Books - युग परिवर्तन-प्रज्ञावतरण
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
युग निर्माण योजना—निर्धारण एवं दिशाधारा
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
यह विश्व जड़-चेतन दो भागों में विभक्त है। शरीर, समाज, वैभव आदि सभी को दो भागों में विभाजित देखा जा सकता है। भौतिक क्षेत्र की सुव्यवस्था बनाने की जिम्मेदारी राजतंत्र को उठानी होती है। दूसरा पक्ष चेतना का है। व्यक्तिगत चिंतन, चरित्र एवं व्यवहार की समूची प्रक्रिया चेतना क्षेत्र में विनिर्मित एवं विकसित होती है। व्यक्तित्व या स्तर इसी को कहते हैं। सुसंस्कारिता इस क्षेत्र की सम्पदा है। इसका बीजारोपण, अभिवर्धन, संरक्षण एवं मार्गदर्शन धर्मतंत्र का काम है। संसार की दो ही प्रमुख शक्ति है। भौतिक क्षेत्र को सुनियोजित—समर्थ करने वाली शासन सत्ता—आत्मिक क्षेत्र को सुसंस्कृति—प्रखर करने वाली धर्मसत्ता। सभी जानते हैं कि शासन गड़बड़ाने लगे तो अराजकता फैलेगी और भौतिक क्षेत्र की स्थिरता एवं प्रगति टिक नहीं सकेगी। इसी प्रकार धर्म क्षेत्र लड़खड़ाने लगे, तो चिन्तन के भ्रष्ट और आचरण के दुष्ट होने में देर न लगेगी। फलतः साधन सुविधा का बाहुल्य रहते हुए भी व्यक्ति दुर्मतिग्रस्त होकर दुर्गति के गर्त में उसी प्रकार गिरेगा, जैसा कि इन दिनों विपत्तियों और विभीषिकाओं के कोल्हू में पिसता दीखता है। व्यक्तियों का समूह ही समाज है। व्यक्ति दुर्बल पड़ेगा, तो समाज से संकटों का बढ़ना स्वाभाविक है। राजतंत्र की तरह ही धर्मतंत्र को भी अपने दायित्व सम्भालने में समर्थ होना चाहिए।
राजतंत्र की क्षमता सर्वविदित है। धर्मतंत्र की सामर्थ्य उससे भी बड़ी है, क्योंकि वह लोक-चेतना की उत्कृष्टता को बनाता-बढ़ाता है। जन-मानस यदि सही रहे, तो ही राजतंत्र अपना काम ठीक कर सकता है। अन्यथा पतनोन्मुख प्रवृत्तियों के रहते शासन द्वारा अनुशासन बनाए रहना तथा सुरक्षा, प्रगति, व्यवस्था जैसे उत्तरदायित्व निभा सकना कठिन पड़ेगा।
धर्म क्षेत्र की गरिमा महान है। पुरातन काल में वह सही स्थिति में था, तब सर्वत्र सतयुगी वातावरण था। विशाल भारत के 33 करोड़ नागरिक तैंतीस कोटि देवताओं का सम्मान पाते थे। भारत भूमि को ‘स्वर्गादपि गरीयसी’ का गौरव प्राप्त था। उसे संसार भर में जगद्गुरु की चक्रवर्ती की—स्वर्ण सुमेरु की उपमा-महिमा से अलंकृत किया जाता था। सीमित साधनों में भी व्यक्तित्वों की गरिमा किस प्रकार श्रेयाधिकारी बनती है और धर्मतत्व को उस प्रयोजन में कितनी बड़ी भूमिका रहती है। इसका प्रत्यक्ष प्रतिपादन इतिहासों की साक्षी का अवलोकन किया जा सकता है।
मध्यकाल में अज्ञानान्धकार युग में सामन्ती अराजकता की तरह धर्मतंत्र भी बेतरह लड़खड़ाया और भ्रान्तियों-विकृतियों का केन्द्र बन गया। निहित स्वार्थों की आपा-धापी ने भावुकता का शोषण किया और उनके दोहन का लाभ संवरण न करके भ्रान्तियों-विकृतियों के जंजाल में जकड़ दिया। मूढ़-मान्यताओं और कुरीतियों का जन्म, प्रचलन और विस्तार उसी काल में हुआ। परिणाम सामने हैं। 60 लाख धर्मजीवियों का समुदाय भिक्षा-व्यवसाय चलाता है और चित्र-विचित्र स्तर की भ्रान्तियां, विभूतियों प्रतिगामितायें बिखेरता देखा जाता है। फलतः विज्ञजनों में उनके प्रति अश्रद्धा दिन-दिन बढ़ती देखी जा सकती है।
