Magazine - Year 1968 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
कामनाओं को नियंत्रित और मर्यादित रखें
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
इच्छा का अस्तित्व अनादि है। और शायद यह सदा-सर्वदा अपना अस्तित्व बनाये भी रहेगी। इच्छा का अभाव विकास और उन्नति का स्थगन है। संसार की सारी सक्रियता, मनुष्य की समग्र प्रेरणा इच्छा शक्ति में ही निहित है, उसी पर निर्भर है। जहाँ इच्छा नहीं, वहाँ जड़ता, शून्यता और निष्क्रियता के अतिरिक्त कुछ हो सकता है- ऐसी आशा नहीं की जा सकती।
इच्छायें मनुष्य में जीवन का चिन्ह हैं। जीवित मनुष्य ही तो नित्य नवीन इच्छायें किया करते हैं। कभी वह स्वास्थ्य की, कभी धन-सम्पत्ति की, कभी यश-प्रतिष्ठा की, तो कभी पुत्र-कलत्र आदि की। अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष- चारों पदार्थ भी तो मनुष्य की उदात्त एवं परिष्कृत इच्छाओं की ही तो अभिव्यक्ति करते हैं। इन्हें अथवा इनमें से किन्हीं को पाने के लिये मनुष्य इच्छा के द्वारा ही तो परिचालित होता है। जैसे ही कोई इच्छा मनुष्य के मानस में उदय हुई और उसने स्थिरता की स्थिति प्राप्त की वैसे ही मनुष्य उसकी पूर्ति के लिये क्रियाशील हो उठता है। इच्छायें मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति है, इस सत्य से इन्कार नहीं किया जा सकता।
यह सारा संसार इच्छाओं का ही प्रतिफलन है। परम पिता परमात्मा के हृदय इस माँगलिक इच्छा का स्फुरण हुआ- ‘‘एकोऽहं बहुस्याम” -और यह विशाल, विस्तृत और जड़-चेतनमय त्रिविध संसार शून्य से बदल कर साकार रूप में तत्काल मूर्तिमान हो उठा। संसार परमात्मा की इच्छा से उत्पन्न हुआ। जीवों का जन्म आदि इच्छा के आधार पर ही हुआ है। इसलिये उसका भी इच्छाओं का कर्ता होना स्वाभाविक ही है।
मनुष्य की इच्छायें मात्र स्वाभाविक प्रतिक्रिया ही नहीं साँसारिक व्यापार के लिये आवश्यक उपादान के रूप में भी आवश्यक हैं। मनुष्य यदि इच्छा न करे और उसके हृदय से इनके स्फुरण का सर्वथा तिरोधान हो जाये तो निरन्तर गति से आगे की ओर बढ़ता हुआ सृष्टि का यान जहाँ का तहाँ रुक कर ठहर जाये। सारे सृष्टि-क्रम में एक निष्चेष्टता, निष्क्रियता एवं जड़ता आ जाये। जिसका परिणाम जिस तरह रुक जाने से पानी सड़ने लगता है, हवा विषाक्त हो जाती है और यंत्र बेकार होकर क्षय होने लगते हैं, उसी प्रकार विनाश एवं व्यर्थता में सामने आने लगता है।
गति एवं प्रवाह के आधार पर ही संसार में सक्रियता एवं प्रखरता, उन्नति और विकास बने हुए हैं। ग्रह नक्षत्रों की गति रुक जाय तो प्रलय की सम्भावना उठ खड़ी हो। प्रकृति की गति रुक जाये तो वनस्पति सूख कर काष्ठ हो जाये। जीवों की गति रुक जाये तो शरीर मृतिका के रूप में बदल जाये। गति ही संसार का जीवन है और गति का आधार इच्छा है। इस प्रकार इस न्याय के आधार पर इच्छाओं की आवश्यकताओं से किसी प्रकार भी इनकार नहीं किया जा सकता।
