Books - युग परिवर्तन-प्रज्ञावतरण
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Language: HINDI
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तीर्थ परम्परा का पुनर्जीवन
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देव संस्कृति की आधारशिला-उद्गम निर्झरिणी तीर्थ परम्परा को समझा जा सकता है। शास्त्रों में उनका असाधारण महात्म्य, महत्व एवं पुण्य-फल बताया गया है। अभी भी उस निमित्त लाखों व्यक्ति खर्चीली यात्रा करते हैं। उनमें जितना समय, श्रम एवं धन नियोजित होता है, उतने में एक पंचवर्षीय योजना भली प्रकार पूरी हो सकती है।
आज उस प्रक्रिया के अन्तर्गत धक्का-मुक्की, भगदड़, गंदगी, जेब कटाई, थकान, निराशा, खीज के अतिरिक्त किसी के पल्ले और कुछ नहीं पड़ता। देव दर्शन स्नान-दान की चिह्न पूजा कर लेने से किसी का समाधान नहीं होता। पर्यटन-पिकनिक तक का मौज मजा भी हाथ नहीं लगता। तब यह सोचने को बाधित होना पड़ता है कि तीर्थ परम्परा मात्र मूढ़ मान्यता ही हैं या उसके पीछे कुछ सार भी है।
इस संदर्भ में उस उद्देश्य एवं निर्धारण को जानना होगा जिसके लिए इस प्रतिपादन और प्रचलन में ऋषियों ने एड़ी-चोटी का पसीना एक किया था। उन दिनों तीर्थ सर्वसाधारण की कान-खीज उतारने एवं नव जीवन प्रदान करने वाले केन्द्र थे। लोग वहां जाते सेनीटोरियम की तरह उलझनों का उपचार करते, आत्म-निर्माण की दृष्टि से उच्चस्तरीय परामर्श पाकर व्रत-लेकर कायाकल्प जैसी मनःस्थिति लेकर वापस लौटते थे। तीर्थ सेवन सर्वसाधारण के लिए सुलभतम साधना एवं योगाभ्यास का ऐसा स्वरूप था, जिसका लाभ वहां पहुंचने और कुछ समय निवास करने वाले हर व्यक्ति को मिलता था।
तीर्थों का दूसरा उद्देश्य था, धर्म क्षेत्र के पुरोहित वानप्रस्थ परिव्राजकों को प्रशिक्षित करके देश के कोने-कोने में भेजना तथा वे सर्वत्र धर्म धारणा के लिए गहरी आस्था बनाये रहने का उत्तरदायित्व वहन कर सके। ऐसे लोग धर्म प्रचार की पद यात्रा पर निकलते थे। बादलों की तरह बरसने सूर्य की तरह ऊर्जा बिखेरते और पवन की तरह चेतना भरते तथा बुहारी लगाते थे।
बुद्ध काल में नालंदा और तक्षशिला जैसे अनेकों विहार, संघाराम अपने प्रयत्नों में प्राण-पण से तल्लीन रहे और तात्कालिक बौद्धिक क्रान्ति को विश्व व्यापी बनाने में पूरी तरह सफल रहे। शंकराचार्य ने इन्हीं प्रयोजनों के लिए चारों धाम की स्थापना की। इससे पूर्व सभी तीर्थ उन्हीं दो प्रयोजनों में निरत रहते और मानवी गरिमा की वरिष्ठता अक्षुण्ण रखने का उत्तरदायित्व पूरी तरह वहन करते थे। उनके तत्वाधान में कुम्भ पर्व जैसी छोटी-बड़ी धर्म संसदें जुड़ती और सामयिक तथा क्षेत्रीय समस्याओं के समाधान निकालती रहती थीं।
तीर्थों में लोग पाप प्रायश्चित के लिए, बच्चों के नामकरण, अन्नप्राशन, मुंडन विद्यारम्भ, दीक्षा, यज्ञोपवीत जैसे संस्कार कराने पहुंचते थे। वानप्रस्थ लेने के लिए तीर्थों को उपयुक्त स्थान माना जाता था। पितरों के अस्थि विसर्जन से लेकर पिण्डदान, तर्पण-श्राद्ध जैसी धर्म प्रक्रियाएं भी वहीं सम्पन्न होती थीं। ऐसे-ऐसे अनेक कारण थे जिनके कारण तीर्थ अपने-अपने क्षेत्रों में धर्मानुशासन बनाये रहने की वैसी ही भूमिका निभाते थे, जैसे कि सरकारी जिले, कमिश्नरी, प्रांत आदि के दफ्तर-अफसर सम्पन्न करते हैं। इस निर्धारण के कारण ही यह देश देव संस्कृति का कर्णधार बना हुआ था। यहां के नागरिक 33 कोटि देवताओं के रूप में विश्व विख्यात थे। यह भूमि स्वर्गादपि गरीयसी थी उसे जगद्गुरु, चक्रवर्ती स्वर्ण-सुमेरु आदि नामों से सम्बोधित—सम्मानित किया जाता था।
