Books - युग परिवर्तन-प्रज्ञावतरण
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Language: HINDI
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अध्यात्म और विज्ञान की समन्वित शोध-साधना
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जिस प्रकार राजतंत्र और धर्मतन्त्र के दो पहियों पर भौतिक और अध्यात्मिक क्षेत्र का प्रगति रथ गतिशील होता है। उसी प्रकार भौतिक विज्ञान और आत्मविज्ञान की दो महान् उपलब्धियां मनुष्य के बहिरंग और अंतरंग जीवन की आवश्यकताओं—समस्याओं का समाधान करती हैं। दोनों का समान महत्व है। दोनों ही अनिवार्य रूप से आवश्यक हैं। इसे समय का दुर्विपाक ही कहना चाहिए कि इन दिनों भौतिक विज्ञान ही सब कुछ है, उसी की प्रामाणिकता एवं मान्यता है। आत्म विज्ञान—भ्रान्तियों, विभूतियों और विडम्बनाओं के जाल-जंजाल में फंसकर अपनी गरिमा, उपयोगिता गवां बैठा और उपहासास्पद, तिरस्कृत, अविश्वस्त स्थिति में रहकर मौत के दिन पूरे कर रहा है। बढ़ते हुए विज्ञानवाद, बुद्धिवाद, अर्थवाद ने उच्छृंखलता का ऐसा माहौल बनाया है, जिसमें आदर्शवादी तत्वज्ञान की जड़ें हिलने लगी हैं। परमात्मा-आत्मा का अस्तित्व भौतिकवादी विज्ञान और दर्शन ने एक साथ अस्वीकारा है, फलतः जन-मानस ने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से आदर्शवादी मर्यादाओं को अपनाने से इन्कार कर दिया है। यही है वह आस्था संकट, जिसके कारण हर क्षेत्र में अदूरदर्शी, अविवेक ने जड़े जमा ली हैं और अवांछनीय गतिविधियां अपनाये जाने के कारण अनेकानेक विपत्तियां-विपदायें सामने हैं। विश्व-विनाश जैसी परिस्थितियां बनती जा रही हैं।
आवश्यक समझा गया है कि अध्यात्म विज्ञान के तत्व दर्शन पक्ष को आज के स्वीकृत सिद्धान्तों के आधार पर सही सिद्ध करके दिखाया जाय। पुरातन काल में शास्त्र-प्रतिपादनों और आप्त वचनों को श्रद्धा के आधार पर सहज अपना लिया जाता था, पर अब वैसी स्थिति नहीं रही। अब तर्क, तथ्य, प्रमाण और भौतिक विज्ञान की साक्षी बिना कोई बात गले नहीं उतरती। इसलिए आवश्यक समझा गया है कि अध्यात्म के तत्वदर्शन को बुद्धिवाद-प्रत्यक्षवाद की कसौटी पर भी खरा सिद्ध करने का प्रयत्न किया जाए ताकि अश्रद्धा के वर्तमान लोक-मानस को भी उच्छृंखलता से विरत होने—आदर्शवादी देवपरम्परा अपनाने के लिए सहमत किया जा सके।
पदार्थ विज्ञान दैत्य है और अध्यात्म विज्ञान देव। उनमें विरोध विग्रह रहने पर दोनों की ही हानि है। पौराणिक गाथाओं में देवासुर संग्राम के कारण पहुंची अपार क्षति का वर्णन है। ऐसा ही इन दिनों भी हो रहा है। यदि अध्यात्म ने विज्ञान का सहयोग लिया होता और विज्ञान ने अध्यात्म का आदेश स्वीकार किया होता, तो समन्वय के आधार पर ऐसी स्थिति बनती, जिससे मनुष्य में देवत्व और धरती पर स्वर्ग का अवतरण दिवा स्वप्न न रहकर, इन्हीं आंखों के सामने प्रत्यक्ष विद्यमान रहता। पुरातन काल की समुद्र-मंथन कथा यही दर्शाती है कि यदि देव और दैत्य—अध्यात्म और विज्ञान—ब्रह्माण्ड और जीव—समुद्र का सहयोग पूर्वक मंथन करें, तो कथित उपलब्धियों का सामयिक संस्करण नये सिरे से विनिर्मित हो सकता है। उन दिनों मात्र 14 रत्न निकले थे। इन दिनों उस प्रक्रिया को सही रीति से अपनाये जाने पर कितने ही रत्न निकल सकते हैं, जिनके आधार पर सर्वत्र अमृत वर्षा होने लगे और सुख-साधनों से भरा-पूरा सतयुग हर आंगन में क्रीड़ा-कल्लोल करने लगे।