किन्तु हर आवश्यकता, हर स्वाभाविकता और हर गतिविधि की एक समुचित सीमा एवं दिशा भी निर्धारित है। उसका व्यतिक्रम करने से लाभ के स्थान पर हानि की ही सम्भावना रहती है। भोजन मनुष्य की आवश्यकता है। जिसकी पूर्ति स्वास्थ्य एवं जीवन के लिये हितकर है। किंतु इसी आवश्यकता को सीमा के बाहर निकाल दिया जाये तो वही भोजन स्वास्थ्य एवं जीवन के लिये संकट उत्पन्न कर देता है। संसार, मनुष्य और ग्रह-नक्षत्रों में गति अपेक्षित है। किंतु यदि उनकी गति अपनी दिशा और सीमा का अतिक्रमण कर अनियंत्रित हो जाये तो क्या कुछ ही समय में सुन्दर और चहल-पहल से मुखरित संसार नष्ट-भ्रष्ट होकर श्मशान के रूप में न बदल जाये? मर्यादा का उल्लंघन विनाश एवं विध्वंस को खुला निमन्त्रण है।
इसी प्रकार आवश्यकता एवं गति की दिशा की उपयुक्तता और अनुपयुक्तता भी लाभ-हानि का अनिवार्य कारण हैं। अनुपयुक्त भोजन और जीवन की गति की दिशा मनुष्य का संयोग उन्हीं परिणामों से करते हैं, जिनकी गणना विनाशक फलों में की जाती है।
इच्छायें स्वाभाविक भी हैं और आवश्यक भी, किन्तु इनमें औचित्य का होना उससे भी अधिक आवश्यक है। मनुष्य को, जहाँ उचित इच्छायें, सुख-शांति, संतोष, उन्नति, प्रगति और सफलता की ओर ले जाती हैं, वहाँ अनुचित इच्छायें उसे क्लेश पूर्ण परिस्थितियों में डाल देती हैं। इच्छाओं का अनौचित्य अथवा उनकी अति मनुष्य जीवन को जिस अशांति एवं शोक-संतापों के हवाले कर देती है उतना उनका अभाव दुर्दशादायक नहीं होता। यदि इच्छा रहित मनुष्य जड़ की भांति यथास्थान पड़ा रहता है, तो अनुचित एवं अनियंत्रित इच्छायें उसे असंतोष की आग में ढकेल देती हैं।
आज ही नहीं, मनुष्य आदि काल से ही, सुख की कामना करता आ रहा है, और उसके लिये प्रयत्न भी। वह जो भी, शारीरिक, मानसिक और बौद्धिक काम करता है, जो भी प्रबन्ध, व्यवस्था और उपार्जन करता है, खेती बाड़ी, व्यापार, व्यवसाय, घर-गृहस्थी, पुत्र-कलत्र आदिक डडडड भी काम और संग्रह करता है, एक मात्र सुख की कामना से प्रेरित होकर। इस एक कामना के अतिरिक्त डडडड सब क्रिया-कलाप के पीछे और कोई भी विशेष उद्देश्य नहीं रहता। तथापि वह अपने इस उद्देश्य-सुख की कामना पूर्ण करने में अब सफल न हो सका है। आदिम युग की डडडड से लेकर आज वैज्ञानिक युग तक वह अपनी इस डडडड की पूर्ति के लिये आकाश-पाताल एक करता आया डडडड उन्नति, विकास एवं अन्वेषण के क्रम को उसने एक डडडड के लिए भी अवरुद्ध न होने दिया। किन्तु वह अपनी वाँछित सुख-शांति को अब तक भी न पा सका है। डडडड डडडड उपलब्धियाँ दिन-दिन विपरीत दिशा डडडड विपरीत परिणामों में फलीभूत होती दिखाई दे डडडड हैं।
