Magazine - Year 1961 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
गायत्री की प्राण प्रक्रिया
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
जीव धारियों के शरीर में दो वस्तु रहती है, एक पदार्थ दूसरा जीवन। हाड़, माँस, हाथ पैर शिर आदि पदार्थ है। यह स्थूल प्रकृति के प्रतीक है। विचार इच्छा भावना, प्राण, अन्तःकरण आदि जीवन है यह सूक्ष्म प्रकृति है। सूक्ष्म प्रकृति के अनुरूप स्थूल प्रकृति चलती है। भावनाओं के अनुरूप शरीर काम करता है। प्राण निकलते ही शरीर का सड़ना गलना आरम्भ हो जाता है।
यह चेतन सूक्ष्म प्रकृति जिसका स्थूल प्रकृति पर नियन्त्रण है उसे गायत्री कहते है। गायत्री एक विश्व व्यापी महान शक्ति है। ईश्वर की सृष्टि उत्पन्न करने की इच्छा ही शक्ति रूप धारण करके इस विश्व में व्याप्त हुई और उसी का नाम गायत्री पड़ा। यों गायत्री एक मंत्र भी है। जिसके चार चरणों से चारों वेद बने हैं। इस गायत्री मंत्र में वह आकर्षण भरा हुआ है कि उसके द्वारा उपासना करने से साधक उस महान विश्वव्यापी गायत्री शक्ति का एक महत्वपूर्ण अंश अपनी ओर आकर्षित करके अपने में धारण कर सकता है। जिस प्रकार जल से भरे हुए सभी गड्ढे चाहे वो समुद्र हों, चाहे छोटे पोखर, सभी जलाशय कहलाते है, इसी प्रकार विश्वव्यापी गायत्री शक्ति के सजातीय होने के कारण, घनिष्ठ संबंध रखने के कारण यह चौबीस अक्षरों वाला प्रसिद्ध वेदमंत्र भी गायत्री ही कहलाता है।
गायत्री शक्ति का दूसरा नाम है प्राणतत्व। प्राण अर्थात् जीवन। इस सृष्टि में जीवन सम्बन्धी जितना कुछ विज्ञान, रहस्य एवं विस्तार है सब प्राणतत्व से ही संबंधित है। गायत्री इस प्राणतत्व की ही एक प्रत्यक्ष प्रक्रिया है। गायत्री शब्द का अर्थ ही प्राण का उद्धार करने वाली है। गाय कहते है प्राण को, त्री कहते है त्राण करने वाली को, जिसको गाने से प्राणों का त्राण होता है वही गायत्री है। यह नामकरण इस महामंत्र के गुण और कार्य के अनुरूप ही किया गया है।
गायत्री मंत्र के द्वारा जब प्राणायाम किया जाता है तब सात व्याहृतियों का प्रयोग होता है। भूः भुवः स्वः महः जनः तपः सत्यम्। यह सातों विशेषताएँ प्राण की है। उन्हें ही लौकिक भाषा में इच्छा, प्रज्ञा, प्रेरणा, विकास, सत्, स्नेह और आनन्द कहते हैं। प्राणों के सप्त विभेदों का नामकरण भी इसी आधार पर किया गया है।
गायत्री की आरंभिक साधना अर्थ का चिन्तन एवं जप है। इस महामंत्र के 24 अक्षरों में ईश्वर के उत्तम गुणों का चिन्तन करते हुए उन्हें अपने अन्तः करण में धारण करने एवं बुद्धि को कुमार्ग से हटाकर सन्मार्ग में लगाने का विधान है। इस चिन्तन के करने से मनोभूमि में दिव्य सद्गुणों का और अभिनव विवेक का जागरण होता है। साथ ही यह भी विश्वास जमता है कि इस जीवन में सबसे बहुमूल्य वरदान सद्बुद्धि है। यही सबसे बड़ी सम्पदा है उसे प्राप्त करने के लिए हमें प्राण पण से प्रयत्नशील होना चाहिए। चिन्तन का यही तात्पर्य है। गायत्री मंत्र का अर्थ समझने और उसके अनुसार मनोभूमि को ढालने से असत् और उसके अनुसार मनोभूमि को ढालने से असत् को, अनुचित को छोड़ कर सत् एवं उचित को धारण करने की आकाँक्षा जागृत होती है। नैतिकता का, मानवता का एवं समाज की सुस्थिरता का आधार भी है।
