Magazine - Year 1940 - Version 2
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कर्मयोग-रहस्य
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ले. स्व. स्वामी विवेकानन्द जीआप अपने बीते हुए जीवन पर विचार कीजिये। अनेक बार आपको दुखों से सामना करना पड़ा होगा। इसका कारण क्या है? किसी कार्य को करते समय आप अपनी सब शक्ति और उत्साह उसी मे लगा देते हैं। आप की दृष्टि उसके फल की ओर लग जाती है परन्तु कभी कभी इतना करने पर भी अपयश के सिवाय कुछ और हाथ नहीं आता। फिर तो आपकी सांप छछूँदर की सी गति हो जाती है। कर्म की अत्यन्त आसक्ति के कारण मोह वश आप न उस कार्य को छोड़ सकते और न सुख पूर्वक चला ही सकते हैें। परिणाम में आपको दुख भोगना पड़ता है। शहद के बरतन पर मक्खी शहद खाने की इच्छा से बैठती है, परन्तु उसी शहद में पैर पड़ जाने से बेचारी प्राण गँवा देती है। हमारा जीवन सुख भोगने के लिये है, परन्तु उससे लाभ उठाकर दूसरे ही सुख भोगने लगे और हमारा जीवन दुखमय बन गया। राज्यासन पर विराजमान हो अधिकार चलाने के उद्देश्य से हम संसार में आये, परन्तु सृष्टि के गुलाम बन कर कारावास का अनुभव करने लगे। सुखदाई वस्तुयें हमारा कलेजा खा रही हैं। सृष्टि की सब सम्पत्ति हजम करने क हमारे विचार हैं, परन्तु सृष्टि ही हमारा सर्वस्व छीन रही है। ऐसी विपरीत बातें क्यों होती हैं? हम कर्म में आसक्त रहते हैं, सृष्टि के जाल में अपने आप जा फँसते हैं यही इस विपत्ति का कारण है।कुटुम्बी मित्र, धर्म कर्म, बुद्धि और बाहरी विषयों के प्रति लोगों की जो आशक्ति देखी जाती है, वह केवल सुख प्राप्ति के लिये है। परन्तु जिस आसक्ति को लोग सुख का साधन समझ बैठे हैं, उससे सुख के बजाय दुख ही उठाना पड़ता है। बिना अनाशक्त हुए हमें आनन्द नहीं मिलेगा। इच्छाओं का अंकुर हृदय में उत्पन्न होते ही उसे उखाड़ कर फेंक देने की जिनमें शक्ति है, उनके पास दुखों की रूह तक नहीं पहुंच सकती। अत्यन्त आसक्त मनुष्य उत्साह के साथ जिस प्रकार कर्म करता है, उसी प्रकार कर्म करते हुये भी उससे एक कद नाता तोड़ देने की जिसमें समझ है, वही प्रकृति द्वारा अनन्त सुखों का उपभोग कर सकता है। परन्तु यह दशा तब प्राप्त हो सकती है, जब उत्साह से कार्य करने की आसक्ति और उससे पृथक होने की अनासक्ति का बल समान हो। कुछ लोग बिलकुल अनासक्त दीख पड़ते हैं। न उनका किसी पर प्रेम होता है और न वे संसार में ही लीन रहते हैं, मानों उनका हृदय पत्थर का ही बना होता हैं। वे कभी दुखी नहीं दिखाई पड़ते। परन्तु संसार में उनकी योग्यता कुछ भी नहीं हैं, क्योंकि उनका मनुष्यत्व नष्ट हो चुका हैं। परन्तु ऐसी अनासक्ति से तो आसक्त होकर दुख भोगना ही अच्छा। पत्थर बन बैठने से दुखों से सामना नहीं करना पड़ता यह बात सही है, परन्तु फिर से सुखों से भी वञ्चित रहना पड़ता है। यह केवल चित्त की दुर्बलता मा। है। यह एक प्रकार का मरण है। उसके मन की दुर्बलता सब प्रकार के बन्धनों की जड़ है। दुर्बल मनुष्य संसार में तुच्छ गिना जाता है, उसे यश प्राप्ति की आशा ही न रखनी चाहिये। शारीरिक और मानसिक दुख रोग जन्तु हैं परन्तु जब तक हमारा शरीर सुदृढ़ है तब तक उसमें प्रवेश करने की उन्हें हिम्मत नहीं होती। तब तक दुखों की क्या मजाल है जो वे हमारी ओर आँख उठाकर भी देखें। शक्ति ही हमारा जीवन और दुर्बलता ही मरण है।