आत्मचिंतन के क्षण
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परिवार बसा लेना आसान है, लोग आये दिन बसाते ही रहते हैं, उसका पालन भी कोई विशेष कठिन नहीं। सभी उसका पालन करते हैं, किन्तु परिवार को समुन्नत एवं सुसंस्कृत बनाने के लिए उसका निर्माण करना एक श्रम साध्य कर्त्तव्य है। अधिकतर लोग परिजनों के लिए अधिकाधिक सुख-सुविधाएँ देने, उनके लिए अच्छा भोजन, वस्त्र तथा आराम की चीजें जुटाना ही पारिवारिक जीवन का उद्देश्य मान बैठे हैं। वे यह कभी नहीं सोच पाते कि भोजन, वस्त्र तथा शिक्षा, स्वास्थ्य के साथ परिवार की एक सर्वोपरि आवश्यकता भी है और वह है उसे सद्गुणी बनाना।
आपके पास एक ऐसी प्रेम की रस्सी होनी चाहिए, आपके पास ऐसी मिठास की रस्सी होनी चाहिए, आपके पास अपने व्यक्तिगत जीवन का उदाहरण पेश करने की ऐसी रस्सी होनी चाहिए, जिससे प्रभावित करके आप आदमी के हाथ जकड़ सकें, पैर जकड़ सकें, काम जकड़ सकें। सारे के सारे को जकड़ करके जिंदगी भर अपने साथ बनाए रख सकें।
अपने उद्धार के लिए नारी को स्वयं भी जागरूक होना पड़ेगा। अपने आपको आत्मा, वह आत्मा जो पुरुषों में भी है समझना होगा। मातृत्व के महान् पद की प्रतिष्ठा को पुनर्जीवित रखने के लिए उसे सीता, गौरी, मदालसा, देवी, दुर्गा, काली की सी शक्ति, क्षमता और कर्त्तव्य का उत्तरदायित्व ग्रहरण करना होगा। कामिनी, विलास की सामग्री न बनकर अपने आपको आदर्श, पूजनीय गुणों का आधार बनाना होगा, तभी वह गिरी हुई अवस्था से उठ सकती है।
नारी का उत्तरदायित्व बहुत बड़ा है। पुरुष से भी अधिक कह दिया जाय तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। वह गृहिणी है, नियत्री है, अन्नपूर्णा है। नारी में ममतामयी माँ का अस्तित्व निहित है, तो नारी पुरुष की प्रगति, विकास की प्रेरणा स्रोत जाह्नवी है। नारी अनेकों परिवारों का संगम स्थल है। नारी मनुष्य की आदि गुरु है, निर्मात्री है, इसमें कोई संदेह नहीं कि मानव समाज में नारी का बहुत बड़ा स्थान है और नारी की उन्नत अथवा पतित स्थिति पर ही समाज का भी उत्थान-पतन निर्भर करता है।
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
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