Magazine - Year 1961 - Version 2
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Language: HINDI
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वासना की बाघिन
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( श्री ज्ञानानंद बाजपेयी ) वासना उस बाघिन के समान है जिस पर या तो हम विजय प्राप्त करें नहीं तो वह हमारे ऊपर सवार हो जायेगी। इन्द्रियों का प्रत्येक गोलक एक महत्वपूर्ण संस्थान हैं । उनके सदुपयोग से आशाजनक भौतिक और आध्यात्मिक लाभ प्राप्त किये जा सकते हैं। पर यदि उन्हें यों ही अनियंत्रित छोड़ रखा जाय तो वे कुमार्ग पर चलने लगेंगी और फिर उस आदत के वशीभूत होकर काम करते रहने से वे इन्द्रियाँ स्वयं भी जल्दी ही शक्तिहीन हो जाती है ओर जीवन की प्रगति में भी भारी हानि पहुँचाती हैं। जीभ पर यदि काबू रहे तो वह केवल उपयोगी खाद्य पदार्थों को कामेन्द्रिय को लीजिए। यदि काम विकार से मन हटा कर ब्रह्मचर्य का महत्व समझ लिया गया है और विषय विकारों से बचकर रहने की आदत डाल ली गई है तो स्वास्थ्य ठीक रहेगा। चेहरे पर तेज बढ़ेगा, मस्तिष्क सशक्त रहेगा। मनोबल विकसित होगा, सन्तान स्वस्थ पैदा होगी आध्यात्मिक गुण बढ़ेंगे तथा समाज में विश्वास समझा जायेगा पर यदि इस और असंयम है तो शरीर की मूल्यवान धातु व्यर्थ ही निचुड़ती रहेगी, शरीर खोखला हो जायेगा, मस्तिष्क और हृदय अपना काम ठीक तरह न कर सकेंगे, प्रमेह, स्वप्नदोष आदि रोग घेर लेंगे। सन्तान दुर्बल होगी, स्त्री का स्वास्थ्य खराब होगा, कुमार्ग पर कदम रखा तो सर्वत्र निन्दा होगी, व्यक्तित्व गिरेगा, मानसिक दुर्बलता रहने से भय और चिन्ता सताती रहेगी और जीवनी शक्ति के अभाव में मामूली-सा रोग भी प्राणघातक रूप धारण कर लेगा। ऐसी परिस्थितियों में आध्यात्मिक गुणों का विकसित होना और कोई महान पुरुषार्थ कर सकना तो बहुत ही कठिन है। असंयमी व्यक्ति के काम संस्थान भी रुग्ण ही रहते हैं। नपुंसकता, ध्वजभग बहुमूत्र, जलन, फुंसी आदि के स्थानीय कष्ट भी बने रहते हैं।
पेट को कब्रिस्तान क्यों बनाऊँ ?
वश में की हुई और स्वतंत्र रखी हुई कामेन्द्रिय में इतना ही अन्तर हे जितना गाय और बाघिन में। एक हमारा हित साधन करती है दूसरी प्राण घातक संकट उपस्थित कर देती है।