अध्यात्म और विज्ञान का पारस्परिक समर्थन, समन्वय और एकान्वय ऐसा कार्य है, जो परोक्ष स्तर का होते हुए भी प्रत्यक्ष की सभी समस्याओं को सुलझाने और सभी आवश्यकताओं को पूरा कर सकने में समर्थ हो सकता है।
कार्य की महत्ता और उपयोगिता तो अनेकों ने स्वीकारा है और उसे करने की आवश्यकता पर भी बल दिया है। सन्त विनोबा इस समन्वय पर बहुत जोर देते और मनीषियों को इस प्रतिपादन का उत्तरदायित्व उठाने के लिए आमन्त्रित करते रहे। ऐसा अन्यान्यों ने भी किया और कहा है, किन्तु अब तक यह बन नहीं पड़ा कि इस महान प्रयोजन को पूरा करने के लिए कोई समर्थ तन्त्र आगे आये और उसे प्राण-प्रण से पूरा करने का बीड़ा उठाये— उत्तरदायित्व निभाये।
इसे कर गुजरने का कार्य प्रज्ञा अभियान की ब्रह्मवर्चस् शोध शाखा ने अपने कंधे पर उठाया है। उसके दार्शनिक अनुसन्धान इसी महान् प्रयोजन को सम्पन्न करने के लिए अर्जुन के मत्स्य वेध जैसा लक्ष्य साधकर अपनी समस्त चेतना को केन्द्रित कर रहे हैं। इस दिशा में जो मणि-मुक्तक हाथ लगते हैं, वे अखण्ड ज्योति एवं युग निर्माण योजना के पृष्ठों पर तथा पुस्तकों के रूप में प्रकाशित होते रहते हैं। भविष्य में इसे और भी अधिक सुव्यवस्थित रूप से अग्रगामी बनाने का संकल्प है। साधना शक्ति के अनुरूप कार्य विस्तार होना सुनिश्चित है। आशा की जानी चाहिए कि नई बुद्धिवादी पीढ़ी को, उनकी प्रिय शैली में अध्यात्म विज्ञान को स्वीकार्य बनाया जा सकेगा और श्रद्धालुओं की भांति तार्किक भी समान रूप से शालीनता अपनाने में ही अपना कल्याण अनुभव करेंगे।
पुरातन काल में अध्यात्म और विज्ञान के समन्वय में तीन शक्ति-स्रोत उपलब्ध किये गये थे। उनके आधार पर मनुष्य ने देवोपम क्षमतायें हस्तगत की थीं। आज उन लोगों की स्थिति लुप्तप्राय एवं विकृत स्तर की बन गई है। नवयुग के अनुरूप उन्हें पुनर्जीवित करने और पुरातन काल जैसी सतयुगी भूमिका निभा सकने में समर्थ बनाने का निश्चय किया और कदम उठाया गया है।
यह तीन विज्ञान हैं (1) मंत्र विज्ञान (2) यज्ञ विज्ञान (3) परोक्ष विज्ञान। मन्त्र विज्ञान में परिष्कृत व्यक्तित्वों से निःसृत होने वाली वाक् शक्ति का उच्चस्तरीय उपयोग है। शब्दशक्ति जड़ और चेतन को प्रभावित करने वाली असाधारण शक्ति है। इसका उपयोग कर सकने वाले श्रृंगी ऋषि की तरह दशरथ की गोद में चार देव मानव बिठाने वाले वरदान और परीक्षित को तक्षक का ग्रास बनाने वाले अभिशाप दे सकते थे। मन्त्र शक्ति से आत्मोत्कर्ष, समृद्धि संवर्धन और वातावरण परिशोधन जैसे महत्वपूर्ण कार्य हो सकते हैं, किन्तु मंत्र में मात्र शब्दोच्चारण पर निर्धारित विधि-विधान ही सब कुछ नहीं है। उसके प्रयोक्ता को तप साधना द्वारा अपनी प्रसुप्त शक्तियां भी इतनी लगानी पड़ती कि वह स्वयं अष्टधातु से बनी तोप की भूमिका निभाये और मन्त्र की गोली-बारूद की तरह सही निशाने पर प्रयुक्त करके अभीष्ट लाभ उपलब्ध करें।