इस सब असफलता एवं अशाँति का और कुछ भी डडडड केवल एक ही प्रमुख कारण है और वह हैं- द्रौपदी डडडड की तरह दिन-दिन बढ़ता हुआ कामनाओं का डडडड एवं उच्छृंखलन। उसकी सुन्दर सुख-कामना, डडडड लिप्सा में बदल गई है। जब मनुष्य की लिप्सा और स्पृहा अपनी सीमा लाँघ कर अनियंत्रित हो जाती है, तभी आज जैसे असंतोष के समान अशुभ परिणामों की वृद्धि हो जाती है। मनुष्य एक उपलब्धि के बाद दूसरी और दूसरी के बाद तीसरी पाने की कामना को इतना बढ़ा लेता है कि वे शीघ्र ही असंतोष को जन्म दे देती हैं। कामनाओं की अति अथवा उनमें असन्तोष का दोष दुःख का बहुत बड़ा कारण है।
समुचित सुख-सौख्य पाने के लिये मनुष्य को अपने मनोरथों की एक सीमा रखनी ही चाहिये। अन्यथा अनियंत्रित मनोकामनाओं का रथ दौड़ता-दौड़ता किसी खड्ड अथवा खाई में ही शरण लेगा और जीवन के अशाँत अन्त में ही विश्राम पायेगा। अनियंत्रित और असंतुष्ट कामनायें अपनी अशिव प्रेरणा से अच्छे-खासे मनुष्य को गलत कामों की ओर लगा देती है। भ्रष्टाचार, मिलावट, कालाबाजार, रिश्वत-खोरी, घूंस, चोरी, डकैती, ठगी और शोषण का पाप धन की अनियंत्रित कामना का ही तो परिणाम है। अथवा ईश्वर के अंश आत्मवान, लोक-परलोक के अधिकारी मनुष्य को इन सब कुकृत्यों से क्या प्रयोजन अथवा लगाव हो सकता है?
भोग सुख की अतिरेकता ही तो मनुष्य को बहु-विवाह, व्यभिचार, अमर्यादा और उच्छृंखल के पाप के लिये प्रेरित करता है। जिसका फल रोग, शोक, अशांति, निन्दा, कलंक और अपयश के रूप में सामने आता है। स्वामी रामतीर्थ ने ठीक ही कहा है कि “मनुष्य के भय और चिन्ताओं का कारण उसकी अनुचित एवं अनियंत्रित इच्छायें ही तो हैं। अन्यथा इस उज्ज्वल जीवन के पास इन दुःखों का क्या कारण?”
जहाँ मनुष्यों का यह अधिकार है कि वह इच्छा करे और उसे पूरा करने का प्रयत्न करे- वहाँ उसका यह कर्तव्य भी है कि उसे एक सीमा तक पाकर सन्तोष करे और फिर उसकी कामना करे, जो उसके पास नहीं हैं। केवल एक ही कामना, धन और भोग सुख के लिए जीवन समर्पित कर देना, इनको अति एवं अनौचित्य पर पहुँचा देना किसी प्रकार भी न्याय-संगत नहीं है। धन, भोजन, वस्त्र, निवास, वाहन और जीवन के अन्य साधन संसार में सभी को समान रूप से आवश्यक हैं। यदि कोई मनुष्य अपने प्रयत्नों से वे सब-के-सब, दिन-पर-दिन अपने पास ही संग्रह करता जाये, तब तो यह पुरुषार्थ का दुरुपयोग ही माना जायेगा। समुचित इच्छा का प्रयत्न नहीं यह लिप्सा, तस्करता और शोषण है, जो मनुष्य को किसी प्रकार भी शोभा नहीं देता। इससे समाज में अशांति, असन्तोष और अव्यवस्था के साथ विषमता तो फैलती ही है, अपने लिये भी अशांति, असन्तोष बन्धन और वेदना की परिस्थितियां उत्पन्न होती रहती हैं।
मनुष्य के लिए धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष चार पुरुषार्थ बतलाये गये हैं। इसमें यदि केवल अर्थ और काम में ही संलग्न रह कर जीवन की इतिश्री कर दी गई तो वह जीवन सर्वथा असफल ही माना जायेगा। जहाँ अर्थ और काम की इच्छा को प्रश्रय दिया गया है, वहाँ धर्म और मोक्ष की कामना को भी प्रबुद्ध करना बहुत आवश्यक है। वास्तविकता तो यह कि यह चारों पुरुषार्थ काई अलग-अलग उपलब्धियाँ नहीं हैं। सच्चा पुरुषार्थ तो इसमें