निरीक्षण और नियंत्रण आदतों का भी करें
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क्रियाशीलता का अपना महत्व है। श्रम और पुरुषार्थ की महिमा सर्वविदित है। आलस्य और निष्क्रियता की सर्वत्र निन्दा की गई है। इतने पर भी यह सोचना शेष ही रह जाता है कि हमारी क्रियाशीलता निरर्थक अथवा विकृत न हो। सुनियोजित और सुव्यवस्थित श्रम ही सत्परिणाम उत्पन्न करता है। निरर्थक और उद्देश्य रहित चेष्टाएँ न केवल उपहासास्पद होती हैं वरन् अपने व्यक्तित्व का वजन घटाती है।
कुछ लोगों को शरीर के विभिन्न अंगों से विभिन्न प्रकार की निरर्थक क्रिया करने की आदत होती है। इसे मानसिक अस्त-व्यस्तता ही कहना चाहिए। बिना विचारे काम करने की ऐसी निष्प्रयोजन क्रियाएँ जिनके करने की कोई आवश्यकता या उपयोगिता नहीं है लगातार या बार-बार करना यह सिद्ध करता है कि मस्तिष्क के साथ शारीरिक क्रिया-कलाप का सम्बन्ध टूट गया। काम करने से पूर्व उसके प्रयोजन को ध्यान में रखने की व्यवस्था असम्बद्ध हो गई। यह बड़ी उपहासास्पद और दयनीय स्थिति है।
कुर्ते या कोट के सामने वाले बटन मरोड़ना, उंगलियां चटकाना, जमाइयाँ लेते रहना, आँखें मिचकाना, बैठे-बैठे पैर हिलाना, हाथ में कोई चीज लेकर उसे मरोड़ना, खटखटाना, पेन्सिल को मुँह में डालना, पिन से कान या दाँत कुरेदना, मूँछें ऐंठते रहना, नाक में उँगलियाँ डालते रहना, दाँत से नाखून कुतरना, किसी के घर जाकर उसकी पुस्तकें तथा वस्तुएँ उलटना-पलटना, किसी के शरीर को धक्के दे देकर बात करना आदि ऐसी हरकतें हैं जो आदत से सम्मिलित हो जाने के बाद अपने को तो बुरा नहीं लगता, पर दूसरे लोग इन्हें बहुत ही बचकाना मानते हैं।
उपरोक्त हाथ पैरों की हरकतों की तरह मुँह से भी कितने ही लोग ऐसे ही बेतुके कार्य करते रहते हैं। बात-बात में गालियाँ देना, असम्मान सूचक भाषा का प्रयोग करना, अकारण निन्दा चुगली करना, तम्बाकू पान के कारण अथवा ऐसे ही जहाँ-तहाँ थूकते रहना, जोर-जोर से बोलना, जल्दी-जल्दी अथवा अस्पष्ट भाषा में बोलना, इस तरह बोलना कि मुँह से थूक उड़े, होठों की अगल-बगल में थूक जमा लेना अथवा दाँतों से थूक के तार उठाना, खाते समय मुँह खुला रखना और चप-चप की आवाज करना, घूमते-फिरते खाना, जब-तब गाने लगना, अपनी शेखी बघारते रहना, बात को अतिशयोक्तिपूर्ण करके कहना, जैसी बुरी आदतें अशिष्टता की गणना में आती हैं और ऐसे व्यक्ति को असंस्कृत माना जाता है।
बुरी आदतें तब पड़ती हैं जब आवेश ही प्रधान बन जाता है और निरीक्षण नियंत्रण को ध्यान में रखने की बात भुला दी जाती है। साधारण बुद्धि के लोग भी अपने कार्य व्यवसायों में निरीक्षण और नियन्त्रण की आवश्यकता समझते हैं, पर न जाने क्यों लोग अपनी आदतों और हरकतों के बारे में असावधानी बरतते हैं और आवेश में अंग संचालन का जो उत्साह आता है उसे मर्यादित रखने की बात भुला देते हैं फलतः उन्हें उपहासास्पद और छिछोरा बनना पड़ता है। अपनी शक्ति नष्ट होती है और दूसरे उसे असामाजिकता मानकर नाक भौं सिकोड़ते हैं इस असम्मान के कारण उन्हें अव्यवस्थित, असावधान एवं अप्रमाणिक तक मान लिया जाता है। दूसरे लोग उनके हाथ कोई महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व सौंपते या सहयोग देते हुए झिझकते हैं और सोचते हैं जो अपनी आदतों का निरीक्षण नियन्त्रण नहीं कर सकता वह किसी बड़े कार्य को पूरा करने में या दिये हुए सहयोग का सदुपयोग करने में कैसे समर्थ हो सकेगा?
किसी भी क्षेत्र में प्रगति का मूल आधार व्यवस्था बुद्धि होती है। जीवन जीना भी एक बड़ा कार्य क्षेत्र है इसमें व्यवस्था बुद्धि का उपयोग इस दिशा में भी सतर्कतापूर्वक किया जाना चाहिए कि अपनी आदतें बिगड़ने न पायें। निरर्थक और अनर्थ उत्पन्न करने वाली बुरी आदतें असावधानी के कारण हमारे स्वभाव का अंग बन जाती हैं और परिपक्व होने पर जड़ें इतने गहरी जमा लेती हैं कि उन्हें हटाना बहुत ही कठिन एवं प्रयत्न साध्य होता है।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति जनवरी 1975 पृष्ठ 31
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