Magazine - Year 1940 - Version 2
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Language: HINDI
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ईश्वर हमें दीखता क्यों नहीं?
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(ले. श्री जगन्नाथ प्रसाद शर्मा, नरायना)
आज भौतिक विज्ञानी बड़े जोरों के साथ इस बात की पुष्टि करने में लगे हुए हैं कि ईश्वर नाम की कोई वस्तु नहीं है, प्राकृतिक नियमों के द्वारा होने वाली रासायनिक प्रक्रिया द्वारा जीवों का जन्म मरण और उत्थान पतन होता है। उनका सबसे प्रमुख तर्क यह है कि ईश्वर जब दिखलाई नहीं पड़ता तो उसका होना कैसे माना जाय? जो चीज सामने नहीं है, या जिसका प्रत्यक्ष अनुभव नहीं होता उस वस्तु के अस्तित्व में क्यों विश्वास करें?विचार करने पर मालूम होता है कि उपरोक्त शंकाऐं निर्मूल हैं। मनुष्य का ज्ञान इतना विकसित और परिपूर्ण नहीं है कि उससे जो बातें स्पष्ट न होती हो उनका अस्तित्व स्वीकार करने से इंकार किया जा सके। बहुत सी बातें ऐसी हैं जिनका प्रत्यक्ष प्रमाण न होने पर भी मानते हैं।इस विषय में एक सन्त ने खोज करके आठ ऐसे कारण ढ़ूँढ़ निकाले हैं जिसके कारण मनुष्य को चीजें नहीं दीख पड़ती है, यद्यपि उन वस्तुओं का अभाव नहीं हैं। वे सन्त महोदय कहते हैं-दूर, समीप, इन्द्रिय की हानि।
मन चंचल, सूक्ष्म विवधान।।
तिरोभाव सजातो संग।
अष्ट हेत कर अनुभव भंग।।अर्थात्- दूर, पास, इन्द्रिय हानि, चंचल मन, सूक्ष्म विवधान, तिरोभाव और स्वजाति संग इन आठ कारणों से अनुभव भंग हो जाता है। यानी वस्तु का अस्तित्व होते हुए भी वह अनुभव में नहीं आती। उपरोक्त आठों बातों का खुलासा इस प्रकार है-दूर- पक्षी उड़ता हुआ जब दूर चला जाता है तो वह दिखलाई नहीं पड़ता है।समीप- अति निकट होने के कारण भी कोई वस्तु जानी नहीं जाती। जैसे आँखों में लगा हुआ सुरमा दिखाई नहीं देता।इन्द्रिय हानि- पहचानने योग्य इन्द्रिय के न होने पर भी अनुभव नहीं होता। जैसे अन्धे को रुप दिखाई नहीं पड़ता।मन चंचल- किसी चीज पर मन न ठहरने से भी उसका ज्ञान नहीं होता। जब हम किसी कार्य में पूरे मनोयोग के साथ लगे होते हैं और एक ही चीज में तन्मयता होती है तो पास में होकर कौन निकल गया या समीप में ही कौन क्या कर रहा है इसका पता नहीं चलता। सूक्ष्म- सूक्ष्म वस्तुओं का भी पता नहीं चलता। रोग कीटाणु, शब्द, लहरें, विचार कम्पन आदि असंख्य सूक्ष्म वस्तुऐं हमारे अत्यन्त सन्निकट घूमती रहती है पर उनका अनुभव नहीं होता। विविधान- आड़ में छिपी हुई चीजें मालूम नहीं होती। पर्दे के पीछे बैठा हुआ आदमी, जमीन में गड़ा धन, संदूक में बन्द वस्तुऐं विदित नहीं होती। यद्यपि इनका अभाव नहीं है।तिरोभाव- कारण विशेष से भी प्रकट वस्तु गुप्त हो जाती है। जैसे दिन में तारे नहीं दीखते।स्वजाति संग- अपने ही सदृश्य बहुत सी वस्तुओं के मिल जाने से भी चीज छिप जाती है। जैसे समुद्र में वर्षा का जल लुप्त होता है। मदिरा की एक बोतल नदी में डाल दी जाय तो फिर उसे अलग नहीं देखा जा सकता। यद्यपि वह उसी में विद्यमान है।