दांपत्य जीवन में कलह से बचिए (भाग १)
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नेक परिवारों में स्त्री-पुरुषों के मध्य जैसे मधुर संबंध नहीं देखे जाते जैसे कि होने चाहिए । अनेक घरों में आएदिन संघर्ष, मनोमालिन्य और अविश्वास के चिन्ह परिलक्षित होते रहते हैं । कारण यह है कि पति-पत्नी में से एक या दोनों ही केवल अपनी-अपनी इच्छा, आवश्यकता और रुचि को प्रधानता देते हैं । दूसरे पक्ष की भावना और परिस्थितियों को न समझना ही प्रायः कलह का कारण होता है ।
जब एक पक्ष दूसरे पक्ष की इच्छानुसार आचरण नहीं करता है तो उसे यह बात अपना अपमान, उपेक्षा या तिरस्कार प्रतीत होती है, जिससे चिढ़कर वह दूसरे पक्ष पर कटु वाक्यों का प्रहार या दुर्भावनाओं का आरोपण करता है । उत्तर-प्रत्युत्तर आक्रमण-प्रत्याक्रमण, आक्षेप-प्रत्याक्षेप का सिलसिला चल पड़ता है तो उससे कलह बढ़ता ही जाता है । दोनों में से कोई अपनी गलती नहीं मानता, वरन दूसरे को अधिक दोषी सिद्ध करने के लिए अपनी जिद को आगे बढ़ाते रहते हैं । इस रीति से कभी भी झगड़े का अंत नहीं हो सकता । अग्नि में ईंधन डालते जाने से तो और भी अधिक प्रज्वलित होती है ।
जो पति-पत्नी अपने संबंधों को मधुर रखना चाहते हैं उन्हें चाहिए कि दूसरे पक्ष की योग्यता, मनोभूमि, भावना, इच्छा, संस्कार, परिस्थिति एवं आवश्यकता को समझने का प्रयत्न करें और उस स्थिति के मनुष्य के लिए जो उपयुक्त हो सके ऐसा उदार व्यवहार करने की चेष्टा करें, तो झगड़े के अनेक अवसर उत्पन्न होने से पहले ही दूर हो जाएँगे । हमें भली प्रकार समझ लेना चाहिए कि सब मनुष्य एक समान नहीं हैं, सबकी रुचि एक समान नहीं है, सबकी बुद्धि, भावना और इच्छा एक जैसी नहीं होती । भिन्न वातावरण भिन्न परिस्थिति और भिन्न कारणों से लोगों की मनोभूमि में भिन्नता हो जाती है । यह भिन्नता पूर्णतया मिटकर दूसरे पक्ष के बिलकुल समान हो जावे यह हो नहीं सकता । कोई स्त्री-पुरुष आपस में कितने ही सच्चे क्यों न हों, उनके विचार और कार्यों में कुछ न कुछ भिन्नता रह ही जाएगी ।
अनुदार स्वभाव के स्त्री-पुरुष कट्टर एवं संकीर्ण मनोवृत्ति के होने के कारण यह चाहते हैं कि हमारा साथी हमारी किसी भी बात में तनिक भी मतभेद न रखे । पति अपनी पत्नी को पतिव्रत का पाठ पढ़ाता है और उपदेश करता है कि तुम्हें पूर्ण पतिव्रता, इतनी उग्र पतिव्रता होना चाहिए कि पति की किसी भी भली-बुरी विचारधारा, आदत कार्य प्रणाली में हस्तक्षेप न हो । इसके विपरीत स्त्री अपने पति से आशा करती है कि पति के लिए भी उचित है कि स्त्री को अपना जीवनसंगी, आधा अंग समझकर उसके सहयोग एवं अधिकार की उपेक्षा न करे । ये भावनाएँ जब संकीर्णता और अनुदारता से सम्मिश्रित होती हैं तो एक पक्ष सोचता है कि मेरे अधिकार को दूसरा पक्ष पूर्ण नहीं करता । बस यहीं से झगड़े की जड़ आरंभ हो जाती है ।
.... क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
गृहलक्ष्मी की प्रतिष्ठा
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