धर्म धारणा की व्यवहारिकता
शान्ति के साधारण समय में सैनिकों के अस्त्र-शस्त्र मालखाने में जमा रहते हैं; पर जब युद्ध सिर पर आ जाता है, तो उन्हें निकाल कर दुरुस्त एवं प्रयुक्त किया जाता है। तलवारों पर नये सिरे से धार धरी जाती है। घर के जेवर आमतौर से तिजोरी में रख दिये जाते हैं; पर जब उत्सव जैसे समय आता है, उन्हें निकालकर इस प्रकार चमका दिया जाता है, मानो नये बनकर आये हों। वर्तमान युगसंधि काल में अस्त्रों-आभूषणों की तरह प्रतिभाशालियों को प्रयुक्त किया जायेगा। व्यक्तियों को प्रखर प्रतिभा सम्पन्न करने के लिए यह आपत्तिकाल जैसा समय है। इस समय उनकी टूट-फूट को तत्परतापूर्वक सुधारा और सही किया जाना चाहिए।
अपनी निज की समर्थता, दक्षता, प्रामाणिकता और प्रभाव-प्रखरता एक मात्र इसी आधार पर निखरती है कि चिंतन, चरित्र और व्यवहार में उत्कृष्टता का अधिकाधिक समावेश हो। अनगढ़, अस्त-व्यस्त लोग गई-गुजरी जिन्दगी जीते हैं। दूसरों की सहायता कर सकना तो दूर, अपना गुजारा तक जिस-तिस के सामने गिड़गिड़ाते, हाथ पसारते या उठाईगिरी करके बड़ी कठिनाई से ही कर पाते हैं; पर जिनकी प्रतिभा प्रखर है, उनकी विशिष्टताएँ मणि-मुक्तकों की तरह झिलमिलाती हैं, दूसरों को आकर्षित- प्रभावित भी करती हैं और सहारा देने में भी समर्थ होती हैं। सहयोग और सम्मान भी ऐसों के ही आगे-पीछे चलता है। बीमारियों, कठिनाइयों और तूफानों से वे ही बच पाते हैं, जिनकी जीवनी शक्ति सुदृढ़ होती है।
समर्थता को ओजस्, मनस्विता को तेजस्ï और जीवट को वर्चस्ï कहते हैं। यही हैं वे दिव्य सम्पदाएँ, जिनके बदले इस संसार के हाट-बाजार से कुछ भी मनचाहा खरीदा जा सकता है। दूसरों की सहायता भी वे लोग ही कर पाते हैं, जिनके पास अपना वैभव और पराक्रम हो। अगले दिनों ऐसे ही लोगों की पग-पग पर जरूरत पड़ेगी, जिनकी प्रतिभा सामान्य जनों की तुलना में कहीं अधिक बढ़ी-चढ़ी हो, संसार के वातावरण का सुधार वे ही कर सकेंगे, जिन्होंने अपने आपको सुधार कर यह सिद्ध कर दिया हो कि उनकी सृजन-क्षमता असंदिग्ध है। परिस्थितियों की विपन्नता को देखते हुए उन्हें सुधारे जाने की नितांत आवश्यकता है; पर इस अति कठिन कार्य को कर वे ही सकेंगे, जिन्होंने अपने व्यक्तित्व को परिष्कृत करके यह सिद्ध कर दिया हो कि वे आड़े समय में कुछ महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकने में सफल हो सकते हैं। इस स्तर को उपलब्ध कर सकने की कसौटी एक ही है-अपने व्यक्तित्व को दुर्गुणों से मुक्त करके, सर्वतोमुखी समर्थता से सम्पन्न कर लिया हो। सद्गुणों की सम्पदा प्रचुर परिणाम में अर्जित कर ली हो।
दूसरों को कैसा बनाया जाना चाहिए। इसके लिए मण्डल विनिर्मित करना होगा। उपकरण ढालने के लिए तदनुरूप साँचा बनाये बिना काम नहीं चलता। लोग कैसे बनें? कैसे बदलें? इस प्रयोग को सर्वप्रथम अपने ऊपर ही किया जाना चाहिए और बताया जाना चाहिए कि कार्य उतना कठिन नहीं है, जिनका कि समझा जाता है। हाथ-पैरों की हरकतें इच्छानुसार मोड़ी-बदली जा सकती हैं, तो कोई कारण नहीं है कि अपनी निज की प्रखरता को सदगुणों से सुसज्जित करके चमकाया-दमकाया न जा सके।
पिछले दिनों किसी प्रकार आलस्य, प्रमाद, उपेक्षा और अनगढ़ता की स्थिति भी सहन की जाती थी; पर बदलते युग के अनुरूप अब तो हर किसी को अपने को नये युग का नया मनुष्य बनाने की होड़ लगानी पड़ेगी, ताकि उस बदलाव का प्रमाण प्रस्तुत करते हुए, समूचे समाज को, सुविस्तृत वातावरण को बदले जाने के लिए प्रोत्साहित ही नहीं विवश और बाधित भी किया जा सके।
काया-कलेवर जिसका जैसा ढल चुका है, वह प्राय: उसी आकार-प्रकार का रहेगा; पर गुण, कर्म, स्वभाव में अभीष्टï उत्कृष्टता का समावेश करते हुए ऐसा कुछ चमत्कार उत्पन्न किया जा सकता है, जिसके कारण इसी काया में देवत्व के दर्शन हो सकें। किसी अंधे के हाथ बटेर लग पाती हैं; किन्तु एक देवता ऐसा भी है, जिसकी समुचित साधना करने पर सत्परिणाम हाथों-हाथ नकद धर्म की तरह उपलब्ध होते देखे जा सकते हैं। वह देवता है- जीवन। इसका सुधरा हुआ स्वरूप ही कल्पवृक्ष है।
पं. श्रीराम शर्मा आचार्य
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