किसी वस्तु पर प्रेम करना, अपना सारा ध्यान उसी में देना, दूसरों के हित साधन में अपने आपको भूल जाना, यहाँ तक कि कोई तलवार लेकर मारने आवे तो भी उस ओर से मन चलायमान न हो, इतनी आसक्ति हो जाना भी एक प्रकार का दैवी गुण है। वह एक प्रदत्त शक्ति है, परन्तु उसी के साथ मन को एकदम अनासक्त बनाने का गुण भी मनुष्य के लिये आवश्यक है, क्योंकि केवल एक ही गुण के बल पर कोई पूर्ण नहीं हो सकता। भिखारी कभी सुखी नहीं रहते, क्योंकि उन्हें अपने निर्वाह की सामग्री जुटाने में लोगों की दया और तिरस्कार का अनुभव करना पड़ता है। यदि हम अपने कर्म का प्रतिफल चाहेंगे तो हमारी गिनती भिखारियों में होकर हमें सुख नहीं मिलेगा। देन लेन को वैश्य वृत्ति अवलम्बन करने से हमारी हाय- हाय क्योंकर छूट सकती हैं? धार्मिक लोग भी कीर्ति की अपेक्षा रखते हैं, प्रेमी प्रेम का बदला चाहते हैं। इस प्रकार की अपेक्षा या चाह ही सब दुखों की जड़ है। कभी कभी व्यापार में हानि उठानी पड़ती है, प्रेम के बदले दुख भोगने पड़ते हैं, इसका कारण क्या है? हमारे कार्य अनासक्त होकर किये हुये नहीं होते, आशा हमें फँसाती है और संसार हमारा तमाशा देखता है। प्रतिफल की आशा न रखने वाले को ही सच्ची यश प्राप्ति होती है। साधारण तौर से विचार करने पर यह बात व्यवहार से विरुद्ध दीख पड़ेगी, परन्तु वास्तव में इसमें कोई विरोध नहीं किन्तु विरोधाभास मात्र है। जिन्हें किसी प्रकार के नीतिफल की इच्छा नहीं, ऐसे लोगों को अनेक कष्ट भोगते हुए हम देखते हैं, परन्तु उनके वे कष्ट उन्हें प्राप्त होने वाले सुखों के आगे पासंग के बराबर भी नहीं होते। भगवान ईसा ने जन्म पर्यन्त निस्वार्थ भाव से परोपकार किया और अन्त में उसे फाँसी की सजा मिली। यह बात असत्य नहीं है, परन्तु सोचना चाहिये कि अनासक्ति के बल पर उसने साधारण विषय सम्पादन नहीं किया था। करोड़ों को मुक्ति का रास्ता बताने का पवित्र यश उसे प्राप्त हुआ था अनासक्त होकर कर्म करने से आत्मा को प्राप्त हुये अनन्त सुखों के आगे उसके शारीरिक कष्ट बहुत थोड़े थे। कर्म के प्रतिफल की इच्छा करना ही दुखों को निमन्त्रण करना है। यदि आपको सुखी होना हो तो कर्म का प्रतिफल न चाहो।