इतने उपयोगी तंत्र की इतनी दुर्गति, अपने समय का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है। उसे भयावह दुर्घटना का नाम दिया जा सकता है। आवश्यकता अनुभव हुई कि इस धर्म तन्त्र को दल-दल से उबारा जाय और उसे पुरातन गरिमा के अनुरूप लोक कल्याण की महति भूमिका निभा सकने की स्थिति में लाया जाय। इसी संकल्प और प्रयास को युग निर्माण योजना के तत्वावधान में कार्यान्वित होते देखा जा सकता है।
धर्म क्या है? उसका वास्तविक स्वरूप जन-जन को बताने के लिए प्रज्ञा अभियान द्वारा सभी धर्म शास्त्रों को, हिन्दी अनुवाद समेत सर्वसुलभ किया है। चारों वेद, 108 उपनिषदें, छहों दर्शन, 20 स्मृतियां, 24 गीतायें, 18 पुराण आदि प्रायः सभी ग्रन्थ सर्वसाधारण के लिए उपलब्ध कराये हैं। सात-सात गांवों को कार्यक्षेत्र बनाकर काम करने वाले 2400 प्रज्ञापीठ देवालय खड़े किए गये हैं। प्रायः 10 हजार पुरोहित प्रशिक्षित करके उन्हें धार्मिक कर्मकाण्डों के माध्यम से धर्मधारणा का तात्विक स्वरूप जन-जन के मन-मन में जगाने के लिए कार्य क्षेत्र में उतारा गया है। वे संस्कार आयोजनों के माध्यम से परिवार गोष्ठियां चलाते और पर्व-त्योहार पर सामूहिक समारोह द्वारा लोक-शिक्षण का प्रयोजन पूरा करते हैं। इन आयोजनों के समय अग्निहोत्र की साक्षी में उपस्थित व्यक्तियों को एक दुर्गुण छोड़ने एवं सद्गुण अपनाने का व्रत ग्रहण करने के लिए प्रोत्साहित-सहमत किया जाता है।
व्यक्ति, परिवार और समाज में फैली हुई अनैतिकताओं, मूढ़ मान्यताओं और कुरीतियों को उखाड़ने तथा उनके स्थान पर दूरदर्शी विवेकशीलता, शालीनता, सद्भावना, सहकारिता जैसी सत्प्रवृत्तियों को—प्रचलन, स्वभाव, आचरण में उतारने के लिए विविध-विध प्रयत्न किए जाते हैं। जहां जैसी आवश्यकता समझी जाती है, वहां मनःस्थिति बदलने तथा परिस्थिति सुधारने के लिए अनेकानेक प्रयत्न किए और चलाए जाते हैं।
वानप्रस्थ परम्परा को पुनर्जीवित करने का नए सिरे से प्रयत्न किया गया है। भारतीय संस्कृति में आधा जीवन भौतिक प्रयोजनों के लिए और आधा परामर्श कृत्यों के लिए निर्धारित है। वानप्रस्थ और संन्यासी, साधु और ब्राह्मण लोक-मंगल प्रयोजनों में निरन्तर संलग्न रहते थे। इसके लिए जन-सम्पर्क साधते, विचार विमर्श करते और आदर्शों के प्रति हर व्यक्ति को आस्थावान बनाते थे। इन दिनों वानप्रस्थ-लोकसेवियों का उत्पादन बन्द हो गया है। अनुभवहीन, वेतनभोगी अवांछनीय प्रवाहों को उलटने में समर्थ नहीं हो पाते। पुरातन काल में यह कार्य पुरोहित वर्ग द्वारा सम्पन्न किया जाता था। अब 60 लाख तथाकथित साधु-बाबा धर्म की चादर ओढ़ कर मुफ्तखोरी अपनाते और भ्रान्तियां बिखेरते भर दीखते हैं। यदि यह समुदाय धर्म-धारणा को जीवन्त रखने में संलग्न रहा होता, तो देश के सात लाख गांवों में से प्रत्येक में वे साढ़े आठ के अनुपात में बंटते और ईसाई पादरियों की तरह किसी लक्ष्य में संलग्न रहकर देश की दशा सुधारते।
