लक्ष्य की दिशा में अग्रसर
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मनुष्य उज्ज्वल भविष्य की मनोरम कल्पनाएँ किया करता है। सुखमय जीवन का स्वप्न देखता है। उन्नति की योजनाएँ बनाता है। सफलता के सूत्र ढूँढ़ता है। लक्ष्य की दिशा में अग्रसर होने के लिए हर तरह की कोशिशें करता है। पर जब वह पीछे मुड़कर उपलब्धियों का मूल्याँकन करना चाहता है तो पता चलता है कि उसकी मनचाही योजनाएँ या तो मन में धरी रही गईं अथवा उनका क्रियान्वयन आधा-अधूरा हो पाया। इससे इसे अपने पुरुषार्थ पर खीज भी आती है व आक्रोश भी कारण ढूँढ़ पाने में वह सफल नहीं हो पाता।
असफलताजन्य खीज की प्रतिक्रियाएँ प्रायः दो अतिवादी स्वरूपों में अभिव्यक्ति होती हैं। एक व्यक्ति अपने को नितान्त अयोग्य मानकर घोर निराशा में निमग्न हो जाता है। एवं सारा दोष, भाग्य, भगवान अथवा परिस्थितियों के मत्थे मढ़कर निश्चित हो जाता है। इस प्रकार के व्यक्तियों के जीवन में सफलता की सम्भावनाएँ क्रमशः धूमिल होती जाती हैं।
दूसरा वर्ग सफल व्यक्तियों का है। असफलता के कारणों की छान-बीन करते समय इनका दृष्टिकोण सन्तुलित रहता है। अपनी गतिविधियों का पर्यवेक्षण निष्पक्ष न्यायाधीश की तरह करने पर पता चलता है कि स्वयं के भीतर पल रही अवाँछनीय और अनुपयुक्त विचार ही असफलताओं का मूल कारण है।
आदतें क्रियात्मक नहीं मूलतः विचारात्मक होती हैं। अतः सुधार की प्रक्रिया बहिरंग के साथ अन्तरंग में भी चलनी चाहिए। चिन्तन और व्यवहार का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। इसलिए सुधार-परिवर्तन के लिए दोनों मोर्चों पर समान रूप से तैनाती की आवश्यकता रहती है। इस उभय पक्षीय प्रयोजन की पूर्ति का सरल उपाय यह है कि विचारों को विचारों से ही काटा जाय। लब्ध प्रतिष्ठ मनोचिकित्सक सर नार्मन विंसेंट पील के प्रयोग इस संदर्भ में उल्लेखनीय हैं।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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