Magazine - Year 1968 - Version 2
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Language: HINDI
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अध्यात्म-समस्त समस्याओं का एकमात्र हल
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तन, मन और धन लौकिक जीवन की तीन विभूतियाँ मानी गई हैं। संसार के सुखों का आधार भी इन्हीं को कहा गया है। और शरीर स्वस्थ रहे, मन प्रसन्न रहे और अभाव का आक्रमण न हो तो फिर मनुष्य का सुखी रहना असम्भाव्य नहीं है। यद्यपि इनके संयोग से मिलने वाला सुख चिरस्थायी नहीं होता, तथापि जीवन में उसका भी एक महत्व और स्थान है। उसे हेय और नगण्य नहीं कहा जा सकता है।
लौकिक सुख हेय और नगण्य तब ही माना जाता है, जब इसकी अधिक लिप्सा मनुष्य के आत्मिक सुख में बाधा डालती है। वैसे सुखपूर्वक जीवन-यापन करना बुरा नहीं। संसार में जीव आया ही है सुख की खोज करने और उसको प्राप्त करने। किन्तु वह सुख मात्र साँसारिक नहीं है। वह शाश्वत सुख है जो आत्मा परमात्मा के साक्षात्कार से प्राप्त होता है। मनुष्य को लौकिक सुखों तक ही सीमित न रह जाना चाहिये। उसे चाहिये कि वह उनसे ऊपर उठ कर अलौकिक और आत्मिक सुख पाने का प्रयत्न करना चाहिये। हाँ, लौकिक सुख-सुविधा को वह उस उद्देश्य के लिए सोपान बना सकता है।
जो मनुष्य सुख से सर्वथा वंचित है, हर समय दुःखों क्लेशों और शोक-संतापों से घिरा रहता है, वह आत्मिक प्रगति कदाचित ही कर पाता है। कातर और दुःखी व्यक्ति साधारण प्रगति तक नहीं कर पाता, तब आत्मिक उन्नति तो और भी कठिन है। आत्मिक प्रगति के लिए जिस अखण्ड साधना की आवश्यकता है वह दुःखी अवस्था में नहीं की जा सकती। साँसारिक समस्याओं के समाधान के साथ ही आत्मिक साधना सम्भव है। समस्याओं के रहते और उनकी हठपूर्वक उपेक्षा करने से जो परिस्थितियाँ उत्पन्न होंगी, वे आत्मिक साधना में अवश्य अवरोध बन कर खड़ी होगी। साँसारिक समस्याओं की भी अपनी एक सत्ता होती है। जिसकी अवज्ञा कर सकना असम्भव नहीं तो सरल भी नहीं है।
संसार में समस्याओं की कमी नहीं। किसी के सम्मुख शारीरिक समस्या होती है, तो किसी के सम्मुख मानसिक और किसी को आर्थिक समस्या घेरे रहती है। किसी-न-किसी प्रकार की समस्या प्रायः सबके पीछे लगी रहती है। समस्याओं से सर्वथा रहित कदाचित ही कोई व्यक्ति रहता है। कोई यदि शरीर से दुःखी है, उसे रोग, निर्बलता, बुढ़ापा घेरे है तो कोई मन से उद्विग्न है। कहीं सम्मान में धक्का लग गया है। सन्तान नालायक निकल गई है और कोई विरोध उत्पन्न हो गया है। बहुत से जीविका, व्यय और व्यापार व्यवसाय में चढ़ाव उतार के कारण आर्थिक संकट में फँसे हैं। इस प्रकार शारीरिक, मानसिक और आर्थिक समस्याओं में से कोई-न-कोई समस्या सबके सामने खड़ी ही रहती है। इन समस्याओं का समाधान किए बिना उन्नति और प्रगति का मार्ग पा लेना बहुत कठिन है।
