Magazine - Year 1940 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
मरने के बाद हमारा क्या होता है?
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
(ले. श्री प्रबोध चन्द्र गौतम, साहित्य रत्न, कुर्ग)कई मतों के अनुसार मरने के बाद हम चौरासी लाख योनियों में घूमते हैं। उन सब में एक चक्र घूम आने के बाद फिर मनुष्य शरीर पाते हैं। योनियाँ कितनी है इस पर बहस नहीं, आमतौर से भारतवर्ष में मोटा सिद्धान्त यह माना जाता है कि कई बार नीच योनियाँ प्राप्त करके तब नरदेह मिलती है। जिन आचार्यों ने इस मत का प्रतिपादन किया है, उन्होंने लोगों को मनुष्य शरीर की श्रेष्ठता और बहुमूल्यता का अनुभव करने के लिए ही यह उपदेश दिया प्रतीत होता है। क्योंकि तर्क, अनुभव और प्रमाण इसके विपरीत जाते हैं। मोक्ष न मिलने तक नाना जन्म धारण करना तो ठीक है परन्तु मनुष्य का नीच अविकसित जीवों में जन्म लेना ठीक नहीं। मनुष्य का जीव उस चेतना में जग गया होता है कि वह ज्ञान रहित योनियों में नहीं गिरता। उसने अपनी सूक्ष्म इन्द्रियाँ, बुद्धि, मन और अंतःप्रेरणा इतनी जाग्रत कर ली होती है कि पशु शरीर में वे समा नहीं सकती। निश्चय ही किसी बैल को उस ङ्क्षपजड़े में कैद नहीं किया जा सकता जिसमें बुलबुल पाली जाती है।यह तर्क करना निरर्थक है कि मनुष्य ने जो पाप कर्म किये हैं उनका शारीरिक दण्ड नीच योनियों में जाये बिना कैसे मिलेगा? विचार पूर्वक देखा जाय तो पशु योनि दुख या दण्ड योनि नहीं है। जिस प्रकार का हमें सुख- दुख होता है वैसी अनुभूति नीच जीवों को नहीं होती। केवल तात्कालिक शारीरिक कष्ट उन्हें होता है परन्तु मानसिक व्यथा तो पास नहीं फटकती। सूक्ष्म परीक्षण करने पर पशु दण्ड योनि नहीं ठहरती। दया का पात्र दुखी जीवन भी मनुष्य जैसा क्लेश और कष्ट अनुभव नहीं करता। यदि दुख ही अनुभव न हो तो दण्ड कैसा? सच पूछा जाय तो मनुष्य शरीर ही दण्ड योनि है। जरा सा फोड़ा हो जाने या किसी के द्वारा अपमानित होने पर कितनी व्यथा वह अनुभव करता है? फिर शारीरिक कष्ट भी इसी योनि में अधिक है। रोगी, अपाहिज, पागल, अंग- भंग जितनी संख्या में मनुष्य होते हैं उतने पशु नहीं।जिन मनुष्यों की भावनाऐं नीच है। स्वार्थ, हिंसा, कपट, दुराचार से जिनकी वृत्तियाँ भरी हुई हैं। वे अपनी इच्छाओं से आकर्षित होकर ऐसे समाज में जन्म धारण करते हैं जहाँ उनकी पूर्व सम्पत्ति से मिलती जुलती चीजें प्राप्त हो सकें। पुरानी इच्छाओं का अर्थ यह नहीं है कि जन्म भर जो कार्य किसे हैं वही निश्चित आकांक्षाऐं है। नहीं, इच्छाऐं भौतिक वस्तुऐं हैं उन्हें काट डालना और नई बना लेना मनुष्य के वश से बाहर की बात नहीं है। अजामिल और गणिका की कथाऐं इसकी पुष्टि करती है। अकेले वाल्मीक ही नहीं असंख्य कुकर्मी कुछ ही क्षणों के पश्चात् धर्मात्मा हो गये हैं। रामायण की ‘‘अन्त राम कहि आवत नाही’’ वाली चौपाई इसकी यथार्थता सिद्ध करती है कि अन्तिम क्षणों में भी यदि भावना प्रबलतम, उच्च हो जाय तो भव सागर से निस्तार हो सकता है। पुराने कल्मष कट सकते हैं। नया जन्म धारण करने के लिए वे इच्छाऐं अधिक महत्त्व रखती हैं जिन्हें मृत्यु से पूर्व पाने के कारण जीव अपनी स्वतन्त्रतावस्था में धारण किये रहता है। इनका एकदम पलट जाना तो एक अपवाद हुआ। साधारणतः यह जीवन भर के कामों और विचारों के कारण बनी होती है और प्रबलतम परिवर्तन के बिना काटी नहीं जा सकती। यदि ऐसा न होता तो लोग जन्म भर साधन करने की अपेक्षा केवल बुढ़ापे के लिए आत्म चिन्तन छोड़ रखते।