Magazine - Year 1940 - Version 2
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Language: HINDI
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प्रभु की माया।
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(ले.-श्री. मूलशंकर नरभेराम ओझा)
प्रभु की माया अपार है, अपनी माया को प्रभु आप ही जानते हैं। उनके सिवाय उसे कोई नहीं जानता, न जान ही सकता है। प्रभु की माया नहीं जानी जा सकती हाँ, प्रभु जाने जा सकते हैं। जो प्रभु में लय हो जाता है, प्रभु के साथ एक ही भाव को प्राप्त हो जाता है, वही प्रभु को जान भी लेता है- अतः प्रभु नहीं जाने जाते हैं, परन्तु प्रभु की माया दुर्जेय है, वह नहीं जानी जाती-यही प्रभु की माया है।
प्रभु ही सारे जगत में फैले हैं, परन्तु कोई भी पूर्ण रूप से नहीं है, इसी कारण प्रभु की पूर्ण माया को कोई नहीं जानता। जो जानता है, अंश रूप में ही जानता है। सब इतना ही जान सकते हैं, ज्ञान की इतनी ही गम्य है, विद्या की इतनी ही गति है, बुद्धि की इतनी बलिहारी है। यही प्रभु की माया है।
इतना जानना भी हर किसी का काम नहीं है। जानने की इच्छा तो चाहे सब में हों, परन्तु यत्न तो कोई-सा ही करता है और उनमें से भी कोई विरला ही जान पाता है। जो जान जाता है, प्रभु उसका भी मुँह बन्द कर देते हैं, विधि तो वह बतला सकता है, पर उससे क्या मिलता है-यह नहीं बतला सकता। कुछ पूछों तो इतना ही कह सकता है कि प्रभु................ प्रभु? कहाँ? और प्रेम में गदगद हो गया। जिस पर प्रभु कृपा करते हैं उसी की यह अवस्था होती है। यही प्रभु की माया है।
जो इतना जानता है और अहंकार नहीं करता यह जानता है कि इतना जान लेना कुछ भी नहीं है। वह यत्न करता रहता है और उस पर प्रभु की और भी अधिक कृपा हो जाती है और इतना जानना ही उसके लिये प्रेम का कारण बन जाता है। अर्थात् जो मान जाता हैं वही प्रेम करने लगता है। प्रभु स्वयं प्रेमरूप हैं, अतः जानने वाले को भी प्रेम ही प्रदान करते हैं, वह अद्वितीय प्रेमी उसे भी प्रेमी बना लेता है, फिर प्रेमियों का प्रेम का खेल आरम्भ हो जाता है। यह भी प्रभु की माया है।
इस प्रेम की लीला में क्या नहीं होता, और क्या होता है? यह प्रेमी ही जानता है, जो जानना चाहे, प्रेमी बन देखे। प्रेम में प्रेमी इतना जानने से भी आगे बढ़ जाता है, यहाँ तक कि प्रेमवश प्रेमी प्रभु प्रीतम में लीन हो जाता है। फिर प्रीतम के अतिरिक्त कुछ भी नहीं रहता। हाँ, फिर न प्रेमी रहता है, न प्रीतम। दोनों प्रेमरूप हो जाते हैं। प्रेम ही प्रभु का अपना रूप है, प्रभु के रूप में प्रेमी समा गया, दो की जगह एक ही रह गया, वहीं पूर्ण प्रभु को जानता है। यही प्रभु की माया है।
परन्तु सब एक ही एक है, तो फिर कौन जाने? किसे जाने? और क्या जाने? जानने वाला (ज्ञाता) और जाना जानने वाला (ज्ञेय) से दोनों एक ही हैं, एक हो रहे हैं अर्थात् ज्ञाता और ज्ञेय ज्ञानरूप हो गये हैं। जानने वाला जानकर सब कुछ भूल गया फिर अब ज्ञाता क्या बतावे? प्रेमी चुप हैं, ज्ञानी गुम है। यही प्रभु की माया है।
अब दूसरी बात सोचिये। जो अंश रूप में जानता है और अहंकार करता है। जो अंश रूप में ही जानकर फूल जाता है, वह ढिंढोरा पीटता है कि मैं जानता हूँ। पर तत्त्वतः वह अभी अधूरा ही जानता है। और जो अहंकारवश होकर, प्रभु के प्रेमरूप को नहीं देखता, प्रेम नहीं करता वह अधूरा ही रहता है, कोण ज्ञान और निरी विद्वत्ता निष्फल जाती है। वह प्रभु का पूर्ण रूप नहीं जानता, न जान ही सकता है। यही प्रभु की माया है।
इसी कारण जो मानता है, वह कहता नहीं फिरता, जो अंश में जानता है-वह जानना न जानने के तुल्य है जो थोड़ा सा जानता है वही कहता फिरता है। जो कहता है, वह खो देता है। जो कहता फिरता है, वास्तव में वही नहीं जानता है। यही प्रभु की माया है।