Magazine - Year 1961 - Version 2
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Language: HINDI
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विचारणीय और मननीय
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जो भी करो आदर्श करो। एक व्यक्ति कबीर के पास गया और बोला- मेरी शिक्षा तो समाप्त हो गई। अब मेरे मन में दो बातें आती हैं, एक यह कि विवाह करके गृहस्थ जीवन यापन करूँ या संन्यास धारण करूँ? इन दोनों में से मेरे लिए क्या अच्छा रहेगा यह बताइए? कबीर ने कहा -दोनों ही बातें अच्छी है जो भी करना हो वह उच्चकोटि का करना चाहिए। उस व्यक्ति ने पूछा उच्चकोटि का करना चाहिए।” उस व्यक्ति ने पूछा-उच्चकोटि का कैसे है? कबीर ने कहा- किसी दिन प्रत्यक्ष देखकर बतायेंगे वह व्यक्ति रोज उत्तर प्रतीक्षा में कबीर के पास आने लगा। एक दिन कबीर दिन के बारह बजे सूत बुन रहे थे। खुली जगह में प्रकाश काफी था फिर भी कबीर ने अपनी धर्म पत्नी को दीपक लाने का आदेश दिया। वह तुरन्त जलाकर लाई और उनके पास रख गई। दीपक जलता रहा वे सूत बुनते रहे। सायंकाल को उस व्यक्ति को लेकर कबीर एक पहाड़ी पर गए। जहाँ काफी ऊँचाई पर एक बहुत वृद्ध साधु कुटी बनाकर रहते थे। कबीर ने साधु को आवाज दी। महाराज आपसे कुछ जरूरी काम है कृपया नीचे आइए। बूढ़ा बीमार साधु मुश्किल से इतनी ऊँचाई से उतर कर नीचे आया। कबीर ने पूछा आपकी आयु कितनी है यह जानने के लिए नीचे बुलाया है। साधु ने कहा अस्सी बरस। यह कह कर वह फिर से ऊपर चढ़ा। बड़ी कठिनाई से कुटी में पहुँचा। कबीर ने फिर आवाज दी और नीचे बुलाया। साधु फिर आया। उससे पूछा-आप यहाँ पर कितने दिन से निवास करते है? उनने बताया चालीस वर्ष से। फिर जब वह कुटी में पहुँचे तो तीसरी बार फिर उन्हें इसी प्रकार बुलाया और पूछा-आपके सब दाँत उखड़ गए या नहीं? उसने उत्तर दिया। आधे उखड़ गए। तीसरी बार उत्तर देकर वह ऊपर जाने लगा तब इतने चढ़ने उतरने से साधु की साँस फूलने लगी, पाँव काँपने लगे। वह बहुत अधिक थक गया था फिर भी उसे क्रोध तनिक भी न था। अब कबीर अपने साथी समेत घर लौटे तो साथी ने अपने प्रश्न का उत्तर पूछा। उनने कहा तुम्हारे प्रश्न के उत्तर में यह दोनों घटनायें उपस्थित है। यदि गृहस्थ बनाना हो तो ऐसा बनाना चाहिये जैसे मैं पत्नी को मैंने अपने स्नेह और सद्व्यवहार से ऐसा आज्ञाकारी बनाया है कि उसे दिन में भी दीपक जलाने की मेरी आज्ञा अनुचित नहीं मालूम पड़ती और साधु बनना हो तो ऐसा बनना चाहिए कि कोई कितना ही परेशान करे क्रोध का नाम भी न आवे।
अहंकार सत्कर्म का भी बुरा
एक बार एक स्त्री पहाड़ पर धान काट रही थी। इतने में एक दुष्ट मनुष्य उधर आया और उसके साथ दुष्टता करने पर उतारू हो गया। पहले तो स्त्री ने आत्मा रक्षा के लिए लड़ाई झगड़ा किया पर शरीर से दुर्बल होने के कारण जब उसे विपत्ति आती दिखी तो पहाड़ से नीचे कूद पड़ी। ईश्वर ने उसकी रक्षा की। उसे जरा भी चोट न लगी और प्रसन्नता पूर्वक घर चली गई। अब उसे अपने पतिव्रत का अभिमान हो गया। हर किसी से शेखी मारती कि मैं ऐसी सतवन्ती हूँ कि पहाड़ से गिरने पर भी मेरे चोट नहीं लगती। पड़ोसी इस बात पर अविश्वास करने लगे और कहा ऐसा ही है तो चल हमें आँखों के सामने पहाड़ पर से कूद कर दिखा। दूसरे दिन उस स्त्री ने सारे नगर में मुनादी करा दी कि आज मैं पहाड़ पर से कूदकर अपने सतवन्ती होने को परिचय दूँगी। सभी गाँव इकट्ठा हो गया और उसके साथ चल पड़ा। वह पहाड़ पर से कूदी तो उसकी एक टाँग टूट गई। मरते