अपनी भावना के अनुकूल जन्म धारण करने में एक और सन्देह हो सकता है कि इससे तो जीव सब प्रकार स्वतन्त्र हो गया, उस पर कर्मफल प्राप्त करने के लिए कोई नियन्त्रण नहीं रखा गया? इसका पूरा समाधान तो ‘‘जीव का अस्तित्व और उसकी क्रिया’’ विषय को पूरी तरह समझे बिना नहीं हो सकता। पाठक इस तत्व को भी अखण्ड ज्योति के किसी आगामी अंक में पढ़ेंगे। यहाँ पर तो इतना ही कहा जा सकता है कि नियन्त्रण हैं अवश्य, पर जेलखाने की तरह नहीं। उसकी छूट रिहाई, सजा, मजदूरी किसी दफ्तर में नहीं रखी जाती। वरन् प्रकृति के ऐसे नियमों के साथ उसे जकड़ दिया जाता है जो गुप्तचर के समान हर क्षण पीछा करते हैं और दण्ड पुरस्कार चुकाने की व्यवस्था करते रहते हैं। जीव का परतन्त्र कहना ईश्वर का अपमान करना है वह कर्म करने और अपने योग्य साधन प्राप्त कर लेने में सर्वथा स्वतन्त्र है। यहाँ ईश्वर की लीला देखिए वे ही कर्म और साधन उसकी इच्छा के अनुरुप फल देने वाले बन जाते हैं। जो सुस्वादु भोजन एक के लिए पुष्टिकर हैं दूसरे के वे ही प्राण ले सकते हैं। प्रकृति का खजाना सबके लिये खुला है। वस्तुऐं वे ही है और सबको मिल सकती हैं परन्तु पीतल के बर्तन में पड़ते ही खटाई कड़ुवी हो जाती है। मनुष्य की नीच और उच्च आकांक्षाऐं साधारण पदार्थों को ही अपने दुख सुख का कारण बना लेती हैं। यही स्वर्ग नरक है। पाप से नरक और पुण्य के स्वर्ग इसी प्रकार मिलता है। हरे भरे वन पर्वतों में जहाँ तपस्वी स्वर्ग सुख भोगते हैं, वही एक कायर पुरुष रह जाय तो दो ही दिन में अधमरा हो जायेगा। चाहे कुछ भय वहाँ न हो, पर दिन को शेर और रात को राक्षस उसके मस्तिष्क के चारों ओर नाचेंगे।आचार्यों का अनुभव है कि मनुष्य मरने के बाद मनुष्य योनि में ही जन्म धारण करता है। यह बात अनुभव में आई हुई भी है। प्रति वर्ष ऐसी अनेक घटनायें समाचार पत्रों में छपा करती है कि अमुक बच्चे ने अपने पूर्व जन्म का हाल बताया, पुराने सम्बन्धियों को पहचाना, कम्पनी गुप्त बातों को बताया आदि। ऐसी घटनाओं पर दृष्टि डालने और अनेक पूर्व जन्म और वर्तमान की स्थिति पर विचार करने से ऐसा प्रतीत होता है कि दोनों की दशा प्रायः सब दृष्टियों से मिलती जुलती है। यदि अत्यन्त पुण्य कर्मों से मनुष्य जन्म मिलना माना जाय तो पिछले जन्म के उनके कोई कर्म बहुत ऊँचे नहीं मालूूम पड़ते। इस प्रकार यह मानना पड़ता है कि जिस कक्षा तक मनुष्य पहुँच गया है उससे नीचे नहीं उतर सकता। जीव का धर्म विकास करना है वह पूर्णता के प्राप्त होने के लिए भीतर ही भीतर प्रबल प्रयत्न कर रहा है। और विकास की ओर अग्रसर हो रहा है। नीचे उतरना नहीं हो सकता, वह पीछे नहीं हट सकता। भले बुरे कर्मों का इस समय पाप पुण्य की दृष्टि से विचार न करके जड़ता और चेतना की दृष्टि से सन्तुलन कीजिए। आपको मालूम पड़ेगा कि चालाकी चोरी, ठगी के मूल में भी जड़ता से उठ कर चेतना और विकास में जाने का प्रयत्न है। भले ही उस भीतरी प्रेरणा की दुष्वृत्तियों ने गड़बड़ा कर अपने सांचे में ढाल लिया है, परन्तु उसके पीछे विकास का तत्व अवश्य है। ऐसा विकाशोन्मुखी मनुष्य प्राणी निश्चय ही अगले जन्म में अपने तुल्य देह पर आकर्षित होगा और उसे ही ग्रहण कर लेगा।किन्हीं पशुओं में बहुत अधिक ज्ञान होता है। यहाँ यह न समझना चाहिए कि इसमें मनुष्य की आत्मा ने प्रवेश कर लिया है। असल में वे नीच जीव ही बहुत दिनों से मनुष्य के संसर्ग में रहते और क्रमिक विकास में बढ़ते- बढ़ते इस योग्य हो गये होते हैं कि अपनी वर्तमान श्रेणी से उठकर ज्ञान योगियों की ओर बढे।कभी कभी कुछ उच्च आत्माऐं नीच वातावरण में जन्म ले लेती है। ऐसा वे स्वेच्छा से करती हैं। उनका उद्देश्य उस श्रेणी के लोगों के बीच में से दूषित विचार मण्डल बदलने आदि की इच्छा होती है।