कहानियाँ प्रज्ञा पुराण से
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बुद्ध और विनायक
भिक्षु विनायक को वाचलता की लत पड़ गई थी। जोर- जोर से चिल्लाकर जनपथ पर लोगों को जमा कर लेता और धर्म की लम्बी- चौड़ी बातें करता।
तथागत के समाचार मिला तो उन्होंने विनायक को बुलाया और स्नेह भरे शब्दों में पूछा- 'भिक्षु यदि कोई ग्बाला सड़क पर निकलने वाली गायें गिनता रहे तो क्या उनका मालिक बन जायेगा?, विनायक ने सहज भाव से कहा- ' नहीं भन्ते! ऐसा कैसे हो सकता है। गौओं के स्वामी ग्वाले को तो उनकी सम्भाल और सेवा में लगा रहना पड़ता है। ' तथागत गम्भीर हो गये। उनने कहा- 'तो तात! धर्म को जिह्वा से नहीं जीवन से व्यक्त करो और जनता की सेवा साधना में संलग्न रहकर उसे प्रेमी बनाओ। ' इस तरह सत्कर्म को पाठ तक नहीं, कर्तव्य में भी उतार लिया जाय, तो जीवन में सच्चे अर्थो में समग्रता आ...
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जीवन एक बीज फला, दूसरा गला
दो बीज धरती की गोद में जा पड़े। मिट्टी ने उन्हें ढक दिया। दोनों रात सुख की नींद सोये। प्रात:काल दोनों जगे तो एक के अंकुर फूट गये और वह ऊपर उठने लगा। यह देख छोटा बीज बोला- भैया ऊपर मत जाना। वहाँ बहुत भय है। लोग तुझे रौद्र डालेंगे, मार डालेंगे। बीज सब सुनता रहा और चुपचाप ऊपर उठता रहा। धीरे- धीरे धरती की परत पारकर ऊपर निकल आया और बाहर का सौन्दर्य देखकर मुस्कराने लगा। सूर्य देवता ने धूप स्नान कराया और पवन देव ने पंखा डुलाया, वर्षा आई और शीतल जल पिला गई, किसान आया और चक्कर लगाकर चला गया। बीज बढ़ता ही गया। झूमता, लहलहाता, और फलता हुआ बीज एक दिन परिपक्व अवस्था तक जा पहुँचा। जब वह इस संसार से विदा हुआ तो अपने जैसे बीज छोड़कर हँसता और आत्म- सन्तोष अनुभव करता विदा हो गया।
मिट्टी के अन्दर ...
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साहस अपनाया- कृतकृत्य बने
भगतसिंह और सुभाष जैसा यश मिलने की सम्भावना हो तो उस मार्ग पर चलने के लिए हजारों आतुर देखे जाते हैं। समझाया जाय तो कितने ही बिना उतराई लिए पार उतारने की प्रक्रिया पूरी कर सकते हैं। पटेल बनने के लिए कोई भी अपनी वकालत छोड़ सकता है। पर दुर्भाग्य इतना ही रहता है कि समय को पहचानना और उपयुक्त अवसर पर साहस जुटाना सभी लोगों से बन ही नहीं पड़ता। वे जागरूक ही है जो महत्वपूर्ण निर्णय करते, साहसिकता अपनाते और अविस्मरणीय महामानवों की पदवी प्राप्त करते हैं। ऐसे सौभाग्यों में श्रेयार्थी का विवेक ही प्रमुख होता है।
महान् बनने के लिए जहाँ आत्म- साधना और आत्म- विकास की तपश्चर्या को आवश्यक बताया गया है वहाँ इस ओर भी संकेत किया गया है कि उसकी प्रखरता से सम्पर्क साधने और लाभान्वित होने का अवसर भी न ...