लोग अपनी समस्याओं को यथासाध्य सुलझाने का भी यत्न करते हैं। अर्थ संकट आ जाता है, तो सब कुछ भूल कर उसके सुलझाने में लग जाते हैं। शारीरिक समस्या खड़ी हो जाती है, तो उसका उपाय करने लगते हैं और जब कोई मानसिक उलझन में पड़ जाते हैं, तो उसका उपचार सोचते हैं। पर होता यह है कि एक समस्या सुलझाने में लगे रहने से संसार की दूसरी समस्याओं को अवसर मिल जाता है और वे अपना प्रभाव बढ़ा लेती हैं। जैसे शारीरिक समस्या में संलग्न होने पर आर्थिक संकट उठ खड़ा होता है और अर्थ संकट की ओर ध्यान देने पर मानसिक उद्विग्नता आ घेरती है।
इस प्रकार एक के बाद एक, कोई-न-कोई समस्या सामने आती रहती है और मनुष्य का जीवन उनको सुलझाने में ही तबाह हो जाता है, वास्तविक लक्ष्य के लिए कुछ नहीं कर पाता। यदि कोई ऐसा उपाय निकल आये जिसको प्रयोग में लाने पर सारी समस्याएँ एक साथ शमन होती रहें तभी कुछ काम बन सकता है। नहीं तो जीवन इसी प्रकार के ऊहा-पोह में व्यतीत हो सकता है।
सारी समस्याओं का एक सामान्य हल है अध्यात्मवाद। यदि शारीरिक, मानसिक और आर्थिक सभी क्षेत्रों में अध्यात्मवाद का समावेश कर लिया जाये और अपना दृष्टिकोण सर्वथा आध्यात्मिक बना लिया जाये तो सारी समस्याओं का समाधान साथ-साथ होता चले और आत्मिक प्रगति के लिये अवसर एवं अवकाश भी मिलता रहे। विषयों में सर्वथा भौतिक दृष्टिकोण रखने से ही सारी समस्याओं का सूत्रपात होता है। दृष्टिकोण में वाँछित परिवर्तन लाते ही सब काम बनने लगेंगे।
अध्यात्मवाद का व्यावहारिक स्वरूप है संतुलन, व्यवस्था एवं औचित्य। शारीरिक समस्या तब पैदा होती है, जब शरीर को भोग साधन समझ कर बरता जाता है। आहार, विहार और रहन-सहन को विलासपरक बना लिया जाता है। इसी अनौचित्य एवं अनियमितता से रोग उत्पन्न होने लगते हैं और स्वास्थ समाप्त हो जाता है। सरदी, जुकाम, सिर दर्द, रक्त-चाप, हृदय शूल, अजीर्ण और यहाँ तक कि कभी-कभी असाध्य राज-रोगों का शिकार बनना पड़ता है। ऐसी दशा में एक ही शारीरिक समस्या ही मनुष्य की सारी जिन्दगी अपने अर्थ लगा लेती है, तब वह कैसे परमात्मा का सामीप्य प्राप्त करने के लिये साधना कर सकता है और कब आत्मा का चिन्तन कर सकता है? रोगी रहने वाला मनुष्य किसी लौकिक और पारलौकिक प्रगति के लिए एक प्रकार से असमर्थ ही बन जाता है।
यह शारीरिक समस्या बड़ी आसानी से हल हो सकती है, यदि इसके विषय में दृष्टिकोण को आध्यात्मिक बना लिया जाय। पवित्रता अध्यात्मवाद का पहला लक्षण है। शरीर को भगवान का मन्दिर समझ कर उसे सर्वथा पवित्र और स्वच्छ रक्खा जाय, आत्म-संयम और नियमितता द्वारा शरीर-धर्म का दृढ़तापूर्वक पालन करते रहा जाय तो शारीरिक संकट की सम्भावना ही न रहे। वह सदा स्वस्थ और समर्थ बना रहे। अपने अनियम और असंयम द्वारा भगवान के इस पवित्र मन्दिर को ध्वंस करने का अपराध भयानक पाप का कारण बनता है। शरीर भगवान का मन्दिर हैं।