केवल एक मोक्ष ही है। बाकी के तीनों पुरुषार्थ तो उसके सहायक पुरुषार्थ ही हैं। पूर्व के तीनों पुरुषार्थों की गति उस दिशा में दी जाये दिशा में अन्तिम पुरुषार्थ मोक्ष की संभावना सरल और उपलब्ध हो सके। क्रम से चलते हुए अन्तिम पुरुषार्थ कर पहुँचने पर उसके लिये मनुष्य जितना भी परिश्रम, प्रयत्न और साधना कर सके करे। जितना भी आत्म-लाभ हो सके प्राप्त करे, मोक्ष के लिये जितनी भी कामना कर सके करे। केवल यही एक ऐसा क्षेत्र है, जहाँ पर मनुष्य अपनी कामना की बाग ढीली कर जितनी दूर तक दौड़ सके दौड़े क्योंकि उस दिशा में प्रकाश और सुख-शांति के अतिरिक्त अन्य कोई भी प्रतिकूल सम्भावना नहीं होती।
अनियंत्रित कामनाओं की तरह ही मनुष्य के लिए निष्क्रिय कामनाएँ भी एक अभिशाप ही हैं। कामना करने को तो कोई विद्यार्थी यह कामना कर लेता है कि वह एम. ए. पास हो जाये, किन्तु उसके लिए प्रयत्न नहीं करता, केवल मनो-मन्दिर में कामना के साथ खेल, खेल कर मनोरंजन करता रहता है। तो उसकी वह कामना कदापि पूरी नहीं हो सकती।
कामना के साथ प्रयत्न का किया जाना बहुत आवश्यक है। केवल कामना करने से न तो कोई विशेषता पा सकता है और न धन-दौलत। बिना प्रयत्न के साधारण भोजन की इच्छा तक पूरी नहीं हो सकती तब अन्य उपलब्धियों की पूर्ति की बात ही क्या हो सकती है? निष्क्रिय कामनाओं का दोषी व्यक्ति कामनाओं का जड़ पुतला बन कर न केवल इस जीवन में ही अतृप्त और अशाँत रहता है, अपने अगले जन्म में भी दीन और दरिद्र बनने की तैयारी कर लेता है।
शिथिल एवं अधूरी कामनाएँ भी अशांति का एक कारण होती हैं। कामनाओं में जब तक दृढ़ता, समायिकता और सक्रियता का समावेश नहीं होता, वे एक रोग की तरह मनुष्य के पीछे अकारण ही लगी रहती है। शिथिल कामना वाला व्यक्ति थोड़ा-सा प्रयत्न करके बड़ी उपलब्धि चाहने लगता है। और जब उसको नहीं पा सकता तो समाज अथवा परिस्थितियों को दोष देकर जीवन भर असफलता के साथ बँधा रहता है।
अपनी स्थिति के परे की कामनाएँ करना अपने को एक बड़ा दण्ड देने के बराबर है। मोटा-सा सिद्धान्त है कि “अपनी शक्ति के बाहर की गई कामनाएँ कभी पूर्ण नहीं हो सकतीं और अपूर्ण कामनाएँ हृदय में काँटे की तरह चुभा करती हैं।” मनुष्य को अपने अनुरूप, अपने साधनों और शक्तियों के अनुसार ही कामना करते हुए अपने पूरे पुरुषार्थ को उस पर लगा देना चाहिये। इस प्रकार एक सिद्धि के बाद दूसरी सिद्धि के लिए पूर्व सिद्धि और उपलब्धियों का समावेश कर आगे प्रयत्न करते रहना चाहिये। इस प्रकार एक दिन वह कोई बड़ी कामना की पूर्ति भी कर लेगा।
निःसन्देह कामनाएँ मनुष्य का स्वभाव ही नहीं आवश्यकता भी है। किन्तु उनका औचित्य, नियंत्रण, दृढ़ और प्रयत्नपूर्ण होना भी वाँछनीय है। तभी यह जीवन में अपनी पूर्ति के साथ सुख-शाँति का अनुभव दे सकती हैं अन्यथा अनियंत्रित एवं अनुपयुक्त कामनाओं से बड़ा शत्रु मानव-जीवन की सुख-शान्ति के लिए दूसरों कोई नहीं है।