एड़ी-चोटी का पसीना एक कर लेने पर भी जब इस समुदाय के सुधरने बदलने का कोई ढंग बनता न दीखा, तो यही निश्चय किया गया कि वानप्रस्थ परम्परा पुनर्जीवित करके नए सिरे से अनुभवी, अपरिग्रही, भावनाशील लोकसेवी तैयार किए जायें। प्रसन्नता की बात है कि यह पुरोहित वर्ग आशातीत संख्या में उभारा और प्रशिक्षित किया गया है। उसे भाषण, संगीत, जड़ी-बूटी-उपचार, नेतृत्व के लिए आवश्यक वरिष्ठता से सम्पन्न करके कार्यक्षेत्र में उतारा गया है। हजारों परिव्राजक, वानप्रस्थ, युगपुरोहितों की आवश्यकता पूरी करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं। भविष्य में उनके इतनी बड़ी संख्या में बढ़ने की संभावना है, जिसे संसार भर में फैले हुए ईसाई पादरियों जितना गिना जा सके। इनके माध्यम से देश ही नहीं, समस्त विश्व के कोने-कोने में जन-जन के साथ प्रेरणाप्रद सम्पर्क सधने की पूरी-पूरी आशा है।
दूरदर्शी विवेकशीलता—महाप्रज्ञा—गायत्री का आलोक जन-जन तक पहुंचाने के लिए स्वास्थ्य एवम् सत्संग के दोनों ही माध्यम अपनाए गए हैं। युग समस्याओं का सामयिक समाधान प्रस्तुत करने के लिए प्रज्ञा साहित्य का सृजन करने की दिशा में भारी प्रयास हुआ है। सस्ती आकर्षक एवम् महत्वपूर्ण पुस्तकें पांच सौ से अधिक छपी हैं। अब नई योजना में 40 पैसे मूल्य की फोल्डर पुस्तिकायें विनिर्मित की जा रही हैं। यह रोज एक लिखी जाती है और हिन्दी के अतिरिक्त अनेकानेक भाषाओं में छपती प्रकाशित होती रहती है। एक वर्ष में 360, तीन वर्ष में 2000 वे प्रकाशित होने जा रही है। इनमें युगान्तरीय चेतना का हर पक्ष कूट-कूट कर भरा जा रहा है।
मिशन की कितनी ही मासिक पत्रिकायें प्रकाशित होती हैं। अखण्ड ज्योति, युग निर्माण योजना, प्रज्ञा अभियान यह तीन पत्रिकायें हिन्दी की हैं। इनके अतिरिक्त गुजराती, मराठी, उड़िया, अंग्रेजी, बंगाली में भी इसके संस्करण प्रकाशित होते हैं। अकेली अखण्ड ज्योति ही इन दिनों 1 लाख 35 हजार की संख्या में छपती है। अन्य पत्रिकाओं की सदस्य संख्या उत्साहवर्धक है। इनमें से किसी में भी विज्ञापन नहीं छपते। इन समस्त पत्रिकाओं के ग्राहक तीन लाख के लगभग और पाठक 15 लाख से ऊपर हैं। एक भी अंक ऐसा नहीं होता जिसे न्यूनतम 5 व्यक्ति न पढ़ते हों।
स्वाध्याय मण्डलों—प्रज्ञा संस्थानों की संख्या 10 हजार के लगभग जा पहुंची, उनके माध्यम से प्रज्ञा साहित्य प्रत्येक शिक्षित को घर बैठे, नियमित रूप से बिना मूल्य पढ़ाने—वापिस लेने का क्रम नियमित रूप से चलता रहता है। पुस्तकें, पत्रिकायें, फोल्डर आदि पढ़ाने में इन स्वाध्याय मंडलों की आलोक वितरण प्रक्रिया का असाधारण महत्व भी है।
