दस पैसा नित्य देकर अपने-अपने क्षेत्र में सत्प्रवृत्ति संवर्धन में योगदान देने वाले प्रज्ञा परिजनों की संख्या बढ़ाना। इस पंच सूत्री योजना के आधार पर जन सम्पर्क बढ़ा और जन समर्थन तथा जन सहयोग मिला है। यही है प्रज्ञा अभियान की धर्मतंत्र से लोक शिक्षण प्रक्रिया की सफलता का रहस्य।
बिना इमारत के छोटे प्रज्ञा संस्थान स्वाध्याय मण्डलों के रूप में गठित किये गये हैं। उनकी संख्या इन दिनों 10 हजार के लगभग है। लक्ष्य 24 हजार की स्थापना का है। प्रत्येक स्वाध्याय मण्डल के 30 सदस्य होते हैं और वे मिल-जुल कर उपरोक्त पंच सूत्री योजना द्वारा नव जागरण की युग परिवर्तन की प्रक्रिया में अपने-अपने ढंग से निरत रहते हैं।
धर्म के वास्तविक स्वरूप से जन-जन को अवगत कराने के लिए भारतीय धर्म शास्त्रों में से वेद, शास्त्र, स्मृति गीता पुराण आदि प्रायः प्रत्येक का अनुदान एवं प्रकाशन किया गया है। मिशन की सात पत्रिकाएं छपती हैं, जिनके ग्राहक पाठकों की संख्या 10 लाख तक पहुंचती है। प्रज्ञा साहित्य की सहस्रों छोटी-छोटी पुस्तकें छपी हैं। अत्यन्त सस्ते प्रज्ञा फोल्डर आदर्श वाक्य तथा स्टीकर जन-जन का मन झकझोर रहे हैं। पुरातन अठारह पुराणों की तरह उन्नीसवां पुराण ‘प्रज्ञा पुराण’ लिखा गया है, इसमें पुरातन कथा प्रसंगों के माध्यम से युग समस्याओं का समाधान प्रस्तुत किया गया है। अभी एक खण्ड छपा है, अगले दिनों 19 खण्ड और छपेंगे।
घर-घर अलख जगाने और युग चेतना ने अवगत अनुप्राणित करने की प्रक्रिया प्रायः एक लाख प्रज्ञापुत्र निरन्तर सम्पन्न करते हैं। प्रयास का सत्परिणाम हाथों हाथ सामने आता है।
जैसे-जैसे प्रज्ञा पीठों तथा स्वाध्याय मण्डलों में समर्थता बढ़ती है, वैसे-वैसे उन्हें सृजनात्मक और सुधारात्मक स्तर की सेवा साधना में जुटा दिया जाता है। इस सन्दर्भ में जिन कार्यों को प्राथमिकता दी जा रही है, वे यह हैं— (1) निरक्षरता मिटाने के लिए पुरुषों की रात्रि पाठशालाएं तथा महिलाओं की अपराह्न शालाएं सर्वत्र स्थापित करना। (2) स्कूली छात्रों के लिए उनकी सुविधा के समय पर पाठ्यक्रम परिपक्व करने की निःशुल्क शिक्षण व्यवस्था बनाना। साथ-साथ सुसंस्कारिता संवर्धन का गहरा समावेश करना। (3) सामूहिक श्रमदान से स्वच्छता आन्दोलन चलाना। मल-मूत्र, कूड़े-करकट को खाद के रूप में बदलने का विशेष प्रबन्ध करना। (4) व्यायाम शालाओं की स्थापना, खेल-कूदों को प्रोत्साहन, फर्स्टएड, स्काउटिंग, रोगी-परिचर्या, धात्री विद्या एवं शिशु पोषण के सत्र चलाना। (5) वृक्षारोपण, हरीतिमा संवर्धन, घरों में पुष्प वाटिका, शाक-वाटिका लगाने तथा तुलसी के पौधे आंगन में लगाकर हरीतिमा देवालयों की स्थापना। (6) सहकारी गृह-उद्योग का विस्तार। (7) नशा-निवारण (8) जाति-पांति के आधार पर ऊंच-नीच, पर्दा-प्रथा, मृतक भोज भिक्षा-व्यवसाय तथा दहेज प्रदर्शन, अपव्यय जैसी कुरीतियों का उन्मूलन। (9) फैशन, जेवर, दुर्व्यसन, अपव्ययों का विरोध, अल्प बचत के