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अच्छे आदमी अच्छे रसायनज्ञ
नागार्जुन सुप्रसिद्ध रसायनज्ञ थे, पर वे सम्पर्क में आने वालों को धर्मोपदेश ही दिया करते थे। इस पर एक व्यक्ति ने कहा- आप रसायन शास्त्र पढ़ाया करें तो आपका नाम भी बढेगा, आपकी विद्या का भी विस्तार होगा। '
नागार्जुन बोले- 'रसायनज्ञ तो कभी भी बना जा सकता है। बात तो तब है जब अच्छे आदमी बनें। जिन्हें धार्मिक उत्तरदायित्व वहन करने पड़ते हैं, उन्हें तो इस तथ्य को अनिवार्य ही मानना चाहिए। '
'जो जागृत है, उन्हें स्वयं भी इस युग चेतना में भाग लेने के लिए उठना चाहिए। ऐसे अवसर इतिहास में बार- बार नहीं आते। '
प्रज्ञा पुराण भाग १
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नारद मोह
एक बार नारद को काम वासना पर विजय पाने का अहंकार हो गया था। उन्होंने भगवान् विष्णु के समक्ष भी अभिमान सहित प्रकट कर दिया। भगवान् ने सोचा कि भक्त के मन में मोह- अहंकार नहीं रहने देना चाहिए। उन्होंने अपनी माया का प्रपंच रचा। सौ योजन वाले अति सुरम्य नगर में शीलनिधि नामक राजा राज्य करता था। उसकी पुत्री परम सुन्दरी विश्व मोहिनी का स्वयम्बर हो रहा था। उसे देखकर नारद के मन में मोह वासना जागृत हो गयी। वे सोचने लगे कि नृपकन्या किसी विधि उनका वरण कर ले। भगवान को अपना हितैषी जानकर नारद ने प्रार्थना की। भगवान प्रकट हो गए और उनके हित साधन का आश्वासन देकर चले गए।
मोहवश नारद भगवान की गढ़ बात को समझ नहीं सके। वे आतुरतापूर्वक स्वयंवर भूमि में पहुँचे। नृप बाला ने नारद का बन्दर का सा मुँह देखकर उ...
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जो है वही क्या कम है
एक मनुष्य किसी महात्मा के पास पहुँचा व कहने लगा- 'जीवन अल्पकाल कौ है। इस थोडे़ से समय में क्या- क्या करें? बाल्यकाल में ज्ञान नहीं रहता। बुढ़ापा उससे भी बुरा होता है। रात- दिन नींद नहीं लगती है। रोगों का उपद्रव अलग बना रहता है। युवावस्था में कुटुम्ब का भरण- पोषण किये बिना नहीं चलता। तब भला ज्ञान कैसे मिले? लोक- सेवा कब की जाय? इस जिन्दगी में तो कभी समय मिलता दीखता ही नहीं। ' ऐसा कह और खिन्न होकर वह रोने लगा।
उसे रोते देखकर महात्मा भी रोने लगे। उस आदमी ने पूछा- आप क्यों रोते हैं?' महात्मा ने कहा- 'क्या करूँ बच्चा! खाने के लिए अन्न चाहिए। लेकिन अन्न उपजाने के लिए मेरे पास जमीन नहीं है। मैं भूख से मर रहा हूँ। परमात्मा के एक अंश में माया है। माया के एक अंश में तीन ...
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चार बार भागवत सुनी
वीतराग शुकदेव जी के मुँह से राजा परीक्षित ने भागवत पुराण की कथा सुनकर मुक्ति प्राप्त की थी। यह बात एक धनवान व्यक्ति ने सुनी तो उसके मन में भागवत पर बड़ी श्रद्धा हुई और वह भी मुक्ति के लिए किसी ब्राह्मण से कथा सुनने के लिए आतुर हो उठा।
खोज की तो भागवत के एक बहुत बड़े विख्यात पण्डितजी मिले। कथा- आयोजन का प्रस्ताव किया तो पण्डितजी बोले- यह कलियुग है। इसमें धर्मकृत्यों का पुण्य चार गुना कम हो जाता है, इसलिए चार बार कथा सुननी पड़ेगी। चार बार कथा- आयोजन की सलाह देने का कारण था पर्याप्त दान- दक्षिणा। पण्डित जी को फीस देकर धनी व्यक्ति ने चार- भागवत सप्ताह सुने परन्तु लाभ कुछ नहीं हुआ। धनी उच्चकोटि के सन्त से मिला। भागवत सुनने का लाभ परीक्षित कैसे ले सके और मुझे क्यों नहीं मिला? उन्होंने...