इस बात को आप कभी न भूलें कि आपका जन्म देने के लिये है, लेने के लिये नहीं। इसलिए आपके जो कुछ देना हो वह बिना इतराज किये, बदले की इच्छा न रखकर दे दो, नहीं तो दुख भोगने पड़ेंगे। प्रकृति के नियम इतने कड़े हैं कि आप खुशी से न देंगे तो वह आपसे जबरदस्ती छीन लेगी। आप अपने सर्वस्व को चाहे जितने दिनों तक छाती से लगाये रहें, एक दिन प्रकृति उसे आपकी छाती पर सवार होकर लिये बिना न छोड़ेगी। प्रकृति बेईमान नहीं है। आपके दान का बदला वह अवश्य चुका देगी सूर्य समुद्र का जल सोखता है तो सी जल से पुनः पृथ्वी को तर भी कर देता है। एक से लेकर दूसरे को और दूसरे से लेकर पहिले को देना सृष्टि का काम ही है। उसके नियमों में बाधा डालने की हमारी शक्ति नहीं है। आप जितना अधिक देंगे उससे हजार गुना प्रकृति से आप पावेंगे, परन्तु वह पाने के लिए धीरज धरना होगा, अनासक्त बनना होगा।
अपनी पूर्व दशा पर विचार कर क्या हम यह नहीं समझ लेते कि जिन पर प्रेम करते हैं वे ही हमें गुलाम बना रहे हैं, ईश्वर की ओर से विमुख कर रहे हैं, कठपुतलियों की तरह नचा रहे हैं। परन्तु मोह वश हम पुनः उन्हीं की चंगुल में जा फँसते हैं। संसार में सच्चा प्रेम, सच्चा निस्वार्थ भाव दुर्लभ है, यह जानकर भी हम संसार से अलिप्त रहने का उद्योग नहीं करते। आसक्ति हमारी जान मार रही है। अभ्यास से कौन सी बात सिद्ध नहीं होती? आसक्ति को भी अभ्यास से हम हटा सकते हैं। दुख भागने की जब तक हम तैयारी न कर लेंगे, तब तक वे हमारे पास भी नहीं आवेंगे। हम खुद दुखों के लिये मन में घर बना रखते हैं, फिर यदि वे उसमें आकर बसे तो उनका क्या कसूर हैं? जहाँ मरा हुआ जानवर पड़ा रहेगा, वहीं कौए और गीध से खाते हुए दीख पड़ेंगे। रोग जब किसी शरीर को अपने योग्य समझ लेता है, तभी उसमें प्रवेश करता है।
आपको अपने पुरुषार्थ की प्रशंसा करते समय लोगों को वही दिखाने का यत्न करत हैं कि मैं सब कुछ जानता हूँ, मैं जो चाहे सो कर सकता हूँ, मैं शुद्ध निर्दोष हूँ, ईश्वर हूँ, निष्कलंक हूँ, परन्तु उसी समय आपके शरीर पर कोई छोटी सी कंकड़ी फेंके तो तोप का गोला लगने क बराबर आपको दुख होता है, आपका मनोबल इतना कमजोर हैं, आपकी सहन शक्ति इतनी अल्प है, तो फिर आप सर्व समर्थ कैसे हैं? जब मन ही इतना दुर्बल है कि एक अकिंचन मूर्ख के उद्योग से आपकी शान्ति भंग होती है, तब दुख बेचारे आपका पीछा क्यों न करेंगे? परमात्मा की शान्ति को भंग करने की भला किसमें सामर्थ्य है? यदि आप सचमुच परमेश्वर हैं तो सारा संसार भी उलटा होकर टँग जाय, आपकी शान्ति कभी भंग नहीं हो सकती। आप नरक के ओर से छोर तक चले जावें, कभी आपको कष्ट न होंगे। वास्तव में आप जो कुछ मुँह से कहते हैं उसका अनुभव नहीं करते इसी से संसार को दोषी ठहराते हैं। आप अपने दोषों को पहिले हटा दीजिये तब लोगों को दोषी कहिये। फलाना मुझे दुख देता है, फलाना मेरे कान उमेठता है, यह कहना आपको शोभा नहीं देता। कोई किसी को दुख नहीं देता, आप स्वयं दुख भोगते हैं, इसमें लोगों का क्या कसूर है? दूसरों के देखने में आप जितना समय लगाते हैं उतना अपने दोष सुधारने में लगाइये। आप अपना चरित्र सुधारेंगे, अपना आचरण पवित्र बनायेंगे तो संसार आप ही सुधर जायेगा। संसार को सुधारने के साधन हम मनुष्य ही है। जिस दिन आप पूर्ण हो जायेंगे, उस दिन संसार अपूर्ण न रहेगा। आप स्वयं पवित्र बनने के उद्योग में लगिये, यही कर्मयोग का रहस्य है।