Magazine - Year 1961 - Version 2
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Language: HINDI
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धर्म पुराणों की सत्य कथाएँ
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कर्ण की उदारता भगवान कृष्ण एक दिन कर्ण की उदारता की चर्चा कर रहे थे। अर्जुन ने कहा-युधिष्ठिर से बढ़कर वह क्या उदार होगा? कृष्ण ने कहा-अच्छा परीक्षा करेंगे? एक दिन वे ब्राह्मण का वेश बनाकर युधिष्ठिर के पास आये और कहा-एक आवश्यक यज्ञ के लिए एक मन सूखे चंदन की आवश्यकता है। युधिष्ठिर ने नौकर लाने को भेजे। पर वर्षा की झड़ी लग रही थी इसलिए सूखा चन्दन नहीं मिल रहा था जो कट कर आता वह पानी में भीग कर गीला हो जाता। युधिष्ठिर सेर, दो सेर चन्दन दे सके, अधिक के लिए उसने अपनी असमर्थता प्रकट कर दी। अब वे कर्ण के पास पहुँचे और वही एक मन सूखे चन्दन का सवाल किया। वह जानता था कि वर्षा में सूखा चन्दन न मिलेगा। इसलिए उसने अपने घर के किवाड़ चौखट उतार कर फाड़ डाले और ब्राह्मण को सूखा चन्दन दे दिया। तब श्रीकृष्ण जी ने अर्जुन से कहा-देखो युधिष्ठिर उतना दान करते हैं जितने से उनकी अपनी कुछ हानि न हो। कर्ण अपने को कष्ट में डालकर भी दान करता है, उसकी उदारता अधिक बड़ी है।
प्रतिहिंसा का अन्त नहीं
युधिष्ठिर ने ‘नरो वा कुंजरो वा’ का भ्रमपूर्ण वक्तव्य देकर द्रोणाचार्य को शोक संतप्त कर दिया और उस खिन्न अवस्था से लाभ उठा कर जब उनको मारा गया तो इस अनीतिपूर्ण कार्य से द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा को बड़ा क्रोध आया। वह प्रतिशोध लेने के लिए क्रोधान्ध होकर कुछ भी करने के लिए उतारू हो गया। उसने द्रौपदी के सोते हुए पाँचों पुत्रों की हत्या कर डाली और उत्तरा के गर्भ पर भी आक्रमण किया ताकि पाण्डवों का वंश नाश ही हो जाय। यह प्रतिहिंसा यहीं समाप्त नहीं हुई। पाण्डवों को अपने पुत्रों मरने का दुःख हुआ और उनने भी अश्वत्थामा से बदला लेने की ठानी। युद्ध में जीत कर अर्जुन ने उसे बाँध कर द्रौपदी के सामने उपस्थित किया ताकि उसकी इच्छानुसार दण्ड दिया जा सके। द्रौपदी ने दूरदर्शिता और उदारता से काम लिया। हिंसा और प्रतिहिंसा का कुचक्र तोड़े बिना काम नहीं चलता। इससे तो आगे भी सर्वनाश ही होता चलता है। द्रौपदी ने अर्जुन से कहा-छोड़ दो छोड़ दो। यह ब्राह्मण हमसे श्रेष्ठ है। जिन गुरु द्रोणाचार्य ने तुम्हें धनुर्विद्या सिखाई, यह उन्हीं का पुत्र है। उनके उपकारों को कृतज्ञतापूर्वक स्मरण करो और इसे छोड़ दो। ब्राह्मण पूजा के योग्य हैं वध के योग्य नहीं। मैं अपने पुत्रों की मृत्यु से दुखी होकर जिस प्रकार रो रही हूँ उसी प्रकार इसकी माता गौतमी को भी मेरे समान ही न रोना पड़े इसलिए इसे छोड़ देना ही उचित है।
त्याग और प्रेम
