कर्मफल व्यवस्था का एक सुनिश्चित स्वचालित तंत्र (भाग 1)
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हमारे कर्म ही समयानुसार भले बुरे परिणामों के रूप में सामने आते रहते हैं। सृष्टा ने ऐसी स्वसंचालित प्रक्रिया बनाई है कि अपने कृत्यों का परिणाम स्वयं भुगत लेने का चक्र सुव्यवस्थित रूप से चलता रहता है। यह उचित ही हुआ। अन्यथा हर व्यक्ति के द्वारा चौबीस घण्टे में जो भले बुरे कृत्य होते रहते हैं वे जन्म भर में इतने अधिक इकट्ठे हो जाते हैं कि इन फाइलों को पढ़ना और दण्ड पुरस्कार की व्यवस्था करना एक न्यायाधीश के लिए सम्भव न होता। इतने मनुष्य के लिए इतने न्यायाधीश नियुक्त करने में भगवान की कितनी परेशानी पड़ती।
झंझट से बचने और व्यवस्था को सुचारु रखने के लिए भगवान ने मनुष्य के भीतर ऐसा स्वसंचालित तन्त्र फिट कर दिया है जो कर्मों का लेखा जोखा रखता और उसके दण्ड पुरस्कार की व्यवस्था करता है। यह है मनुष्य का अचेतन मन जिसे धर्म ग्रंथों की भाषा में चित्र गुप्त भी कहा गया है। पौराणिक गाथाओं के अनुसार प्रत्येक मनुष्य के कर्मफल का बहीखाता उन्हीं के पास है और प्रतिफल का निपटारा यथावत् वे ही करते रहते हैं। फोटोग्राफी के फिल्म की तरह वे दृश्यों का अंकन करते रहते हैं। टेप रिकार्डर की तरह उनकी मशीन पर जो घटित होता रहता है उसका अंकन चलता रहता है और समय आने पर उसकी प्रतिक्रिया यथा समय सामने आ खड़ी होती है।
शास्त्रों ने अनेक स्थानों पर इस बात का उल्लेख किया है कि मनुष्य अपने कर्मों को स्वयं ही भोगता रहता है। साधारणतया यही देखने में भी आता है। सत्कर्म करने वाले ऊँचे उठते, प्रतिष्ठा पाते और सुखी रहते हैं। कुकर्मी उनकी बुरी परिणति भुगतते रहते हैं। इसमें कई बार देर लग जाती है और मनुष्य अधीर होकर कर्मफल पर अविश्वास व्यक्त करने लगता है और निर्भय होकर उच्छृंखलता पर उतारू हो जाता है।
सत्कर्म करने वाले जैसे सत्परिणामों की आशा करते थे वैसा न मिलने पर वे भी निराश होते और अविश्वासी बनते देखे गये हैं। इसे सृष्टि व्यवस्था का एक रहस्य कह सकते हैं। कर्मों का परिणाम यथावत् होने की बात निश्चित होते हुए भी उसमें विलम्ब लग जाता है। इस विलम्ब का समाधान बनाने के लिए इतने शास्त्रों की रचना हुई है। धर्मों उपदेशकों को समय-समय पर इसके लिए भारी श्रम करते रहना पड़ा है। मनुष्य की विवेक बुद्धि एवं श्रद्धा निष्ठा की परीक्षा इसी पर होती रही है। अन्यथा यदि हाथों हाथ कर्मफल मिला होता तो समझने समझाने की इतनी जरूरत न पड़ती।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति जनवरी 1985 पृष्ठ 32
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