Magazine - Year 1961 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
विश्व को अध्यात्म का सन्देश देने वाले-श्री अरविन्द घोष
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
(श्री भारतीय योगी)
अँगरेजी राज्य की स्थापना के पश्चात भारतीय और पाश्चात्य आदर्शों में एक जोरदार टक्कर हुई। इस समय देश कई सौ वर्ष की परतंत्रता के कारण दबा हुआ था, उसका मनोबल हीनावस्था को प्राप्त हो चुका था, इस लिये शीघ्र ही पश्चिमीय आदर्शों से प्रभावित होकर भारतीय संस्कृति और आदर्शों की उपेक्षा करने लगें। उस समय उच्च शिक्षा प्राप्त लोगों में यह एक फैशन हो गया था कि भारत की सभ्यता को दकियानूसी बतलाकर यूरोपियन सभ्यता की नकल करें। इसका एक परिणाम यह भी हुआ कि अनेक नवशिक्षित लोगों ने अपना धर्म खुल्लमखुल्ला त्याग करके ईसाई धर्म ग्रहण कर लिया। यह देखकर हिन्दू धर्म के हितैषियों की चिन्ता हुई और देश में ऐसी विभूतियों का आविर्भाव होने लगा जिन्होंने भारतीय धर्म के विशुद्ध और उच्च रूप को लोगों के सामने रखा और बतलाया कि भौतिकता पर आधार रखने वाली पाश्चात्य सभ्यता भारत की आध्यात्मिक संस्कृति की तुलना में नगण्य और क्षणस्थायी है।
महायोगी अरविन्द का जन्म ऐसे ही संक्रान्ति काल में हुआ था। उनके पिता डॉ. कृष्णघन घोष बड़े सज्जन और उदार विचारों के व्यक्ति थे, पर विदेशी शिक्षा के प्रभाव से अंगरेजी सभ्यता के अन्यतम पुजारी बन गये थे। भारतीयता के प्रति उनकी विरक्ति इतनी बड़ गई थी कि उन्होंने अपने पुत्रों को मातृभाषा को एक शब्द भी नहीं सीखने दिया और बहुत छोटी अवस्था में ही उनको विदेशी बालकों के साथ विदेशी शिक्षकों की संरक्षकता में रख दिया। इसी कारण से अरविन्द घोष को सात वर्ष की आयु में ही सात समुन्दर पार इंग्लैण्ड में जाकर एक अंगरेज के घर में रहना पड़ा। उनके पिता की तो इच्छा यह थी कि उनका पुत्र भारतीयता से सर्वथा शून्य रहकर पूरा अंगरेज बनकर ब्रिटिश गवर्नमेंट का एक बहुत उच्च पदाधिकारी बने, पर होनहार को कुछ और ही स्वीकार था। अरविन्द ने इंग्लैण्ड की ऊँची से ऊँची शिक्षा प्राप्त करके अंगरेजी शासन तंत्र का एक पुर्जा बनने के बजाय, सर्वथा विपरीत मार्ग का अवलम्बन किया। समय आने पर वे अंगरेजी सत्ता को उखाड़ने वाले क्रांतिकारियों के एक प्रमुख नेता ही नहीं बने, वरन उन्होंने भारत की आध्यात्मिक संस्कृति को भी ऐसे प्रभावशाली रूप में विकसित किया कि संसार में उसकी प्रतिष्ठा और भी अधिक बड़ गई।
अपनी शिक्षा समाप्त करके और यूरोपियन साहित्य तथा वहाँ की कई भाषाओं के विद्वान बनकर श्री अरविन्द 22 वर्ष की अवस्था में सन् 1893 में भारतवर्ष वापस आये। विलायत में ही उनकी भेंट बड़ौदा के महाराज सयाजीराव से हो गई थी और उन्होंने उनसे अपनी रियासत में काम करने का आग्रह किया था। इसलिए वे विदेश से लौट कर सीधे बड़ौदा पहुँचे और वहाँ लगभग 13 वर्ष तक विभिन्न सरकारी पदों पर कार्य करते रहे, पर विशेष रूप से उन्होंने वहाँ के कालेज में अध्यापक का कार्य किया। जब सन् 1906 में उन्होंने राजनीतिक कार्य में पूर्णतः संलग्न होने के लिए बड़ौदा को छोड़ा उस समय वे 750 रुपए मासिक पर कालेज के वाइस प्रिंसिपल थे।
