Magazine - Year 1940 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
मृत्यु कोई वस्तु नहीं है।
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
(स्व. स्वामी विवेकानन्द का एक भाषण)
आत्मा अच्छेद्य, अदाह्य, अक्लेद्य और अशोष्य हैं, अर्थात् वह तलवार की धार से कट नहीं सकती, आग में जल नहीं सकती, पानी में डूब नहीं सकती और वायु उसे सुखा नहीं सकती। प्रत्येक जीवात्मा एक गोलाकार के समान है जिसकी गोलाई की सीमा नहीं पर उसका मध्य बिन्दु किसी शरीर में रहता है। यही मध्य बिन्दु जब एक शरीर से दूसरे शरीर में चला जाता है, तब कहते हैं कि पहले शरीर की मृत्यु हुई, वास्तव में मृत्यु कोई वस्तु नहीं है। आत्मा जड़ पदार्थों से कभी बाँधा नहीं जा सकता। वह नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त और पूर्ण है। कभी कभी कारणवश जड़ पदार्थों के साथ उसका संयोग होने से यह भावना करता है कि मैं जड़ पदार्थ हूँ।
आप कहेंगे कि आत्मा अमर है, मृत्यु कोई वस्तु नहीं है, पूर्व जन्म के कर्मानुसार आत्मा देह धारण करता है, इन बातों को हम मानते हैं, पर तूफान में पड़ी हुई नाव की तरह इस संसार सागर के तूफान से आत्मा का छुटकारा पाने का क्या कोई उपाय नहीं है? कालचक्र के फेरे से कौन बचा है? कार्य और कारण की दो धारी छुरी किसके गले पर नहीं फिरती? उस कालचक्र की मशीन में अनाथ विधवायें आश्रयहीन बालक और उन्मत्त सत्ताधीश एक ही से पिसे जाते हैं। ऐसा कौर है जो कालचक्र के स्मरण से भय न करता हो? सारे संसार से यही करुण ध्वनि उठती है कि क्या इस कराल काल के चक्र से कठोर छुरी की धार से, भयानक तूफान से हमें कोई बचा सकता है?
वेद इन प्रश्नों का ललकार कर उत्तर देते हैं- “मित्रों, डरो मत, तुम सच्चिदानंद स्वरूप हो, जिस सनातन प्राचीन रूप से तुम्हारा जन्म हुआ है उसको पहचानो, तुम्हारा बेड़ा पार है।” ‘सच्चिदानन्द की संतान’ कितना मधुर शब्द है। अपने को आप पाप समझते हैं किन्तु वेदान्त कहता है कि आप पूर्ण हैं, पवित्र हैं, पूर्णानंद रूप हैं, आपको पापी कौन कह सकता है? मनुष्य को पापी कहना ही महा पाप है। तुम जड़ शरीर नहीं हो, शरीर तो तुम्हारा एक नौकर है। उठो, जागो और निज को पहचानो, तुम नित्य शुद्ध, बुद्ध और मुक्त हो।
वेदों ने काल के कराल पंजे से छूटने को बताया है कि- “उस स्वरूप की पूजा करो जिससे सृष्टि के सब नियम चलते हैं, जिसकी आज्ञा से पाँचों तत्व अपना काम करते हैं और जो मृत्यु का हरण करता है।” उसी से ऋषि लोग प्रार्थना करते हैं कि “हे सर्वव्यापी दया मय, तू ही हमारा पिता, तू ही माता, बन्धु, मित्र है तू ही संसार की सब शक्तियों का अधिष्ठाता है और विश्व का भार सहता है हम इस जीवन का भार सह सकने की शक्ति की तुझसे याचना करते हैं।” इस जन्म तथा अन्य जन्मों में उससे बढ़कर और किसी पर प्रेम न हो यह भावना मन में दृढ़ कर लेना ही उसकी पूजा करना है।
कमल पत्र के समान मनुष्य को संसार से अलिप्त रहना चाहिये। कर्म करते हुये भी उससे उत्पन्न होने वाले सुख दुख से यदि मनुष्य अलग रहे तो उसे निराशा का सामना न करना होगा। सब काम निष्काम होकर करो तुम्हें कभी दुख न होगा।
राजपाट से रहित होकर राजा युधिष्ठिर हिमालय पर्वत पर जा रहे थे तब एक बार द्रौपदी ने उन से पूछा महाराज, आप ईश्वर के अनन्य भक्त होकर इस प्रकार दुख क्यों भोगते हैं? “इस पर युधिष्ठिर ने कहा-देवी, हम हिमालय के उत्तुँग और मनोहर शृंगों पर क्या इससे कुछ बदला पाने की इच्छा से प्रेम करते हैं? सुन्दर और उदात्त वस्तु पर प्रेम करना मेरा स्वभाव ही है, जो सुन्दरता का सागर और उदात्त से भी उदात्त है उस पर मैं कैसे प्रेम न करूंगा? संसार में वही एक प्रेम का स्थान है। प्रेम के परिवर्तन में, मैं कुछ भी नहीं चाहता।”
इस प्रकार का परमात्मा के प्रति अनन्य प्रेम होना मृत्यु से बचने का सच्चा उपाय है। सत्य ईश्वर प्रेम के उपरान्त मृत्यु नहीं होती और होती भी है तो उसमें कष्ट नहीं होता।