अर्थ चिन्तन के पश्चात जप का विधान है। आधार पर गायत्री में सन्निहित भावनाओं का अन्तःकरण में स्वयमेव विकास होना आरम्भ होता है। कुमार्ग से घृणा और सन्मार्ग के लिए अभिलाषा की जागृति होती है। गुण, कर्म, स्वभाव में परिवर्तन आता है। फलस्वरूप अनेकों ऐसी साँसारिक कठिनाइयाँ सरल हो जाती है जो अपने ही दोषयुक्त गुण कर्म स्वभाव के कारण उत्पन्न होती होती तथा बढ़ती थी।
जप के द्वारा एक सीमित मात्रा में प्राण भी अपने अंदर प्रतिष्ठित होता है, जिसके बल से कितनी ही आपत्तियों को परास्त करने का लाभ मिलता है। चौबीस हजार के लघु अनुष्ठान, सवालक्ष के मध्य अनुष्ठान और चौबीस लक्ष के पूर्ण पुरश्चरण इसी उद्देश्य के लिए होते हैं। उन्हें जितने कठोर नियम प्रतिबंधों की तपश्चर्या के साथ एवं जितनी श्रद्धा विश्वासयुक्त भावना के साथ, आवश्यक विधि विधान के साथ किया जाता है उतना ही लाभ भी होता है। गायत्री साधना के उपात्मक अनेक सकाम निष्काम विधान है, साधक की श्रद्धा के अनुरूप उनके परिणाम भी उपलब्ध होते है। ऐसे विधि विधानों का वर्णन गायत्री महाविज्ञान में विस्तारपूर्वक किया गया है। वह प्रथम कक्षा की प्रक्रिया है।
इससे ऊपर की दो कक्षाऐं और रहती है। एक प्राण प्रक्रिया दूसरी ध्यान धारणा। प्राण प्रक्रिया के अंतर्गत वह साधनाएँ आती हैं जिससे जीवन का अल्प प्राण विश्व व्यापी महाप्राण से संबंधित होकर एक महान शक्ति से ऐक्य का लाभ प्राप्त करता है। जीव एक सीमित दायरे में घिरा हुआ है, उसके हिस्से में साधारणतः थोड़ा सा प्राण आया है, उसी की शक्ति से वह जीवित रहता है और अपनी अभीष्ट आकाँक्षाओं की पूर्ति के साधन जुटाता है। जिसमें जितना प्राण है उसी के आधार पर उसकी प्रगति होती है और उतनी ही सीमित सफलता उपलब्ध होती है। पर जब उसका संबंध जैसे जैसे जितना जितना महाप्राण के साथ होने लगता है तो वह सीमितता भी विस्तृत एवं विकसित होने लगती है।
ध्यान धारण का स्तर सबसे ऊपर है। गायत्री की वह सर्वोच्च साधना है। उस तीसरी भूमिका में आत्म साक्षात्कार, ब्रह्म निर्वाण, सच्चिदानन्द सुख प्राप्त होता है। समाधि अथवा निर्विकल्प मुक्ति भी उसी स्थिति के परिपाक होने पर प्राप्त होती है। प्राण लोक में प्रवेश करके इसकी स्थिति और शक्ति सके लाभान्वित होना तो प्राण प्रक्रिया द्वारा संभव है पर भूलोक से पूर्ण बन्धनमुक्त होकर ब्रह्मलोक का अधिकारी बनना ध्यान धारण की साधना से ही संभव है। जीवन मुक्त आत्मायें प्राण लोक में विचरण करती है पर उनकी मूल स्थिति ब्रह्मलोक में ही होती हैं। उस तीसरी सर्वोच्च भूमिका का प्राप्त करने के लिए अर्थ चिन्तन और जप की पहली तथा प्राण प्रक्रिया की दूसरी भूमिका में प्रवेश करना पड़ता है। प्रस्तुत लेख में प्राण प्रक्रिया की ही चर्चा की जा रही है। ध्यान धारण का विवेचन भी समयानुसार किया जावेगा।