गायत्री विज्ञान को प्रकारांतर से इस मंत्र विद्या का—शब्द-शक्ति का—उच्चस्तरीय अनुसन्धान करने के लिए हाथ में लिया गया है। गुरुदेव अपने समय के सफल महामान्त्रिक हैं। उनके तत्वावधान में यह शोध-प्रयोग क्रमिक गति से सफलता पूर्वक चल रहा है।
दूसरा यज्ञ विज्ञान है। इसमें अग्नि ऊर्जा का उच्चस्तरीय उपयोग होता है। अग्निहोत्र में अग्नि पूजा ही नहीं, उसका रहस्यमय प्रयोग भी सम्मिलित है। शारीरिक रोगों का निवारण—मानसिक विकृतियों का सन्तुलन—वनस्पतियों और प्राणियों का उत्कर्ष—अन्तरिक्ष में प्राण-पर्जन्य का अभिवर्षण—प्रदूषणों का संशोधन—वातावरण में दिव्य तत्वों का सम्वर्धन जैसे अनेक प्रयोजन यज्ञ विज्ञान से सधते हैं। इस लुप्तप्राय विज्ञान का नए सिरे से अनुसंधान एवं निर्धारण इन दिनों चल रहा है।
इस यज्ञ विज्ञान के साथ-साथ जड़ी-बूटियों की दिव्यशक्ति को सूक्ष्मीकृत औषधि के रूप प्रयोग करने का भी एक पक्ष है। यज्ञ में उन्हें वायुभूत बना कर प्रयुक्त किया जाता है। स्वास्थ्य सम्वर्धन में उनका चिकित्सा जैसा उपयोग है। च्यवन ऋषि को कायाकल्प और लक्ष्मण को नवजीवन उन्हीं के आधार पर मिला था। सोमपान के आधार पर ऋषियों को देवत्व प्राप्त होता था। आयुर्वेद का ढांचा इसी आधार पर खड़ा है। इन दिनों जड़ी-बूटियों के क्षेत्र में शोध-अनुसंधान, प्रयोग-परीक्षण, नियन्त्रण-निर्धारण न रहने से वे पंसारियों के यहां सड़ी-गली स्थिति में, किसी के स्थान पर कोई मिलने के रूप में अंधेर चल रहा है। इस मिशन का चरक, वाग्भट्ट स्तर का नवीन अनुसन्धान ब्रह्मवर्चस् शोध प्रक्रिया के अन्तर्गत चल रहा है। समर्थ प्रयोगशालायें खड़ी की गई हैं। जड़ी-बूटी उद्यान लगाये गए हैं।
तीसरा परोक्ष विज्ञान वह है, जिसमें अपनी पृथ्वी को अन्तर्ग्रही आदान-प्रदान का लाभ मिलता है। ब्रह्माण्डीय ऊर्जा का सामान्य रूप से और सौर मण्डल के ग्रह-गोलकों का विशेष रूप से पृथ्वी को अनुदान मिलता है। इसी कारण वह वर्तमान में ऐसी स्थिति में बनी हुई है, जिसमें विज्ञात ग्रह-नक्षत्रों में से अन्य कोई दृष्टिगोचर नहीं होता। यह सौभाग्य उसे परोक्ष जगत से प्राप्त हो सका है।
ब्रह्माण्डीय ऊर्जा का सौर मण्डल के ग्रहों उपग्रहों द्वारा कब, कहां कितना, किस स्तर का अनुदान किस प्रकार मिलेगा, उसकी जानकारी ज्योतिष विज्ञान के आधार पर मिलती है। यदि उसका सही ज्ञान हो, तो उस आधार पर सम्भावित विपत्तियों से बचा जा सकता है। मुहूर्त विद्या और जन्म कुण्डली का आधार, इस विज्ञान की सूक्ष्म कला-विकला और पलभा निर्धारण पर अवलम्बित है।
पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा 365.25 दिन में पूरी करती है और अपनी धुरी पर भी चौबीस घंटे में घूमती है। काल गणना इस आधार पर सही न बन सकी। वर्ष, मास आदि का वर्तमान निर्धारण समग्र नहीं, लगभग स्तर का है। इसमें अन्तर पड़ता रहता है, जिसे दृश्य गणित के आधार पर हर पांच हजार वर्ष बाद नए सिरे से संशोधन करना पड़ता है। आर्यभट्ट, वराहमिहिर आदि के उपरान्त यह संशोधन किसी ने किया नहीं। इस अभाव की पूर्ति ब्रह्मवर्चस् द्वारा की जा रही है। जन्म कुण्डली के लिए बच्चे के जन्म-स्थान की सही पलभा का ज्ञान होना और उसी आधार पर स्थानीय पंचांग बनना चाहिए। यह आज कहीं होता नहीं, अतएव ज्योतिर्विज्ञान एक प्रकार से मूढ़-मान्यता बन कर रह गया है, इसका नए सिरे से निर्धारण आवश्यक था, वही किया भी जा रहा है।
परोक्ष विज्ञान के अन्तर्गत ब्रह्माण्ड के चेतना क्षेत्र में विद्यमान जीवधारियों की स्थिति का भी ज्ञान उपलब्ध होता है। अदृश्य जगत में देव स्तर के अशरीरी प्राणी भी रहते हैं। इन पितरों—दिव्य चेताओं की अनेक श्रेणियां हैं। दैत्य स्तर के अशरीरी ऐसे भी हैं, जो पृथ्वी एवम् उसके निवासियों पर विपत्ति भी बरसाते हैं। प्रेत-पिशाच इसी स्तर के होते हैं। पृथ्वी के वातावरण तथा प्राणियों को सुख-दुःख देने में इनका भी योगदान होता है। पुराणों में इन अदृश्यों की भली-बुरी कृतियों का अलंकारिक वर्णन है। इस संबन्ध में तथ्यों का नये सिरे से—नये परिप्रेक्ष्य में जानना, देव वर्ग से सम्पर्क साधकर लाभान्वित होना और दैत्य जन्य विग्रहों से आत्म रक्षा करना किस प्रकार संभव हो सकता है—इस परोक्ष विज्ञान को सचेतन स्तर का और ज्योतिर्विज्ञान को अचेतन स्तर का कहा जा सकता है। दोनों के समन्वय से ही समग्र परोक्ष विज्ञान की निर्धारणा होती है। इस विद्या का सांगोपांग अनुसंधान प्रज्ञा अभियान की ब्रह्मवर्चस् शाखा द्वारा किया जा रहा है।
नियन्ता की युग परिवर्तन प्रक्रिया एवं उसका परोक्ष सूत्र संचालन—प्रज्ञा अभियान की निर्धारणाओं और सफलताओं का लेखा जोखा लेने वालों को कार्य-कारण की संगति बिठाने में सफलता नहीं मिल सकती। मानवी प्रयत्नों की एक सीमा है। उसे पार करते हुए अप्रत्याशित परिस्थिति उत्पन्न कर सकना नियन्ता की विधि के सहारे ही संभव हो सकता है। वर्षा काल जैसी सजल हरीतिमा, सर्दी जैसी ठिठुरन, बसंत जैसी मुस्कान, गर्मी जैसी तपन कोई मनुष्य उत्पन्न नहीं कर सकता, भले ही वह कितना ही समर्थ क्यों न हो। आंधी जितना व्यापक बुहारी लगाती है, उतना कर सकना किसी के बस की बात नहीं। हवा पीछे चलती है तो वाहनों से लेकर त्रयोंक की गति बढ़ा देती या सरलता अनुभव होती है। ऐसी अनुकूलताएं पूर्णतया सृष्टा की इच्छा व्यवस्था पर निर्भर रहती हैं। तूफान के साथ उड़ने को सहमत होने वाले तिनके पत्ते तथा धूलि कण आकाश चूमते और अपंग होते हुए भी द्रुतगामी दौड़ लगाते हैं, इसे कौन नहीं जानता।
इतिहास में ऐसे घटनाक्रमों का उल्लेख है, जिनकी संगति कायिक और बौद्धिक क्षमता के साथ नहीं बैठती। हनुमान का पर्वत उखाड़ना, समुद्र लांघना और लंका उजाड़ना उनकी निजी सामर्थ्य से हो सकता था, यह किस प्रकार माना जाय? यदि वे इतने ही समर्थ थे तो अपने स्वामी सुग्रीव को बाली के त्रास से क्यों नहीं छुड़ा सके? अर्जुन यदि सचमुच ही महाबली थे तो द्रोपदी का भरी सभा में अपमान क्यों होने देते? अज्ञातवास के दिनों जिस-तिस की नौकरी करके छिपते-छिपते दिन क्यों गुजारते रहे? इन शंकाओं का कोई बुद्धिसंगत समाधान मिलता नहीं।
