उपासना में आत्मशोधन की अनिवार्यता
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उपासना का अर्थ है- पास बैठना। भगवान को अपने पास बिठाना या स्वयं भगवान के पास बैठना। दोनों ही स्थितियों में इसकी पात्रता आवश्यक है। राजा को अपने घर बुलाकर उसे देर तक पास बिठाये रहना या स्वयं राज महल में जाकर उनके समीप रहना एवं देर तक वार्तालाप करना, यह हर किसी के लिए सम्भव नहीं। इसके लिए पात्रता चाहिए। दीन-हीन, मलीन या रोग ग्रसित व्यक्तियों को यह सुविधा नहीं मिल सकती। उसके लिए पूर्व तैयारी करनी पड़ती है। श्रीमद् भागवत् में भगवान की समीपता प्राप्त करने के लिए चार तैयारियाँ करने की बात लिखी हैं।
(1) सात्विक सीमित आहार। जिससे पेट तनकर भारा रखने के कारण आलस्य प्रमाद न सताये। दूसरे अन्न के अनुरूप मन बने और भगवान में रुचिपूर्वक लग सके। अभक्ष्य, अनीति उपार्जित धान्य खाने से मन उद्विग्न एवं चंचल बनता है और भगवत् प्रसंग से हटकर बार बार दूर भागता है।
(2) वाक् संयम। कटु वचन, मिथ्या भाषण, असत्य मखौल जैसे भ्रष्ट वचन न बोलकर वाणी को इस योग्य बना लेना जिससे किया हुआ नाम स्मरण सार्थक हो सके।
(3) इन्द्रिय निग्रह- चटोरापन, कामुकता, मनोरंजक दृश्य देखने की चंचलता, संगीत आदि आकर्षणों की ओर दौड़ पड़ना जैसे चित्त को चंचल बनाने वाले उपक्रमों से दूर रहना। उन आकर्षणों के लिए उमंगें उठती हों तो उन्हें रोकना।
(4) स्वाध्याय और सत्संग का सुयोग बनाते रहना जिससे भगवद् भक्ति में श्रद्धा विश्वास बढ़े। जमे हुए संचित कुसंस्कारों के उन्मूलन का क्रम चलता रहे। उनके आधार पर ही लोभ मोह का दुष्परिणाम विदित होते हैं। उच्चस्तरीय चिन्तन मनन से ही मन की भ्रष्टता का निराकरण होता है।
माता पिता के निकट जाना या उनकी गोदी में बैठना किसी बच्चे के लिए कठिन नहीं होना चाहिए। यह सरल है और स्वाभाविक भी। भगवान के साथ मनुष्य का घनिष्टतम सम्बन्ध है। आत्मा परमात्मा से ही उत्पन्न हुई है। उसके साथ सम्बन्ध बनाये रहने से कोई मनुहार करने या अनुदान देने की आवश्यकता नहीं है। अनुनय विनय तो परायों से करनी पड़ती है। भेंट पूजा तो उनकी जेब में डालनी पड़ती है जिनसे कोई अनुचित प्रयोजन सिद्ध करना है।
बालक की जितनी उत्कण्ठा अभिभावकों की गोदी में चढ़ने की होती है उसकी तुलना में माता-पिता भी कम उत्सुक आतुर नहीं होते। पर इस प्रयोजन की पूर्ति में एक ही व्यवधान अड़ जाता है- बालक का शरीर गन्दगी से सना होना। मल मूत्र से बच्चे ने अपना शरीर गन्दा कर लिया हो और गोदी में चढ़ने का आग्रह कर रहा हो तो माता मन को कठोर करके उसे रोकती है, पहले स्नान कराती, पोछती और सुखाती है। उसके उपरान्त ही छाती से लगाकर दुलार करती और दूध पिलाती है। उसे अपना शरीर गन्दा और दुर्गन्धित होने का भय जो रहता है। विलम्ब का व्यवधान उसी कारण अड़ता है। यह विलम्ब बच्चे के हित में भी है और माता के हित में भी।
भगवद् भक्त कहलाने के लिए साधक को इस योग्य बनाना पड़ता है जिससे पास बिठाने वाले की भी निन्दा न हो। जिन अधम और अनाचारियों को भगवत् अनुग्रह प्राप्त हुआ है उन सभी को अपने दुर्गुणों का परिशोधन करना पड़ता है। इसके बिना अब तक किसी को भी उपासना का आनन्द नहीं मिला। परिशोधन भक्त की अनिवार्य कसौटी है। उसका श्रेय चाहे भक्त स्वयं ले ले या भगवान को दे दे। पर है इस प्रक्रिया की हर हालत में अनिवार्यता। मनुष्य एक ओर तो अनाचाररत रहे और दूसरी और उथले कर्मकाण्डों के बल पर ईश्वरीय अनुकम्पा का आनन्द लेना चाहे तो उसे अब तक की परम्परा और शास्त्र मर्यादा के सर्वथा प्रतिकूल ही समझना चाहिए। श्रीमद् भागवत् में इसी तथ्य को उपासना प्रेमियों के सम्मुख उद्घाटित किया है।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति अगस्त 1985 पृष्ठ 26
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