व्यक्तित्व को सुसंस्कृत बनायें
मनुष्य एक अबोध शिशु के रूप में इस पृथ्वी पर जन्म लेता है। तब न उसमें भला-बुरा सोचने की क्षमता होती है और न किसी तथ्य को समझाने, परिस्थितियों से लाभ उठाने या अपने गुण, कर्म, स्वभाव को परिष्कृत करने की शक्ति। मनुष्य की जीवन यात्रा किसी पाठशाला में भर्ती कराए गए छोटे से बालक की तरह आरम्भ होती है। उस समय उसे जो कुछ सिखा व समझा दिया जाय तदनुरूप वह आगे बढ़ता रहता है। उस समय व्यक्तित्व की आधार शिला रखने का उत्तरदायित्त्व अभिभावकों का है। परन्तु जब कुछ सोचने समझने लायक स्थिति हो जाती है और व्यक्ति अपना भला-बुरा देखने लगता है तब अपना व्यक्तित्व इस प्रकार गढऩा आरम्भ कर देना चाहिए जिससे कि जीवन समर में सफलता प्राप्त की जा सके। व्यक्ति का निजी जीवन सुसंस्कृृत बनाना जीवन साधना का एक अंग है तथा समाज के प्रति अपने उत्तरदायित्वों को सुघड़ता पूर्वक पूरा करना, समाज से अपने व्यवहार सम्बन्धों का स्तर स्थापित करना दूसरा अंग है। इन्हीं का नाम संस्कृति और सभ्यता है।
व्यक्ति और समाज कोई भिन्न सत्ताएँ नहीं हैं। एक इकाई है, तो दूसरा समुच्चय। व्यक्ति इकाई है और समाज व्यक्तियों का समूह। इसलिए समाज की स्थिति व्यक्तियों के स्तर पर निर्भर करती है। फिर भी व्यक्ति को स्वयं के प्रति और समाज के प्रति दूरदर्शिता के दृष्टिकोण से सोचना तथा जीवन साधना का स्वरूप निर्धारित करना पड़ेगा। व्यक्ति स्वयं के प्रति कितना सजग, सद्गुणी, संस्कारवान तथा चरित्रनिष्ठ है यह जीवन साधना की पहली सीढ़ी या एक पक्ष है, जिसे संस्कृति कहा जा सकता है। जीवन साधना का दूसरा पक्ष समाज के प्रति व्यक्ति की रीति-नीति से सम्बद्ध है, जिसमें सद्व्यवहार, शिष्टाचार, सामाजिकता, सहकार आदि प्रवृत्तियाँ आती हैं।
व्यक्ति को सुसंस्कृत बनाने के लिए अपने गुण, कर्म और स्वभाव के परिष्कार की प्रक्रिया पद्धति अपनानी चाहिए। मनुष्य के प्रारंभ के कुछ वर्ष ही वह अपने अभिभावकों पर निर्भर रहता है। विचार क्षमता और विवेक चेतना जागृत होते ही उसे अपने व्यक्तित्व निर्माण में लगना चाहिए, क्योंकि सुसंस्कृत व्यक्तित्व से ही परिस्थितियों का लाभ उठाया तथा जीवन को ऊँचा बनाया जा सकता है। असंस्कृत और फूहड़ व्यक्तित्व अनुकूल परिस्थितियों का लाभ नहीं उठा पाते जबकि सुसंस्कृत व्यक्तित्व से प्रतिकूलाताओं को भी सहायक बनाया जा सकता है और राह के पत्थर को भी सीढ़ी बनाकर ऊँचा उठाया जा सकता है।
व्यक्तित्व का गठन गुण, कर्म और स्वभाव से मिलकर बनता है। लम्बे समय तक अभ्यास में आते रहने पर गुण ही स्वभाव बन जाते हैं और स्वभाव में आई विशेषताएँ ही गुण कहलाती हैं। उदाहरण के लिए कोई व्यक्ति ईमानदारी के गुण का अभ्यास शुरू करता है। विगत जीवन में अनीति उपार्जन करने के बाद भी ईमानदारी का महत्त्व समझ मेें आ जाय और उसे जीवन नीति बनाने की आकांक्षा उत्पन्न हो, तो प्रारम्भ में उसका अभ्यास गुण की भाँति ही करना पड़ता है। प्रलोभन के अवसर प्रस्तुत होने पर भी दृढ़ रहा जाय तथा लम्बे समय तक ईमानदारी को जीवनक्रम में शामिल रखा जाय तो एक स्थिति ऐसी आती है जब यह गुण अपने स्वभाव में सम्मिलित हो जाता है।
स्वभाव में सम्मिलित होने के बाद उस अभ्यास को तोडऩा मुश्किल हो जाता है। गुणों के अभ्यास द्वारा स्वभाव का परिष्कार करने के साथ अपने व्यक्तित्व को सुगठित करने के लिए इच्छाओंं, भावनाओं और क्रियाओं को परिष्कृत करना आवश्यक है। मनुष्य को अपने व्यक्तित्व के विभिन्न पहलू सजाने-सँवारने और परिष्कृत करने चाहिए। मनुष्य को अपने कर्म, विचार और भावनाओं की गतिविधियों, क्रियाओं, विचारणाओं एवं आकांक्षाओं का परिष्कार सतत करते रहना ही चाहिए, ताकि सुसंस्कृत व्यक्तित्व का निर्माण किया जा सके।
पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
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