दीवारों पर आदर्श वाक्य लेखन, घरों में प्रेरणाप्रद आदर्श वाक्य कलेण्डरों की तरह लटकाना एक ऐसा काम है, जिससे उत्कृष्टता का पक्षधर वातावरण बनता है और जन-मानस का अचेतन प्रगतिशीलता का अनुगमन सहज ही करने लगता है।
सस्ते स्लाइड प्रोजेक्टरों के माध्यम से प्रकाश चित्र दिखाने के साथ-साथ युग समस्याओं पर प्रकाश डालने का प्रयास निरन्तर चलता रहता है। एक हजार स्लाइड प्रोजेक्टर औसतन 100 व्यक्तियों को प्रतिदिन इस प्रकाश चित्र-प्रवचन के आधार पर प्रायः 1 लाख जन समुदाय को प्रशिक्षित करते हैं। वर्ष में यह संख्या 600 से भी अधिक जा पहुंचती है। इस योजना को ‘मिनी फिल्म योजना’ नाम दिया जाता है।
टैप रिकार्डरों के माध्यम से युग संगीत और युग सन्देश गली-गली, मुहल्ले-मुहल्ले सुनाये जाते हैं। सत्संग का यह एक आकर्षक, सस्ता एवं प्रभावी तरीका है। लोक शिक्षण की इस प्रक्रिया को ‘मिनी रेडियो’ के नाम से जाना जाता है।
जन्म दिवसोत्सव के माध्यम से हर घर में परिवार निर्माण गोष्ठी की प्रक्रिया तेजी से चली और बहुत ही लोकप्रिय हुई है। इस माध्यम से भी लाखों को हर दिन मिशन के संदेशों—प्रतिपादनों—निर्धारणों से अवगत होने का अवसर मिलता है। जीवन की गरिमा जानने—अपनी महति भूमिका से अवगत हो, क्रियाशील होने का अवसर मिलता है।
स्वाध्याय मंडलों की एक संचालक मंडली पांच सदस्यों की होती है। पांचों अपने संपर्क क्षेत्र के पांच-पांच व्यक्तियों को नियमित रूप से प्रज्ञा साहित्य पढ़ाने-वापिस लेने का उत्तरदायित्व निभाते हैं। साथ ही साहित्य मंगाने के लिए बीस-बीस पैसा प्रतिदिन का अनुदान भी निकालते हैं। इस प्रकार एक रुपया रोज का बजट पांच संचालकों की मंडली अपनी जेब से ही पूरी कर लेता है। हर स्वाध्याय मंडल में कुल मिलाकर तीस सदस्य होते हैं। अब तक बने दस हजार स्वाध्याय मंडलों द्वारा तीस लाख से ऊपर शिक्षित जनों को बिना मूल्य प्रज्ञा साहित्य पढ़ाने का उपक्रम चलता है। वे शिक्षित जन न केवल पढ़ते हैं वरन् कम से कम 5 अशिक्षितों को, उस सामग्री को पढ़कर सुनाते भी हैं। इस प्रकार स्वाध्याय मंडलों के द्वारा 3 लाख पढ़ते और 15 लाख सुनने का लाभ उठाते हैं।
स्वाध्याय मंडल अपने-अपने क्षेत्रों में युग चेतना उत्पन्न करने के लिए घर-घर, गली-मुहल्ले प्रज्ञा पुराण कथा का अवलम्बन लेते हैं। प्रज्ञा पुराण में उन प्रगतिशील कथा-गाथाओं का संकलन है, जिनमें आज की समस्याओं को सुलझाने और युग अवतरण की सम्भावनाओं को साकार कर सकने की क्षमता है। इसे व्यास कृत अष्टादश पुराणों में एक नई कड़ी जुड़ने के समान समझा जा सकता है। संस्कृत श्लोक टीका एवं उस सन्दर्भ में भारतीय कला साहित्य—आर्ष ग्रन्थों में उपलब्ध विवरणों का समावेश किया गया है। एक खण्ड छप चुका। दूसरा छपने जा रहा है। 20 वर्षों में इसके 20 खण्ड लिखे जाने एवं प्रकाशित होने की योजना है। पांच खण्डों में सृजन का कार्य हाथ के नीचे है, जिनमें बौद्ध, क्रिश्चियन, इस्लाम, यहूदी, पारसी, ताओ आदि धर्मों की ऐसी ही कथा-गाथाओं का समावेश रहेगा।
