हमारी वास्तविकता को परखने फिर आ पहुँचा (भाग २)
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जो जितना प्रबुद्ध है उसकी उतनी ही अधिक जिम्मेदारी है। ईश्वर, आत्मा और समाज के सामने उनके उत्तरदायित्व बहुत कुछ बढ़े-चढ़े होते हैं। मूढ़ता और पशुता की स्थिति में पड़े हुए मनुष्यों की न कोई भर्त्सना है और न महिमा। वे जीते भर हैं। खाने और कमाने भर तक उनकी गतिविधियाँ सीमित रहती हैं। ऐसे लोग कुछ बड़ी बात सोच नहीं पाते, इसलिए कुछ बड़ा काम कर सकना भी उनके लिए संभव नहीं होता। संसार उनकी इस विवशता को जानता है इसलिए उन्हें कुछ श्रेय, दोष भी नहीं देता। पर जिन्हें भगवान ने विचारणा दी है, उनकी स्थिति भिन्न है। प्रबुद्ध लोग यदि अपने समय की समस्याओं की उपेक्षा करने लगें तो उनका अपराध अक्षम्य माना जायगा। फौजी अधिकारियों की छोटी-सी भूल राष्ट्रीय स्वाधीनता को खतरे में डाल सकती है। इसलिए उनसे अधिक सतर्कता एवं जिम्मेदारी की आशा की जाती है। यदि वह थोड़ा भी प्रमाद करता है तो उसे सहन नहीं किया जा सकता। सरकारी अन्य विभागों के कर्मचारी ढील-पोल बरतने पर चेतावनी या नगण्य-सा अर्थ दंड पाकर छुटकारा पा जाते हैं पर फौजी अफसर का तो ‘कोर्ट मार्शल’ ही होता है। उसे अपनी छोटी-सी लापरवाही के लिए मृत्यु दंड भुगतना पड़ता है।
सौभाग्य या दुर्भाग्य से ‘अखण्ड-ज्योति’ परिवार के सदस्यों को ऐसी ही उत्तरदायित्वपूर्ण परिस्थिति प्राप्त हुई हैं। भगवान ने उन्हें प्रबुद्धता की चेतना दी है। साथ ही कुछ जिम्मेदारी भी सौंपी है। उनके लिए लापरवाही बरतने का अवसर नहीं। बेशक सामाजिक नागरिकों की तरह हम लोगों को भी पारिवारिक जिम्मेदारियाँ उठानी पड़ती हैं। यह अर्थ उपार्जन आदि का प्रबन्ध करना पड़ता है। पर इसका यह अर्थ किसी प्रकार भी नहीं होता कि नव-निर्माण के कार्यों में भाग लेने के लिए उसे तनिक भी अवकाश नहीं मिलता। इस बहानेबाजी को कोई स्वीकार नहीं कर सकता। संसार के प्रायः सभी महापुरुष गृहस्थ थे और उन्हें पारिवारिक व्यवस्था जुटाने का भी ध्यान रखना पड़ता था। पर उनमें से किसी ने यह बहाना नहीं बनाया कि राष्ट्रीय कर्तव्यों की पूर्ति के लिए हमारे पास तनिक भी अवकाश नहीं। इस प्रकार की झूठी धोखेबाजी से केवल अपनी अन्तरात्मा को झुठलाया जा सकता है और किसी को नहीं। जिसकी आत्मा में थोड़ी भी समाज निष्ठा एवं कर्तव्य-निष्ठा होगी वह बुरी से बुरी परिस्थितियों में रहते हुए भी विश्व मानव की किसी न किसी प्रकार सेवा कर ही सकेगा। जहाँ इच्छा हो वहाँ रास्ता निकलता ही है। जिस ओर सच्ची आन्तरिक श्रद्धा होगी उस ओर चलने का भी कुछ न कुछ प्रबन्ध बन जाना निश्चित है।
अखण्ड-ज्योति परिवार के सदस्य उस कसौटी पर खोटे नहीं खरे उतरते रहे हैं। हम सभी गृहस्थ हैं और व्यस्तता के बीच भी अवकाश निकालकर इतना कुछ करते रहे हैं कि सारा राष्ट्र आश्चर्यचकित है। यदि फुरसत वाले साधु सन्त हम लोग होते तो शायद इतना भी न कर पाते जितना अब करते हैं। तब संभवतः संसार को माया मिथ्या बताकर आलस्य और अवसाद में पड़े रहने को ही मन करता। प्रश्न परिस्थितियों का नहीं भावना का है। युग के उत्तरदायित्वों के समझने की-अनुभव करने की— चेतना जिनके अन्तःकरण में जागृत हो चुकी है, उन्हें न समय का अभाव रहता है, न कठिनाइयों का रोना, रोना पड़ता है। आकाँक्षा अपना रास्ता बनाती है। यह तथ्य कितना सत्य है, इसका अनुभव हम सब इन दिनों भली प्रकार करते रहते हैं। वर्तमान काल की आर्थिक तंगी तथा पारिवारिक जीवन की उलझनों से जूझते हुए भी नव-निर्माण के लिए कितना अधिक कर लेते हैं। इस प्रयोग ने उन लोगों का मुँह बन्द ही कर दिया है जो सामयिक उत्तरदायित्वों के प्रति निष्ठावान न होने के कारण उत्पन्न हुई अकर्मण्यता को फुरसत न मिलने, अमुक कठिनाई रहने जैसे बहानों की चादर उठाने की उपहासास्पद चेष्टा करते रहते हैं।
.... क्रमशः जारी
पं श्रीराम शर्मा आचार्य
अखण्ड ज्योति नवम्बर 1965 पृष्ठ 47
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