अपनी यथार्थता जानें
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मानव जीवन एक प्रकार से देवत्व प्राप्ति का अवसर है। इस अवसर का सदुपयोग कर मानव से महामानव, नर से नारायण, पुरुष से पुरुषोत्तम तक बना जा सकता है। मानव शरीर की संरचना भगवान्ï की श्रेष्ठïतमï कृति है। इस सृष्टिï में मनुष्य से बढक़र अन्य कोई प्राणी उसने इतना अद्ïभुत एवं प्रतिभावान्ï नहीं बनाया। इस मानव जीवन में ही शिक्षा, कला, विज्ञान, आवास के सुंदर-सुंदर भवन, जल, थल एवं नभ में विचरण का अवसर प्राप्त हुआ है। नाना प्रकार के रंग-बिरंगे सपनों को साकार करने का अवसर इसी जीवन में उपलब्ध है। यह सुविधा तो देवयोनि में भी संभव नहीं है।
पूर्णता की प्राप्ति की दिशा में अग्रसर होते हुए अनुकरणीय आदर्श एवं पवित्रतम दैवी जीवन यापन किया जाय तथा अपनी उपार्जित शक्ति-सम्पदा का न्यूनतम अपने लिए तथा अधिकतम दूसरों के लिए खर्च किया जाय, इसी को मानव जीवन का श्रेष्ठïतम उपयोग माना गया है। राजा का बड़ा पुत्र राज्य का उत्तराधिकारी बनाया जाता है, किन्तु उसका कत्र्तव्य है कि वह अपने अन्य छोटे भाई-बहिनों की देखरेख व सुरक्षा का समुचित प्रबंध करे। परम पिता का सर्वश्रेष्ठï युवराज होने के नाते मनुष्य का भी उत्तरदायित्व यही है कि अपने से अविकसित, पिछड़े प्राणियों को, जो हमारे छोटे भाई-बहिन के समान हैं, उनको विकसित करने, आगे बढ़ाने में उदारतापूर्वक सहयोग करे। उनको सुरक्षा एवं संरक्षण प्रदान करे।
शरीर और मन जीवन रूपी रथ के दो पहियों के समान हैं। इन दोनों का अपना स्वतंत्र कोई अस्तित्व नहीं है। यह अंत:करण की आस्था एवं आकांक्षा के अनुरूप दोनों स्वामिभक्त सेवक के समान सदैव उसकी आज्ञा का पालन मात्र करते रहते हैं। शरीर द्वारा क्रिया मन द्वारा विचारणा उसी ओर घूमती एवं चलती है, जिधर अंतरात्मा की भावना प्रेरित करती है। भावनाएँ ही श्रद्धा, आस्था, निष्ठïा एवं मान्यता आदि नामों से जानी जाती हैं। इन्हीं सबके समन्वय से आकांक्षाएँ उभरती हैं और फिर उन्हीं के अनुरूप मन अपना तर्क, वितर्क, चिंतन एवं क्रिया प्रणाली निर्धारित करता है। तदुपरान्त गुलाम की तरह शारीरिक हलचलें क्रिया रूप में परिवर्तित हो जाती हैं। ऐसे में शरीर और मन दोनों को निर्दोष ही माना जाएगा। भला या बुरा, उत्थान या पतन जिस भी मार्ग में बढ़ जाता है, उसका सारा दारोमदार अंत:करण पर ही जाता है।
आत्मज्ञान, आत्म बोध का अभिप्राय अंतराल के गहन स्तर में यह अनुभूति एवं विश्वास उत्पन्न करते रहना कि हम सत्ï, चित्ï, आनंद स्वरूप परमात्मा के ही अभिन्न अंग हैं। हमें यह भावना भी उत्पन्न करनी चाहिए कि संकीर्ण स्वार्थपरता त्याज्य है। व्यक्तिवादी आपाधापी अंततोगत्वा पतन के ही मार्ग में धकेलती है। अस्तु व्यक्ति से उठकर समष्टिï पर ध्यान दिया जाना चाहिए। भगवान्ï बुद्ध को जब आत्मबोध प्राप्त हुआ था, तब वे संकीर्ण स्वार्थ युक्त राजपाट को त्यागकर समष्टिïगत हित साधना में लग गए थे। स्वयं ही नहीं अपने अबोध बालक एवं पत्नी को भी लोकहित के लिए प्रेरित-प्रोत्साहित किया था। इससे स्पष्टï हो जाता है कि आत्मज्ञान प्राप्त व्यक्ति की क्रिया पद्धति में आदर्शवादिता ही आदर्शवादिता उभरती, उछलती रहती है। ऐसे लोग स्वयं तो कृतकृत्य होते ही हैं, समाज के लाखों-करोड़ों सामान्यजनों के लिए मार्गदर्शन का भी कार्य कर जाते हैं।
पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
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