मिशन के सुधारात्मक एवं सृजनात्मक कार्यक्रम बहुमुखी हैं। उनमें शारीरिक, मानसिक, आर्थिक, सामाजिक, धार्मिक क्षेत्र की सभी समस्याओं पर प्रकाश डालने और समाधान खोजने का प्रयत्न चलता है। किन्तु थोड़े से रचनात्मक कार्य ऐसे हैं, जिन्हें प्रमुखता दी गई है और उन्हें तत्काल हाथ में लेने, कार्यान्वित करने के लिए कहा गया है। ऐसे कार्यक्रमों में कुछ सृजनात्मक हैं, कुछ सुधारात्मक।
सृजनात्मकों में प्रौढ़ शिक्षा विस्तार के लिए पुरुषों की रात्रि पाठशालाओं और महिलाओं की अपराह्न शालायें बड़ी संख्या में चलाई जा रही हैं। स्कूली समय के उपरान्त छात्रों को निर्धारित पाठ्यक्रम पक्के कराने की दृष्टि से बाल शालायें भी इन जन जागृति केन्द्र के माध्यम से चलता है, जिनमें बिना फीस ट्यूशन पढ़ाने की व्यवस्था है। साथ ही छात्रों में सुसंस्कारिता बढ़ाने की दृष्टि से उन्हें और भी बहुत कुछ कहा—समझाया जाता है। वृक्षारोपण, हरीतिमा संवर्धन, घरेलू शाक वाटिका, छतवाड़ी, छप्परवाड़ी, आंगनवाड़ी की स्थापना, तुलसी का घरों में आरोपण उत्साह पूर्वक चलाया जा रहा है। सामूहिक श्रमदान से स्वच्छता अभियान चलता है। विशेषतः मानवी मल-मूत्र को खाद के रूप में बदलने पर बहुत जोर दिया गया है। स्वास्थ्य सम्वर्धन की दृष्टि से गांव-गांव व्यायामशालायें स्थापित की जा रही हैं और खेलकूदों की नियमित व्यवस्था की जा रही है। फर्स्ट एड, धात्री कला, शिशुपोषण, स्काउटिंग, रोगी परिचर्या की क्रमबद्ध शिक्षा चलाने वाले केन्द्र भी खुलते चले जा रहे हैं। सहकारी गृह उद्योगों के लिए विशेष रूप से उत्साह उभारा जा रहा है।
जिन दुष्प्रवृत्तियों के उन्मूलन का काम हाथ में लिया गया है, उनमें शादियों में होने वाले अपव्यय एवं दान-दहेज के विरोध को प्राथमिकता दी जा रही है। जाति-पांति के आधार पर ऊंच-नीच की मान्यता, पर्दा प्रथा, मृतक भोज, फैशन, जेवर, नशेबाजी, व्यवसाय जैसी कुरीतियों को उखाड़ने के लिए आक्रोश भरा वातावरण उत्पन्न किया जा रहा है। उन्हें छोड़ने की प्रतिज्ञायें कराई जाती हैं तथा इनके लिए आग्रह करने वालों के विरुद्ध असहयोग, विरोध, संघर्ष खड़ा करने के लिए उत्साह उभारा जा रहा है।
उपरोक्त सृजनात्मक और सुधारात्मक प्रक्रिया इन दिनों द्रुतगति से अग्रगामी बन रही है। थोड़ी भी जड़ें और मजबूत होने पर ऐसे अन्य कार्य बड़े पैमाने पर हाथ में लिए जायेंगे जिनमें लोक-मानस के परिशोधन-परिष्कार एवं सत्प्रवृत्ति-सम्वर्धन में सहायता मिलती है। देश की हर भाषा में प्रज्ञा-साहित्य छापने तथा फिल्में बनाने की बड़ी योजनायें उस समय के लिए सुरक्षित रखी गई, जबकि उपयुक्त साधन जमा हो सके।
बसंत पर्व 1984 से वीडियो योजना के माध्यम से जन-जन तक युग चेतना का संदेश पहुंचाने का काम सम्पन्न किया जा रहा है। इससे न केवल प्रज्ञा परिजनों में एक दूसरे के कार्यों से प्रेरणा मिली है, अपितु विश्व व्यापी प्रज्ञाअभियान के क्रियाकलापों से एक विस्तृत जन समुदाय को अवगत कराने-प्रज्ञा आलोक फैलाने में मदद मिली हैं।