शास्त्रों में प्राण को ईश्वर का ही स्वरूप माना गया है। शरीर में जो ईश्वर की स्थिति मानी गई है वह प्राण के रूप में ही है। आत्मा का स्वरूप भी वही है। इसलिए हमें जानना चाहिए कि प्राण तत्व कोई साधारण वस्तु नहीं वरन वह है जिसकी महिमा महान से महान बताई गई है। उपनिषद्कार का यही अभिमत है-
प्राणोबा ज्येष्ठः भष्ठश्च-
-छाँदोग्य
प्राण ही बड़ा है। प्राण ही श्रेष्ठता है।
कतम एको देव इति। प्राण इति स ब्रह्म तदित्याचक्षेते।
-वृहदारण्यक
वह एक देव कौन सा है? वह प्राण है। उसे ही ब्रह्म कहा जाता है।
‘प्राणो ब्रह्म इति ह स्माह कौषीतकिः
प्राण ही ब्रह्म है। ऐसा कौषीतकि ऋषि ने व्यक्त किया।
‘प्राणो ब्रह्म’ इति ह स्माहपैड ग्यः
पैडम्य ऋषि ने कहा- प्राण ही ब्रह्म वेदों में प्राणतत्व की महिमा का गान करते हुए उसे इस विश्व की सर्वोपरि शक्ति माना है।
प्राणों ह सूर्यश्चन्द्रमाः प्राण माहुः प्रजापतिम्।
-अथर्व
प्राण विराट है, सब का प्रेरक है। इसी से सब उसकी उपासना करते हैं। प्राण ही सूर्य, चन्द्र और प्रजापति हैं।
प्राणाय नमो यस्य सर्व मिदं वशे।
-अथर्व
जिसके आधीन यह सारा जगत है, उस प्राण को नमस्कार है। वही सब का स्वामी है, उसी में यह सारा जगत प्रतिष्ठित है।
ब्राह्मण ग्रन्थों और आरण्यकों में भी प्राण की महत्ता का गान एक स्वर से किया गया है-उसे ही विश्व का आदि निर्माण, सबमें व्यापक और पोषक माना है। जो कुछ भी हलचल इस जगत में दृष्टि गोचर होती है उसका मूल हेतु प्राण ही है। देखिएः-
सोहयमाकाशः प्राणेन वृहत्याविष्टव्धः तद्यथा यमाकाशः प्राणेन वृहत्या विष्टव्ध एवं सर्वाणि भूतानि आपि पीलिकाभ्यः प्राणेन वृहत्या
-एतरेय 2। 1। 6
प्राण ही इस विश्व को धारण करने वाला है। प्राण की शक्ति से ही यह ब्रह्माण्ड अपने स्थान पर टिका हुआ है। चींटी से लेकर हाथी तक सब प्राणी इस प्राण के ही आश्रित हैं। यदि प्राण न होता तो जो कुछ हम देखते हैं कुछ भी न दीखता।
प्राणेन सृष्टावन्तरिक्ष च वायुश्च।
-एतरेय
प्राण से अन्तरिक्ष और वायु की सृष्टि हुई। अन्तरिक्ष के कारण ही प्राणी चलते और सुनते हैं।
वायु में इसी की गन्ध है। अन्तरिक्ष और वायु अपने पिता प्राण की परिचर्या में ही लगे रहते हैं।
सर्वा ऋचः सर्वे वेदाः सर्वे घोषा एकैव
-एतरेय 2। 2। 10
जितनी ऋचाऐं हैं, जितने वेद हैं, जितने घोष हैं वे सब प्राण रूप हैं। उन्हें प्राण रूप समझ कर उसी की उपासना करनी चाहिए।
प्राण एत्र प्रज्ञात्मा। इदं शरीरं परिगृह्मं उत्थापयति।
-शाखायन आरण्यक 5। 3
इस समस्त संसार में तथा इस शरीर में जो कुछ प्रज्ञा है वह प्राण ही है। जो प्राण है वही प्राण है जो प्रज्ञा है वही प्राण है।
बालमात्रादु हेमे प्राणा असम्भिन्नस्ते
-शतपथ 8। 3। 4। 1
प्राण ही देव हैं। प्राण ही बालखिल्य हैं। क्योंकि प्राणों की सन्तान में बालमात्र का भी अन्तर नहीं है।
प्राण एव स पुरिशेते। तं पुरि शते इति पुरिशयं सन्तं प्राणं पुरुष इत्या चक्षते।
-गोपथ पू0 1। 39
शरीर रूपी पुरी में निवास करने से उसका स्वामी होने के कारण प्राण ही पुरुष कहा जाता हैं ।
शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है किः-
प्राणोहि प्रजापतिः 4। 5। 5। 13