एक दिन नारद जी भगवान के लोक को जा रहे थे। रास्ते में एक संतानहीन दुखी मनुष्य मिला। उसने कहा-नाराज मुझे आशीर्वाद दे दो तो मेरे सन्तान हो जाय। नारद जी ने कहा-भगवान के पास जा रहा हूँ। उनकी जैसी इच्छा होगी लौटते हुए बताऊँगा। नारद ने भगवान से उस संतानहीन व्यक्ति की बात पूछी तो उनने उत्तर दिया कि उसके पूर्व कर्म ऐसे हैं कि अभी सात जन्म उसके सन्तान और भी नहीं होगी। नारद जी चुप हो गये। इतने में एक दूसरे महात्मा उधर से निकले, उस व्यक्ति ने उनसे भी प्रार्थना की। उनने आशीर्वाद दिया और दसवें महीने उसके पुत्र उत्पन्न हो गया। एक दो साल बाद जब नारद जी उधर से लौटे तो उनने कहा-भगवान ने कहा है-तुम्हारे अभी सात जन्म संतान होने का योग नहीं है। इस पर वह व्यक्ति हँस पड़ा। उसने अपने पुत्र को बुलाकर नारद जी के चरणों में डाला और कहा-एक महात्मा के आशीर्वाद से यह पुत्र उत्पन्न हुआ है। नारद को भगवान पर बड़ा क्रोध आया कि व्यर्थ ही वे झूठ बोले। मुझे आशीर्वाद देने की आज्ञा कर देते तो मेरी प्रशंसा हो जाती सो तो किया नहीं, उलटे मुझे झूठा और उस दूसरे महात्मा से भी तुच्छ सिद्ध कराया। नारद कुपित होते हुए विष्णु लोक में पहुँचे और कटु शब्दों में भगवान की भर्त्सना की। भगवान ने नारद को सान्त्वना दी और इसका उत्तर कुछ दिन में देने का वायदा किया। नारद वहीं ठहर गये। एक दिन भगवान ने कहा-नारद लक्ष्मी बीमार हैं-उसकी दवा के लिए किसी भक्त का कलेजा चाहिए। तुम जाकर माँग लाओ। नारद कटोरा लिये जगह-जगह घूमते फिरे पर किसी ने न दिया। अन्त में उस महात्मा के पास पहुँचे जिसके आशीर्वाद से पुत्र उत्पन्न हुआ था। उसने भगवान की आवश्यकता सुनते ही तुरन्त अपना कलेजा निकालकर दे किया। नारद ने उसे ले जाकर भगवान के सामने रख दिया। भगवान ने उत्तर दिया-नारद ! यही तुम्हारे प्रश्न का उत्तर है। जो भक्त मेरे लिए कलेजा दे सकता है उसके लिए मैं भी अपना विधान बदल सकता हूँ। तुम्हारी अपेक्षा उसे श्रेय देने का भी क्या कारण है सो तुम समझो। जब कलेजे की जरूरत पड़ी तब तुमसे यह न बन पड़ा कि अपना ही कलेजा निकाल कर दे देते। तुम भी तो भक्त थे। तुम दूसरों से माँगते फिरे और उसने बिना आगा पीछे सोचे तुरन्त अपना कलेजा दे दिया। त्याग और प्रेम के आधार पर ही मैं अपने भक्तों पर कृपा करता हूँ और उसी अनुपात से उन्हें श्रेय देता हूँ।” नारद चुपचाप सुनते रहे। उनका क्रोध शान्त हो गया और लज्जा से सिर झुका लिया।
आपत्ति धर्म
एक बार उषस्ति ऋषि को कई दिन तक भोजन नहीं मिला। भूख की पीड़ा से उनके प्राण निकलने लगे। तब वे एक शूद्र के यहाँ पहुँचे और कुछ खाने को माँगा। उसके पास कुछ झूठे उड़द पड़े थे। ऋषि ने उन्हें ही स्वीकार कर लिया और खाने लगे। जब खा चुके तो उसने पानी दिया वह भी झूठा था। उषस्ति ने उसे लेने से इंकार कर दिया। और कहा-दुर्भिक्ष के कारण अन्न उपलब्ध न था इसलिए जूठे उड़द खाकर मैंने अपने प्राण बचाये। पर जल तो अन्यत्र भी मिल सकता है फिर मैं क्यों झूठा पानी पीऊँ? प्राण संकट जैसी कोई महान आपत्ति उपस्थित होने पर सामाजिक एवं शारीरिक नियम मर्यादाओं में अन्तर किया जा सकता है। यह आपत्ति धर्म कहलाता है। वैसा संकट न रहने पर फिर उन नियम मर्यादाओं का पालन आरंभ कर देना चाहिए। नैतिक धर्म का पालन तो प्राणों की परवाह न करके भी करना चाहिए।