उपरोक्त छोटी मोटी वस्तुओं को भी जब कारण वश मनुष्य नहीं देख सकता तो सूक्ष्म वस्तुओं का ज्ञान किस प्रकार हो? और ईश्वर जिसके लिए श्रुति चिल्लाती है- अणोरणीयाम् ...... अणुओं से भी अणु है, सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है। वह महासूक्ष्म तत्व यदि आदमी की अपूर्ण इन्द्रियों से पहचाना नहीं जाता तो इससे यह न समझना चाहिये कि वह है ही नहीं। भैंसे ने रत्नों की माला नहीं पहनी या नहीं देखी इसी कारण यदि वह उसके अभाव को मानने लगे तो यह उसकी मूर्खता ही होगी।ईश्वर सर्वत्र है। यह संसार उसी में समाया हुआ है। अखिल ब्रह्माण्डों में उसी की सत्ता है। उसे ध्यान पूर्वक देखिये। दिखाई देगा। आपका हृदय अन्धकार पूर्ण है तो उसमें विवेक का दीपक जलाइये। धुँधला सा प्रकाश होते ही देखेंगे कि आपके मन मन्दिर के किसी कोने में बैठा हुआ आनन्द कन्द, मन्द मन्द मुरली बजा रहा है।
मन चंचल, सूक्ष्म विवधान।।
तिरोभाव सजातो संग।
अष्ट हेत कर अनुभव भंग।।अर्थात्- दूर, पास, इन्द्रिय हानि, चंचल मन, सूक्ष्म विवधान, तिरोभाव और स्वजाति संग इन आठ कारणों से अनुभव भंग हो जाता है। यानी वस्तु का अस्तित्व होते हुए भी वह अनुभव में नहीं आती। उपरोक्त आठों बातों का खुलासा इस प्रकार है-दूर- पक्षी उड़ता हुआ जब दूर चला जाता है तो वह दिखलाई नहीं पड़ता है।समीप- अति निकट होने के कारण भी कोई वस्तु जानी नहीं जाती। जैसे आँखों में लगा हुआ सुरमा दिखाई नहीं देता।इन्द्रिय हानि- पहचानने योग्य इन्द्रिय के न होने पर भी अनुभव नहीं होता। जैसे अन्धे को रुप दिखाई नहीं पड़ता।मन चंचल- किसी चीज पर मन न ठहरने से भी उसका ज्ञान नहीं होता। जब हम किसी कार्य में पूरे मनोयोग के साथ लगे होते हैं और एक ही चीज में तन्मयता होती है तो पास में होकर कौन निकल गया या समीप में ही कौन क्या कर रहा है इसका पता नहीं चलता। सूक्ष्म- सूक्ष्म वस्तुओं का भी पता नहीं चलता। रोग कीटाणु, शब्द, लहरें, विचार कम्पन आदि असंख्य सूक्ष्म वस्तुऐं हमारे अत्यन्त सन्निकट घूमती रहती है पर उनका अनुभव नहीं होता। विविधान- आड़ में छिपी हुई चीजें मालूम नहीं होती। पर्दे के पीछे बैठा हुआ आदमी, जमीन में गड़ा धन, संदूक में बन्द वस्तुऐं विदित नहीं होती। यद्यपि इनका अभाव नहीं है।तिरोभाव- कारण विशेष से भी प्रकट वस्तु गुप्त हो जाती है। जैसे दिन में तारे नहीं दीखते।स्वजाति संग- अपने ही सदृश्य बहुत सी वस्तुओं के मिल जाने से भी चीज छिप जाती है। जैसे समुद्र में वर्षा का जल लुप्त होता है। मदिरा की एक बोतल नदी में डाल दी जाय तो फिर उसे अलग नहीं देखा जा सकता। यद्यपि वह उसी में विद्यमान है।उपरोक्त छोटी मोटी वस्तुओं को भी जब कारण वश मनुष्य नहीं देख सकता तो सूक्ष्म वस्तुओं का ज्ञान किस प्रकार हो? और ईश्वर जिसके लिए श्रुति चिल्लाती है- अणोरणीयाम् ...... अणुओं से भी अणु है, सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है। वह महासूक्ष्म तत्व यदि आदमी की अपूर्ण इन्द्रियों से पहचाना नहीं जाता तो इससे यह न समझना चाहिये कि वह है ही नहीं। भैंसे ने रत्नों की माला नहीं पहनी या नहीं देखी इसी कारण यदि वह उसके अभाव को मानने लगे तो यह उसकी मूर्खता ही होगी।ईश्वर सर्वत्र है। यह संसार उसी में समाया हुआ है। अखिल ब्रह्माण्डों में उसी की सत्ता है। उसे ध्यान पूर्वक देखिये। दिखाई देगा। आपका हृदय अन्धकार पूर्ण है तो उसमें विवेक का दीपक जलाइये। धुँधला सा प्रकाश होते ही देखेंगे कि आपके मन मन्दिर के किसी कोने में बैठा हुआ आनन्द कन्द, मन्द मन्द मुरली बजा रहा है।