प्राण उ वै प्रजापतिः 8। 4। 1। 4
प्राणः प्रजापतिः 6। 3। 1। 9
अर्थात्-प्राण ही प्रजापति परमेश्वर हैं।
सर्व हीदं प्राणेनावृतम् -एतरेय
यह सारा जगत प्राण से आदृत हैं।
प्रश्नोपनिषद में प्राणतत्व का अधिक विस्तारपूर्वक विवेचन किया गया है-स प्राणमसृजन प्राणाच्छद्धाँ ख वायुर्ज्योर्तिरापः
थिवीन्द्रियं मनोअन्नाद्वीर्य तपोमंत्राः
-प्रश्नोपनिषद् 6। 4
परमात्मा ने सबसे प्रथम प्राण की रचना की। इसके बाद श्रद्धा उत्पन्न की । तब आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी यह पाँच तत्व बनाये। इसके उपरान्त क्रमशः मन, इन्द्रिय, समूह, अन्न वीर्य, तप, मन्त्र और कर्मों का निर्माण हुआ। तदनन्तर विभिन्न लोक बने।
अरा इव रथ नामौ प्राणे सर्व प्रतिष्ठितम्।
प्रजापतिश्चरसि गर्भे त्वमेव प्रतिजायसे।
प्रतिष्ठिसि॥ 7॥
देवानामसिवाहतमः पितृणाँ प्रथमः स्वधा।
इन्द्रस्वत्वं प्राण तेजसा रुद्रोअसि परि रक्षिता।
यदा त्वमभिवर्षस्यथेमाः प्राण ते प्रजाः।
व्रात्यस्त्वं प्राणैकर्षिरत्त विश्स्य सत्पतिः।
या ते तनूर्वाचि प्रतिष्ठिता या श्रोत्रेयाच चक्षुषि।
प्राणस्येद वशेसवं त्रिदेव यत्प्रतिष्ठितम।
-प्रश्नोपनिषद्-2
रथ के पहिये की नाभि में पैसे अरे लगे रहते है उसी प्रकार चारों वेद, यज्ञ, ज्ञान, बल ये सब प्राण में लगे है॥ 6॥ हे प्राण आप ही प्रजापति है आप ही गर्भ में विचरते हैं। जन्म लेते हैं। प्राणी तुझमें ही मिल जाते है तुम्हारे ही साथ स्थित रहते है॥7॥
हे प्राण आप ही देवताओं को हवि पहुँचाने वाली अग्नि है। ऋषियों द्वारा अनुभूत सत्य आप ही है ॥ 8॥ हे प्राण, आप ही सर्वशक्ति सम्पन्न इन्द्र है। आप ही प्रलय काल में रुद्र रूप होकर सबका संहार करते है। आप ही सबकी रक्षा करते है। वायु, अग्नि, चन्द्र, नक्षत्र तथा सूर्य आप ही हैं॥9॥ हे प्राण आप ही मेघ बनकर वर्षा करते है। उसी में प्राणियों के जीवन निर्वाह करने वाला अग्नि पैदा होता है। उसी से प्रजा प्रसन्न होती है॥ 10॥ हे प्राण आप ही संस्कार रहित शुद्ध, सबको पवित्र करने वाले, सर्वश्रेष्ठ ऋषि है। आप ही सारे हमारे पिता है, आपसे ही हम पैदा हुए ॥11॥ हे प्राण आप ही वाणी, श्रोत्र, चक्षु, मन, अन्तःकरण आदि सबमें व्यक्त है। आप ही इन्हें कल्याण बनाइए। हमें सावधान और शान्त रखिए। हमारे शरीर से बाहर न जाइए॥ 12॥ इस संसार में तथा स्वर्ग में जो कुछ है वह सब प्राण के ही आधीन है जिस प्रकार माता अपने पुत्रों की रक्षा करती है आप हमारी रक्षा कीजिए। हमें श्री, क्रान्ति, शक्ति और प्रज्ञा प्रदान कीजिए। 13
गायत्री विद्या की दूसरी भूमिका प्राण प्रक्रिया है। उसे भली प्रकार जान लेने से संसार में जो कुछ जानने योग्य है वह सभी जान लिया जाता है और जो कुछ प्राप्त होने योग्य है सब कुछ प्राप्त हो जाता है।
उत्पत्तिमायतिं स्थानं विभुत्व चैवपचधा।
-भृग तन्त्र
प्राण कहाँ से उत्पन्न होता है? कहाँ से शरीर में आता है? कहाँ रहता है? किस प्रकार व्यापक है? उसका अध्यात्म क्या है? जो इन पाँचों बातों को जान लेता है उसकी मोक्ष हो जाती है।
इन प्रश्नों का विवेचन क्रमशः अगले अंकों में करेंगे