तप-तेज के नाश का कारण
सतयुग के आदि में जंभ नामक एक बड़ा प्रबल दैत्य था। उसने प्रचण्ड तप करके ऐसी शक्ति प्राप्त की थी जिसके बल से उसने सभी देवताओं को परास्त किया। एक दिन बालखिल्य ऋषियों के आश्रम में लक्ष्मी जी बैठी हुई थीं। संयोगवश जंभ दैत्य भी उधर से आ निकला। वह लक्ष्मी की सुन्दरता पर मुग्ध हो गया और उन्हें जबरदस्ती अपने रथ में बिठाकर हरण कर ले चला। देव गुरु बृहस्पति यह सब देख रहे थे। उनने देवताओं से कहा-बस अब प्रयोजन सिद्ध हो गया। अब इस पर आक्रमण करो, यह अवश्य मारा जायेगा। देवताओं ने पूछा-इसका क्या कारण है? देव गुरू ने कहा- पर नारी की ओर कुदृष्टि से देखने के कारण अब इसका पूर्व संचित तप नष्ट हो गया। अब इसे हरा देना कुछ कठिन नहीं है। देवताओं ने उस पर आक्रमण किया और प्रतापी जंभ दैत्य को आसानी से मार गिराया। इस पर वह व्यक्ति हँस पड़ा। उसने अपने पुत्र को बुलाकर नारदजी के चरणों में डाला और कहा एक महात्मा के आशीर्वाद से यह पुत्र उत्पन्न हुआ है। नारद को भगवान पर बड़ा क्रोध आया कि व्यर्थ ही वे झूठ बोले। मुझे आशीर्वाद देने की आज्ञा कर देते तो मेरी प्रशंसा हो जाती सो तो किया नहीं, उलटे मुझे झूँठा और उस दूसरे सहात्मा से भी तुच्छ सिद्ध कराया। नारद कुपित होते हुए विष्णुलोक में पहुँचे और कटुशब्दों में भगवान की भर्त्सना की। भगवान ने नारद को सान्त्वना दी और इसका उत्तम कुछ दिन में देने का वायदा किया। नारद वही ठहर गये। एक दिन भगवान ने कहा-नारद लक्ष्मी बीमार है- उसकी दवा के लिए किसी भक्त का कलेजा चाहिए। तुम जाकर माँग लाओ। नारद कटोरा लिये जगह जगह घूमते फिरे पर किसी ने न दिया। अन्त में उस महात्मा के पास पहुँचे जिसके आशीर्वाद से पुत्र उत्पन्न हुआ था। उसने भगवान की आवश्यकता सुनते ही तुरन्त अपना कलेजा निकालकर दे दिया। नारद ने उसे ले जाकर भगवान के सामने रख दिया। भगवान ने उत्तर दिया नारद! यही तुम्हारे प्रश्न का उत्तर है। जो भक्त मेरे लिए कलेजा दे सकता है उसके लिए मैं भी अपना विधान बदल सकता हूँ। तुम्हारी अपेक्षा उसे श्रेय देने का भी क्या कारण है सो तुम समझो। जब कलेजे की जरूरत पड़ी तब तुमसे यह न बन पड़ा कि अपना ही कलेजा निकाल कर दे देते। तुम भी तो भक्त थे। तुम दूसरों से मांगते फिरे और उसने बिना आगा पीछे सोचे तुरन्त अपना कलेजा दे दिया। त्याग और प्रेम के आधार पर ही मैं अपने भक्तों पर कृपा करता हूँ और उसी अनुपात से उन्हें श्रेय देता हूँ। नारद चुपचाप सुनते रहे। उनका क्रोध शान्त हो गया और लज्जा से शिर झुका लिया।