लिए प्रोत्साहन (10) बहु प्रजनन की हानियों से जन-जन को अवगत कराने, छोटे परिवार रखने के लिए लोक शिक्षण। यह दस सूत्री कार्यक्रम सभी प्रज्ञा पीठों और स्वाध्याय मंडलों द्वारा क्रियान्वित किये जा रहे हैं। जैसे-जैसे समर्थता बढ़ती जायेगी वैसे-वैसे वे अनेकानेक कार्य हाथ में लिए जाते रहेंगे, जिनके द्वारा लोकमानस का परिष्कार और सत्प्रवृत्ति संवर्धन का लक्ष्य पूरा हो सके। (1) जन-जीवन की हर समस्या का आदर्शवादी समाधान प्रस्तुत करने वाला प्रज्ञा-साहित्य देश की हर भाषा में छापने की योजना है। (2) फिल्म, नाटक, अभिनय, गायन के माध्यम से लोक चिन्तन को नव सृजन में संलग्न करने की प्रक्रिया भी कार्यान्वित किया जाना है। (3) युग शिल्पियों को बड़ी संख्या में प्रशिक्षित करने, उनके निर्वाह साधन जुटाने तथा विश्व के कोने-कोने में भेजने का सरंजाम भी जुटाया जाना है। (4) इसके लिए हर गांव में छोटे-बड़े प्रज्ञा संस्थान बनाने हैं, जो अपने क्षेत्रों में सर्वतोमुखी प्रगति की गतिविधियों के संचालन के केन्द्र बन सकें। जनरेटर, ट्यूबवैल नर्सरी की तरह अपने अपने क्षेत्रों को हरा भरा प्रगतिशील बना सकें। (5) प्रज्ञा अभियान अभी भारत भूमि तथा हिन्दू-धर्म की परिधि में काम कर रहा है। क्योंकि उसका इसी परिधि में जन्म हुआ है। अगले दिनों इसी आधार पर सभी धर्मों को एक मंच पर एकत्रित किया जायेगा और विश्व के कोने-कोने में धर्म धारणा के साथ अविच्छिन्न रहने वाली शालीनता तथा उदारता को जन-जन के मन-मन में समाविष्ट कराया जायेगा।
यह पंच सूत्री योजना मिशन के तीसरे चरण में सम्पन्न की जायेगी। संक्षेप में (1) जन जागरण की आरंभिक पंच सूत्री योजना। (2) समर्थता आते ही सृजनात्मक और सुधारात्मक कार्यक्रमों की दस सूत्री योजना। (3) परिपक्वता बढ़ने पर विश्वव्यापी परिवर्तन प्रयासों को सम्पन्न करने वाली पंच सूत्री अंतिम प्रक्रिया को व्यापक बनाया जाना है। इस प्रकार युग संधि के बीस वर्षों में क्रमिक गति से बीस कार्यक्रम पूरे करने की समग्र योजना धर्मतंत्र से लोक शिक्षण प्रयोजन की पूर्ति के लिए सम्पन्न की जानी है।
धर्म तंत्र से लोक शिक्षण की गतिविधियां गायत्री तपोभूमि, मथुरा से संचालित होती हैं। उन्हें युग निर्माण योजना नाम से जाना जाता है। पूज्य गुरुदेव वहीं रह कर इस प्रक्रिया को सम्पन्न करते रहे हैं। अब अगले चरण की पूर्ति के लिए वे हरिद्वार आये हैं, और यहां से तीर्थ परम्परा को पुनर्जीवित करना तथा अध्यात्म विज्ञान के समन्वय के दो उच्चस्तरीय युग प्रयोजनों की पूर्ति कर रहे हैं। पूज्य गुरुदेव के मथुरा छोड़ने के उपरान्त वहां का कार्य अनेक गुना बढ़ा है। अब वे हरिद्वार से हिमालय जाने की तैयारी कर रहे हैं। उनका विश्वास है कि इससे किसी कार्य में न तो शिथिलता आने वाली है, न कमी होने की आशंका है, क्योंकि यह समूची प्रक्रिया व्यक्तियों पर अवलम्बित न होकर स्रष्टा की अदृश्य प्रेरणा से संचालित-अनुप्राणित होती हैं।