पर यह नौकरी उनके लिए कोई महत्व की बात नहीं थी। इसको वे मुख्यतः इसीलिये करते थे कि इसकी आय से अपने साँस्कृतिक और राजनीतिक कार्यक्रमों को पूरा कर सकें। उस बड़े पर पर कार्य करते हुये भी उनका जीवन नितान्त सादा था, वे प्रायः लोहे की साधारण चारपाई पर बिना अधिक बिस्तर और ओढ़ने के ही सोते थे, और साधुओं की तरह बिल्कुल मामूली आहार करते थे। उनका अधिक व्यय धार्मिक और दार्शनिक नई और पुरानी पुस्तकें खरीदने तथा क्रांतिकारी संगठन के कार्य में ही होता था। उनकी ऐसी निष्काम और उदार प्रवृत्ति को देखकर बंगला भाषा के एक प्रसिद्ध लेखक श्री दीनेन्द्र कुमार ने, जो उनके पास 1898 से 99 तक रहे थे। लिखा था-अरविन्द कोई सांसारिक जीव नहीं थे। वे तो कोई देवता थे जो भटक कर भूमण्डल पर आ गये थे। उनके बाल लम्बे थे और आँखें नींद की भाती सी लगती थी। फैशनेबल कपड़े न पहिन कर वे देशी कपड़े की एक मिरजई पहनते थे। उनको कोई आकाँक्षा नहीं थी। वे ख्याति से बचते थे, बातचीत बहुत कम करते थे, आत्मसंयम के साथ रहते थे और केवल अध्ययन ही उनका मुख्य कार्य था।’’
आध्यात्मिकता और योग की प्रेरणा उनको स्वामी विवेकानन्द की रचनाओं और श्रीरामकृष्ण परमहंस के उपदेशों से मिली थी। आध्यात्मिक क्षेत्र में वे बुद्धि, पांडित्य और विद्वता को अधिक महत्व नहीं देते थे। क्योंकि परमहंस जी के उदाहरण से उन्होंने स्पष्ट देख लिया था कि विद्वता से रहित होने पर भी उनमें आध्यात्मिकता का पूर्ण विकास हुआ था। इस विषय में उन्होंने एकबार लिखा था कि-श्रीरामकृष्ण स्वयं ऐसा जीवन व्यतीत करते थे, जिससे बहुत से लोग तो उनको पागल ही कहेंगे। उन्हें बौद्धिक शिक्षण नहीं मिला था, सभ्यता और संस्कृति के बाहरी चिन्ह उनमें दिखाई नहीं देते थे, वे दूसरों के दान पर जीवन बिताते थे। ऐसे व्यक्ति को अंग्रेजी पढ़े-लिखे भारतीय आमतौर से समाज के लिये नाशकारी नहीं तो बेकार जरूर कहेंगे। पर भगवान की लीला देखिये कि उन्होंने उसे दक्षिणेश्वर के मन्दिर में ला बिठाया ओर आधुनिक शिक्षा के गौरव स्वरूप समझे जाने वाले बड़े-बड़े विद्वान इस तपस्वी के की मुक्ति का कार्य आरम्भ हो गया।”
श्री अरविन्द के जीवन का उद्देश्य भी भारत की मुक्ति ही था। पर श्रीरामकृष्ण के विपरीत वे विद्या ओर शास्त्रीय ज्ञान के भण्डार थे इसलिये उन्होंने अपना कार्य मुख्यतः लेखनी और साधना द्वारा किया। भारत में स्वराज्य-आन्दोलन आरम्भ होने पर उन्होंने ‘वन्दे मातरम्’ पत्र द्वारा शिक्षित जनता में अपने मर्म स्पर्शी लेखों द्वारा अपूर्व चेतना और जागृति उत्पन्न कर दी थी। नवयुवकों पर उनके लेखों से जादू का सा प्रभाव होता था और दल के दल युवक राजनीतिक आन्दोलन में कूदकर अपने प्राणों की आहुति देने को प्रस्तुत हो गये। उनके इस अलौकिक प्रभाव को देखकर अंग्रेजी सरकार भयभीत हो गई और शीघ्र ही अवसर मिलने पर उसने उनको षड्यंत्र केस में फँसाकर जेल में बन्द कर दिया। श्री अरविन्द ने इस घटना का उपयोग भी आध्यात्मिक शक्ति के उच्च धरातल पर पहुँचने के लिये किया। मुकदमे के फलस्वरूप फाँसी या काला पानी के दण्ड की चिन्ता छोड़कर वे जेल में योग-साधन में संलग्न हो गये और एक वर्ष तक वहाँ रहते हुये ही उन्होंने उल्लेखनीय शारीरिक और मानसिक शक्तियाँ प्राप्त कर लीं। अब उनको प्रत्येक घटना और कार्य में लीलामय भगवान के ही दर्शन होने लगे वे अपने अणु-अणु में भगवान की शक्ति का अनुभव करने लगे।
