दांपत्य जीवन में कलह से बचिए (अन्तिम भाग)
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इस झगड़े का एकमात्र हल यह है कि स्त्री, पुरुष को और पुरुष, स्त्री को अपने मन की अधिकाधिक उदार भावना से बरतें। जैसे किसी व्यक्ति का एक हाथ या एक पैर कुछ कमजोर, रोगी या दोषपूर्ण हो तो वह उसे न तो काटकर फेंक देता है, न कूट डालता है और न उससे घृणा, असंतोष, विद्वेष आदि करता है, अपितु उस विकृत अंग को अपेक्षाकृत अधिक सुविधा देने और उसके सुधारने के लिए स्वस्थ भाग को भी थोड़ी उपेक्षा कर देता है। यही नीति अपने कमजोर साथी के प्रति बरती जाए तो झगड़े का एक भारी कारण दूर हो जाता है।
झगड़ा करने से पहले आपसी विचार-विनिमय के सब प्रयोगों को अनेक बार कर लेना चाहिए। कोई वज्र मूर्ख और घोर दुष्ट प्रकृति के मनुष्य तो ऐसे हो सकते हैं जो दंड के अतिरिक्त और किसी वस्तु से नहीं समझते, पर अधिकांश मनुष्य ऐसे होते हैं, जो प्रेमभावना के साथ, एकांत स्थान में सब ऊँच-नीच समझाने से बहुत कुछ समझ और सुधर जाते हैं। जो थोड़ा-बहुत मतभेद रह जाए उसकी उपेक्षा करके उन बातों को ही विचार क्षेत्र में आने देना चाहिए जिनमें मतैक्य है। संसार में रहने का यही तरीका है कि एकदूसरे के सामने थोड़ा-थोड़ा झुका जाए और समझौते की नीति से काम लिया जाए। महात्मा गांधी, उच्चकोटि के आदर्शवादी और संत थे, पर उनके ऐसे भी अनेकों सच्चे मित्र थे जो उनके विचार और कार्यों से मतभेद् ही नहीं विरोध भी रखते थे। यह मतभेद उनकी मित्रता में बाधक न होते थे। ऐसे ही उदार समझौतावादी नीति के आधार पर आपसी सहयोग-संबंधों को कायम रखा जा सकता है।
इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि साथी में दोष-दुर्गुण हों उनकी उपेक्षा की जाए और उन बुराइयों को अबाध रीति से बढ़ने दिया जाए। ऐसा करना तो एक भारी अनर्थ होगा। जो पक्ष अधिक बुद्धिमान, विचारशील एवं अनुभवी है उसे अपने साथी को सुसंस्कृत, समुन्नत, सद्गुणी बनाने के लिए भरसक प्रयत्न करना चाहिए। साथ ही अपने आप को भी ऐसा मधुरभाषी, उदार, सहनशील एवं निर्दोष बनाने के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए कि साथी पर अपना समुचित प्रभाव पड़ सके। जो स्वयं अनेक बुराइयों में फँसा हुआ है, वह अपने साथी को सुधारने में सफल कैसे हो सकता है? सती सीता परमसाध्वी उच्चकोटि की पतिव्रता थीं, पर उनके पतिव्रता होने का एक कारण यह भी था कि एकपत्नी व्रतधारी अनेक सद्गुणों से संपन्न राम की धर्मपत्नी थीं। रावण स्वयं दुराचारी था उसकी स्त्री मन्दोदरी सर्वगुणसंपन्न एवं परम बुद्धिमान होते हुए भी पतिव्रता न रह सकी। रावण के मरते ही उसने विभीषण से पुनर्विवाह कर लिया।
जीवन की सफलता, शांति, सुव्यवस्था इस बात पर निर्भर है कि हमारा दाम्पत्य जीवन सुखी और संतुष्ट हो। इसके लिए आरंभ में ही बहुत सावधानी बरती जानी चाहिए और गुण-कर्म की समानता के आधार पर लड़के-लड़कियों के जोड़े चुने जाने चाहिए। अच्छा चुनाव होने पर भी पूर्ण समता तो हो नहीं सकती, इसलिए हर एक स्त्री-पुरुष के लिए इस नीति को अपनाना आवश्यक है कि अपनी बुराइयों को कम करे साथी के साथ मधुरता, उदारता और सहनशीलता का आत्मीयतामय व्यवहार करे, साथ ही उसकी बुराइयों को कम करने के लिए धैर्य, दृढ़ता और चतुरता के साथ प्रयत्नशील रहे। इस मार्ग परं चलने से असंतुष्ट दाम्पत्य-जीवन में संतोष की मात्रा बढ़ेगी और संतुष्ट दंपती स्वर्गीय जीवन का आनंद उपलब्ध करेंगे।
.... समाप्त
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
गृहलक्ष्मी की प्रतिष्ठा
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