उस लुप्तप्राय परम्परा को पुनर्जीवित करने के लिए शान्ति कुंज को गायत्री तीर्थ के रूप में विकसित किया गया है। जिन्हें इमारतों प्रतिमाओं को आंख से देख लेने और नमन-वन्दन कर लेने भर से शांति या प्रेरणा मिलती है, इसके लिए देश के प्रायः सभी प्रमुख तीर्थों की प्रतीक प्रतिमाएं स्थापित की गई हैं, इनके मध्य रुद्राभिषेक का क्रम चलता रहता है। हिमालय अध्यात्म का ध्रुव केन्द्र है। वहां का विशिष्ट वातावरण साधना के लिए महत्वपूर्ण माना गया है। देवात्मा हिमालय के उत्तराखण्ड भाग की एक विशालकाय प्रतिमा गायत्री तीर्थ में स्थापित है। भागीरथ, परशुराम और विश्वामित्र की नव सृजन में पूर्णतः भूमिका रही है। इन तीनों ऋषियों की भव्य प्रतिमाओं की स्थापना है। आद्य शक्ति युगशक्ति महा प्रज्ञा गायत्री का देवालय है। गायत्री मन्त्र के ऋषि विश्वामित्र तथा देवता सविता की प्रतिमाएं भी इस तीर्थ में विद्यमान हैं।
गायत्री तीर्थ में पुरातन उद्देश्य की पूर्ति के लिए सभी कार्यक्रम संक्षिप्त एवं सुनियोजित रीति से चल रहे हैं। कल्पसाधना के नाम से एक महीने के सत्र चलते हैं, जिस में अमृताशन आहार, गंगाजल सेवन, जड़ी-बूटी कल्प, नादयोग, बिन्दुयोग, लय योग की साधना— प्राणायाम, बन्ध-मुद्रा का अभ्यास गायत्री मंत्र का अनुष्ठान, नित्य अग्निहोत्र प्रज्ञा पुराण संकीर्तन, सत्संग-प्रवचन, परामर्श आदि का क्रम चलता है। हर साधक की शारीरिक-मानसिक स्थिति मूर्धन्य चिकित्सकों द्वारा पर्यवेक्षण किया जाता है। तदुपरान्त हर साधक को उसकी भिन्न-स्थिति के अनुरूप भिन्न साधनाएं बताई जाती हैं।
युगशिल्पी सत्र साथ-साथ चलते हैं। जिन में धर्म तंत्र के लोक शिक्षण की समूची प्रक्रिया का अभ्यास कराया जाता है। प्रवचन, संगीत एवं जड़ी-बूटी चिकित्सा प्रशिक्षण सभी को उपलब्ध रहता है। इस प्रशिक्षण प्राप्त करने के उपरान्त उसमें से अधिकांश अपने-अपने कार्य क्षेत्र में धर्म धारणा को प्रखर परिपक्व करने के लिए स्थापित प्रज्ञा-पीठों के माध्यम से आलोक वितरण में संलग्न होते हैं। कुछ चुने हुए धर्म-प्रचारकों को शान्ति कुंज की ओर से चल रहे देश व्यापी पदयात्रा- तीर्थ यात्रा कार्यक्रम पर भेज दिया जाता है। धर्म प्रचारकों की यह टोलियां मार्ग में सम्पर्क साधती और तीन-तीन दिन के प्रज्ञा आयोजन को सम्पन्न करती हैं। इन आयोजनों में असंख्यों व्यक्ति नव जीवन की प्रेरणा और युगांतरीय चेतना से अनुप्राणित होते हैं। बुराइयां छोड़ने और अच्छाइयां ग्रहण करने की व्रतशीलता अपनाने का इन आयोजनों में विशेष कार्यक्रम रहता है।
धर्म प्रचार मण्डलियां अपने साथ युगनिर्माण प्रदर्शनी, युग-संगीत के साधन लाउडस्पीकर जैसे उपकरण तथा कार्यकर्ताओं के वस्त्र-बिस्तर साथ लेकर चलती हैं। इसके लिए जीप गाड़ियों तथा मोटर साइकिलों का उपयोग किया जाता है। इन दिनों 20 जीपों तथा तीन-तीन मोटर साइकिलों के 10 जत्थे कुल मिलाकर 30 तीर्थ यात्रा मण्डलियां उत्तर और मध्य भारत के प्रायः सभी क्षेत्रों की देहाती जनता को नवयुग का संदेश सुनाती और तदनुरूप ढलने-बदलने के लिए प्रोत्साहित करती हैं। हर दिन होने वाले 24 आयोजनों में से प्रत्येक में न्यूनतम एक हजार की औसत उपस्थिति रहती है।
प्रज्ञा परिजन संस्कार कराने, जन्म दिन मनाने श्राद्ध पिण्डदान आदि करने के निमित्त तो गायत्री तीर्थ में आते ही हैं। अब आदर्श विवाहों का विशेष प्रबन्ध भी यहां किया गया है बिना दहेज प्रदर्शन एवं अपव्यय की दृष्टि से नितान्त सस्ती शादियां कराने का यहां विशेष प्रबन्ध किया गया है। इस प्रचलन का प्रभाव देश भर में पड़ेगा और कुरीतियों में प्रमुख खर्चीली देन दहेज वाली शादियों का प्रचलन भी मिटेगा।
गायत्री तीर्थ पुरातन तीर्थ परम्परा को पुनर्जीवित कर रहा है। प्रयत्न यह चल रहा है कि प्रतिष्ठापित प्रज्ञा संस्थानों में से प्रत्येक को युग तीर्थों के रूप में विकसित किया जाय और जन जागृति की महती आवश्यकता को पूरा किया जाय।