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मानव देवों से श्रेष्ठ या पशुओं से हीन?
एक सभा में वाद- विवाद चल रहा था। एक पक्ष ने कहा- 'मनुष्य सर्वश्रेष्ठ प्राणी है क्योंकि वह सभी जीवधारियों को वश में कर लेता है। ' दूसरा पक्ष कहता था' अन्य प्राणी श्रेष्ठ हैं, क्योकि वे जिन्दगी भर बिना कुछ माँगे मनुष्य की सेवा करते हैं। ' निर्णय नहीं हो पा रहा था। विवाद बढ़ता ही गया। एक ज्ञानी उधर से जा रहे थे। सबने उनकी सम्मति माँगी। ज्ञानी ने दोनों पक्षों की बात सुनी और बोले- भाई, मानवी स्वतन्त्रता की भी अपनी सीमा है। हर कोई जीवन जीने का मर्म नहीं जानता। मनुष्य जब तक सत्कर्म करता है तब तक ही श्रेष्ठ है और जब वह दुष्कर्म करने लगता है तो वह नीचे गिर जाता है। जब भी ऐसे चयन के अवसर आये- हैं, मानवी बुद्धिमत्ता की पूरी परीक्षा हुई।
प्रज्ञा पुराण भाग १
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कर सकते थे, किया नहीं
रावण तथा विभीषण एक ही कुल में उत्पन्न हुए सगे भाई थे, दोनों विद्वान- पराक्रमी थे। एक ने अपनी दिशा अलग चुनी व दूसरे ने प्रवाह के विपरीत चलकर अनीति से टकराने का साहस किया। धारा को मोड़ सकने तक की क्षमता भगवान ने मनुष्य को दी ही इसलिए है ताकि वह उसका सहयोगी बन सके।
भगवान ने मनुष्य को इच्छानुसार वरदान माँगने का अधिकार भी दिया है। रावण शिव का भक्त था। उसने अपने इष्ट से वरदान सामर्थ्यवान होने का माँगा पर साथ ही यह भी कि मरूँ तो मनुष्य के हाथों। उसकी अनीति को मिटाने, उसका संहार करने के लिए स्वयं भगवान को राम के रूप में जन्म लेना पड़ा। राम शिव के इष्ट थे। यदि असाधारण अधिकार प्राप्त रावण प्रकाण्ड विद्वान् होते हुए भी अपने इष्ट भगवान शिव से सत्परामर्श लेना नहीं चाहता तो अन्त तो उसका सुनि...
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कृष्ण के वरण की छूट
भगवान श्रीकृष्ण के पास दुर्योधन व अर्जुन दोनों पहुँचे। महाभारत युद्ध पूर्व कौरव व पाण्डव दोनों ही कृष्ण को अपने पक्ष में करना चाहते थे। दुर्योधन पहले पहुँचे व अहंकारवश सो रहे श्रीकृष्ण के सिरहाने बैठ गये। बाद में अर्जुन आये व अपनी अहज श्रद्धा- भावना वश पैरों के पास बैठ गये। श्रीकृष्ण जागे। अर्जुन पर उनकी दृष्टि पडी। कुशल क्षेम पूछकर अभिप्राय पूछने ही जा रहे थे कि दुर्योधन बोल उठा- "पहले मैं आया हूँ, मेरी बात सुनी जाय। " श्रीकृष्ण असमंजस में पडे़। बोले- 'अर्जुन छोटे हैं इसलिए प्राथमिकता तो उन्हीं को मिलेगी, पर माँग तुम्हारी भी पूरी करुँगा। एक तरफ मैं हूँ, दूसरी तरफ मेरी विशाल चतुरंगिणी सेना। बोलो अर्जुन? तुम दोनों में से क्या लोगे?' चयन की स्वतन्त्रता ...