षड्यंत्र के मुकदमे से बरी हो जाने पर अरविन्द ने देखा कि यहाँ राजनीतिक हलचल के कारण आध्यात्मिक साधना के कार्य में सदैव व्याघात आते रहेंगे, इसलिये कुछ ही महीने बाद वे मद्रास के निकट पाण्डिचेरी में चले गये, जो कि फ्रांस के आधीन एक छोटा सा नगर है। वहाँ उन्होंने अपने योगाश्रम की स्थापना की, जो कुछ वर्षों में इतना प्रसिद्ध हो गया कि भारत ही नहीं, विदेशों के अध्यात्म जिज्ञासु भी वहाँ शिक्षा प्राप्त करने के लिये आने लगे। फ्राँस के सुप्रसिद्ध दार्शनिक पॉल रिचर्ड ने पाण्डिचेरी आकर उनके कार्य में सहयोग देना आरम्भ किया और भारतीय संस्कृति तथा अध्यात्म विद्या के प्रचार के लिये ‘आर्य’ नाम का मासिक-पत्र अरविन्द के सम्पादकत्व में प्रकाशित कराया। पाल रिचर्ड की पत्नी मीरा रिचर्ड ने आश्रम की व्यवस्था का भार ग्रहण किया और आज तक वे ही ‘माताजी’ के नाम से उसका संचालन कर रही हैं।
श्री अरविन्द उन सच्चे आत्मज्ञानी साधकों में से थे जो साँसारिक सफलताओं से दूर रहकर विश्व हित पर ही दृष्टि रखते हैं। यद्यपि आरम्भ में कई वर्ष तक राजनैतिक क्षेत्र में कार्य करते रहने से देश और विदेशों में भी उनकी ख्याति हो गई थी और पाण्डिचेरी में एकान्तवास करने के पश्चात् भी लाल लाजपतराय, श्री पुरुषोत्तम टण्डन, डॉ. मुंजे आदि अनेक राजनैतिक नेता उनसे मिलकर सार्वजनिक क्षेत्र में कार्य करने का आग्रह करते हरे, पर उन्होंने अध्यात्म द्वारा ही विश्व की समस्याओं का समाधान करना अधिक उपयुक्त समझा। इसके लिये वे तीस वर्ष से भी अधिक समय तक एकान्त में रहकर स्वयं साधना करते रहे ओर अपने अनुयायियों का भी उसी प्रकार मूक भाव से विश्वहित करने का आदेश देते रहे । अन्त में भारत को स्वराज्य प्राप्त होने नर 15 अगस्त जिसमें अपने कार्यक्रम का परिचय देते हुये बतलाया था-
आज के दिन मैं लगभग समस्त संसार के उन आन्दोलनों का देख रहा हूँ जिन्हें मैं अपने जीवनकाल में सफलीभूत देखने की आशा करता था। यद्यपि उस समय वे ऐसे थे कि उनकी सफलता स्वप्न सी जान पड़ती थी, पर अब वे सफल होने के निकट पहुँच चुके हैं, या सफलता के मार्ग पर हैं।............भारत की स्वाधीनता के अतिरिक्त मेरा एक स्वप्न एशिया वासियों के पुनरुत्थान और मुक्ति का भी था, जिससे वह मानव-सभ्यता की प्रगति में अपना महान योग दे सके। तीसरा स्वप्न था सारे संसार का एक संघ स्थापित होने का जिसका बाह्य आधार मानव मात्र का अधिक उत्तम, समुज्ज्वल और शिष्ट जीवन हो । ये तीनों बातें अब निकट आती जा रही हैं । जो कुछ प्रयत्न किये जा रहे हैं, उनके मार्ग में आपत्तियाँ आ सकती हैं, उन प्रयत्नों को नष्ट कर सकती है, फिर भी अन्तिम परिणाम निश्चित हैं। कारण यह है कि एकीकरण ही प्रकृति की आवश्यकता है, यही उसकी अनिवार्य गति है। समस्त देशों के लिये इस बात की स्पष्ट रूप से आवश्यकता है। जब तक एकीकरण नहीं होगा तब तक छोटे राष्ट्रों का जीवन भी अरक्षित हो सकता हैं । ऐसी दशा में एकीकरण में सभी का हित हैं, और केवल मानव की जड़ता तथा मूर्खतापूर्ण स्वार्थ भाव ही उसमें बाधक बन सकता हैं। पर प्रकृति की आवश्यकता और देवी इच्छा के सम्मुख ये चीजें सदैव टिकी नहीं रह सकती। मेरा विश्वास है कि मनुष्य विकास-मार्ग में एक नया कदम अवश्य रखेगा और वर्तमान की अपेक्षा उच्च और विशाल चेतना की ओर अग्रसर होगा। इस कार्य का आरम्भ आत्मा की अन्तश्चेतना द्वारा इस देश में ही हो सकता है। यद्यपि इसका लक्ष्य सार्वभौम होगा, पर इसका केन्द्र भारत में रह सकता हैं।”
इस प्रकार लगभग आधी शताब्दी तक भारत की आध्यात्मिक शक्तियों को नवीन प्रेरणा देकर महायोगी अरविन्द निर्वाण अवस्था का प्राप्त हुये। पर उनके स्वप्न अब भी साकार होते जा रहे हैं। ओर इस बात की सम्भावना प्रतिदिन स्पष्ट होती जीती है कि अब यह संसार टुकड़ों में बँटा न रहकर समस्त मानव परिवार की एक इकाई के रूप में आध्यात्मिकता के मार्ग पर अग्रसर होगा।