टिटहरी द्वारा समुद्र पाटने का प्रयत्न अगस्त ऋषि की सहायता से संभव होना व्यवहार बुद्धि की पहुंच से बाहर है। एक परशुराम धरती पर फैले हुए अवांछनीय तत्वों का इक्कीस बार सफाया करें, और कोई उनके मार्ग में आड़े न आये, इसका क्या तुक? ग्वाल-बालों की सहायता से गोवर्धन उठाना और रीछ-वानरों के कौशल से पुल बांधना भी ऐसा ही बेतुका है।
प्रज्ञा अभियान के आरंभ से लेकर अब तक के इतिहास से जिनका निकटवर्ती सम्बन्ध रहा है, उनकी सामान्य बुद्धि आश्चर्यचकित हुए बिना नहीं रह सकती। आज उसकी स्थिति और प्रगति इस स्तर की है कि संसार के महान परिवर्तन प्रस्तुत करने वाले अविस्मरणीय आन्दोलनों में उनकी गणना हो सके। स्थानीय और थोड़ी सी समस्या को लेकर अब तक राजनैतिक, सामाजिक आन्दोलन होते और सृजन संघर्ष के उपक्रम भी चलते रहे हैं, पर ऐसा किसी भी मंच से कदम उठाना तो दूर सोचा तक नहीं गया कि 500 करोड़ मनुष्यों के चिन्तन, चरित्र और व्यवहार में क्रान्तिकारी परिवर्तन करने के लिए कारगर प्रयास कब और किस प्रकार किया जाय?
वस्तुतः चर्म-चक्षुओं से अदृश्य जगत का तूफानी प्रवाह दृष्टि-गोचर नहीं होता। सामान्यजन इसका निमित्त कारण उन्हीं शरीरधारी व्यक्तियों का देखते हैं। सामान्यजन प्रज्ञाअभियान की उपलब्धियों के लिए पूज्य गुरुजी, माताजी की ओर इशारा करते और उनकी तप-साधना को श्रेय देते हैं। अनेकों को जो व्यक्तिगत लाभ मिले हैं और वातावरण बदलने वाले जो प्रयास चले हैं, उनके पीछे इसी युग्म की भावभरी चर्चा करते हैं। पर वस्तुतः बात वैसी है नहीं। यह सदा समझा जाता रहा है कि कठपुतली के खेल में लकड़ी के खिलौने उचकते-मटकते भर हैं, उनके पीछे बाजीगर की सधी हुई अदृश्य उंगलियां काम कर रही हैं। नियन्ता की युग परिवर्तन आकांक्षा की योजना का एक मात्र कारण है। श्रेय किसे कितना मिला यह उसकी और अग्रगमन की साहसिकता पर निर्भर है। गुरुदेव अपने स्थान बदलते रहते हैं ताकि लोगों को अनुभव हो सके कि उनके बिना भी कहीं कुछ रुकता नहीं, वरन् अपने क्रम में बढ़ता ही चला जाता है। जो सोचते हैं कि गुरुजी के न रहने पर प्रज्ञाअभियान लड़खड़ाने लगेगा, उन्हें अपनी आकांक्षा का इस आधार पर समाधान करना चाहिए कि यह किसी व्यक्ति विशेष के पराक्रम, निर्धारण, कौशल का परिणाम नहीं है। जो हुआ है, वह नियन्ता के निर्धारण के अनुसार हुआ है। तूफान अपना रास्ता आप बनाता है। उसका साथ तिनके-पत्ते तक देते हैं। मार्ग में अड़ने वाले विशालकाय वृक्ष उखड़ते और रेतीले टीले हवा में उड़ते और सत्ता समाप्त करते हैं। शीत, ग्रीष्म और वर्षा का बदलता मौसम जब परिस्थितियों में आश्चर्यजनक परिवर्तन करता है, तो कोई कारण नहीं कि अदृश्य जगत में चल रहा नियन्ता का प्रेरणा प्रवाह उसके लिये उपयुक्त आधार खड़ा न कर सके। प्रज्ञाअभियान की अद्यावधि सफलताओं को इसी दृष्टि से देखा और भावी सम्भावनाओं का अनुमान इसी आधार पर लगाया जाना चाहिए।