मरते मुश्किल से बची। उस असफलता पर उसे बड़ा दुःख हुआ। और दिन रात खिन्न रहने लगी। उधर से एक ज्ञानी पुरुष निकले तो स्त्री ने अपनी इस असफलता का कारण पूछा। उन्होंने बताया कि पहली बार तू धर्म की रक्षा के लिए कूदी थी, इसलिए धर्म ने तेरी रक्षा की। दूसरी बार तू अपनी प्रशंसा दिखाने और अभिमान प्रकट करने के उद्देश्य से कूदी तो उस यश कामना और अभिमान ने तेरा पैर तोड़ दिया। स्त्री की अपनी भूल मालूम हुई और उसने पश्चाताप करके अपनी मानसिक दुर्बलता को छोड़ दिया।
धर्मात्मा की परख
एक बार बड़ा भयानक दुर्भिक्ष पड़ा। लोग भूखों मरने लगे। मुसीबत के समय भी किसी का धर्म टिका हुआ है क्या, यह जाँचने के लिए स्वर्ग से तीन देवदूत पृथ्वी पर आए। उनने आपत्ति में धर्म को न त्यागने वाले सत्पुरुषों को ढूँढ़ना शुरू किया। अपनी यात्रा पूरी करके तीनों देवदूत एक स्थान पर मिले और उनने अपने अनुभव में आए धर्मात्माओं की चर्चा शुरू की। एक देवदूत ने कहा मैंने एक सेठ देखा जिसने भूखों के लिए सदावर्त लगा दिया है। हजारों व्यक्ति बिना मूल्य भोजन करते हैं। दूसरे देवदूत ने कहा मैंने इससे भी बड़े एक धर्मात्मा को देखा जिसने अपने गुजारे भर को रखकर, उसके पास जो धन दौलत थी वह सभी भूखों के लिए अर्पित कर दी। तीसरे ने कहा यह क्या है, मेरा देखा हुआ धर्मात्मा आप दोनों के अनुभवों से बड़ा है। वह व्यक्ति बहुत ही भूखा था। कई दिन से अन्न न मिलने के कारण बहुत दुर्बल हो रहा था। उसे किसी उदार मनुष्य ने दो रोटी खाने को दी। पर खाने से पहल उसे ध्यान आया कि कही मुझसे भी अधिक भूखा कोई और तो नहीं है, उसने देखा तो पास ही एक ऐसा कुत्ता पड़ा था जिसके भूख से प्राण निकल रहे थे और वह उन दो रोटियाँ की और कातरता भरी दृष्टि से देख रहा था। उस भूखे मनुष्य के हृदय में करुणा जागी। उसने अपनी दोनों रोटियाँ उस कुत्ते को दे दी और खुद भूखा का भूखा ही रह गया। तीनों देव दूत जब अपनी कथा सुना रहे थे तो दुर्भिक्ष का राक्षस चुपचाप छिपा खड़ा उनकी बातें सुन रहा था। कुत्ते की भूख मिटाने के लिए भूखा रहने वाले धर्मात्मा की कथा सुनकर उसका भी दिल पिघल गया। उसने कहा जब ऐसे धर्मात्मा इस देश में मौजूद है तो फिर यहाँ अब मेरा रहना नहीं तो सकता। दुर्भिक्ष चला गया और प्रजा के कष्ट दूर हुए। श्रेष्ठ भावनाओं के सामने विपत्तियाँ देर तक नहीं ठहर सकती।
अपकारों का विस्मरण।
महाभारत युद्ध समाप्त होने पर जब कौरव मारे गये और पाण्डवों ने विजय प्राप्त कर ली तो धृतराष्ट्र और गान्धारी उन्हीं के पास रहने लगे। पाण्डव उनका आदर पिता तुल्य ही करते थे। सारा राज काज उन्हीं से पूछकर चलाते थे और कितनी ही व्यग्रता रहने पर स्वयं उनकी सेवा सुश्रूषा करते थे ताकि वे पुत्रों के शोक को भूल जायें। कुन्ती और द्रौपदी भी गान्धारी की सेवा में लगी रहती थी। अन्तः में जब धृतराष्ट्र और गान्धारी ने शेष जीवन बन में बिताने का निश्चय किया तो कुन्ती भी अपने जेठ जिठानी की सेवा करने के लिए उनके साथ हो गई। वन जाने से पूर्व धृतराष्ट्र ने अपने पुत्रों और संबंधियों का श्राद्ध करने की इच्छा प्रकट की तो पाण्डवों से इसके लिए खजाने की इच्छा प्रकट की तो पाण्डवों ने इसके लिए खजाने का मुँह खोल दिया। धृतराष्ट्र ने जितना खर्च करना चाहा उन्हें मुक्तहस्त से करने दिया। पाण्डवों ने युद्ध काल से पूर्व की धृतराष्ट्र तथा उनके पुत्रों की दुष्टताओं की चर्चा करना तो दूर, उनका स्थान भी मन में न आने दिया। किसी के लिए अपकारों को भूल जाना ही सज्जनता है।