यह बात न तो कभी भूलनी चाहिये और न तत्विरोधी आचरण ही करना चाहिये। शरीर में आत्मा का निवास रहता है और आत्मा परमात्मा का ही अंश होता है, इस लिये शरीर भगवान का मन्दिर ही है। जो व्यक्ति भगवान के इस पवित्र मन्दिर का समुचित संरक्षण एवं सेवा करता रहता है, उसके सामने शारीरिक समस्याएँ खड़ी नहीं होती। यदि संयोगवश खड़ी भी हो जाती हैं, तो उनका शीघ्र ही समाधान हो जाता है। शरीर के विषय में आध्यात्मिक दृष्टिकोण रखने का सुफल आरोग्य होता है। जिसने नियमन एवं आत्म-संयम द्वारा आरोग्य की प्राप्ति कर ली उसने माना आत्मिक लक्ष्य की ओर एक मंजिल पार कर ली।
स्वास्थ्य और आरोग्य का सम्बन्ध पौष्टिक पदार्थों से जोड़ना भूल है। अधिक या अधिक पुष्टिकर भोजन करने से न तो स्वास्थ्य बनता है और न आरोग्य की उपलब्धि होती है। इसका आधार है आत्म-संयम एवं नियमितता। इसके प्रमाण में हमारे सामने ऋषि-मुनियों का अनुकरणीय उदाहरण मौजूद है। खाद्य के नाम पर वे कतिपय फल और कन्द-मूल आदि का ही प्रयोग किया करते थे। तथापि सदा स्वस्थ निरोग और दीर्घजीवी बने रहते थे। उनके शरीर बड़े ही सुडौल, सुन्दर और सामर्थ्यवान होते थे। इसी क्षमता के बल पर ही तो वे बड़ी-बड़ी तपस्याएँ और साधनाएं कर सकने में सफल रहा करते थे। यदि हम शरीर के विषय में आत्म-संयम, नियमितता और युक्ताहार, बिहार का आध्यात्मिक दृष्टिकोण व्यवहार में लाते रहें तो शारीरिक समस्याओं का एक साथ समाधान हो जाय।
अब मन के क्षेत्र में आइये। मनुष्य का मन शरीर में भी अधिक शक्तिशाली साधन है। इसके निर्द्वन्द्व रहने पर मनुष्य आश्चर्यजनक उन्नति कर सकता है। किन्तु खेद है कि आज लोगों की मनोभूमियाँ बुरी तरह विकार-ग्रस्त बनी हुई हैं। चिन्ता, भय, निराशा, क्षोभ, लोभ और आवेगों का भूकम्प उसे अस्त-व्यस्त बनाये रहता है। स्थिरता, प्रसन्नता और सदाशयता का कोई लक्षण दृष्टि-गोचर नहीं होता। ईर्ष्या-द्वेष और रोष-क्रोध की नष्टकारी चिताएं जलती और जलाती ही रहती हैं।
ऐसे कितने लोग मिलेंगे जिनकी मनोभूमि इन प्रकोपों से सुरक्षित हो और जिसमें आत्म-गौरव, धर्मपरायणता और कर्तव्य-पालन की सद्भावनायें फलती-फूलती हों? अन्यथा लोग मानसिक विकारों, आवेगों और असद्विचारों के अर्ध विक्षिप्त से बने घूम रहे हैं। इस प्रचण्ड मानसिक समस्या का भी अध्यात्मवाद से ही समाधान हो सकता है। लोग मानसिक पवित्रता, उदार भावनाओं और मनःशांति का महत्व समझें और निःस्वार्थ, निर्लोभ एवं निर्विकारता द्वारा उसको सुरक्षित रखने का प्रयत्न करते चलें तो मानसिक विकास के क्षेत्र में बहुत दूर तक आगे बढ़ सकते हैं।
क्या करना चाहिए और क्या नहीं करना चाहिये, किस प्रकार करना चाहिये और कौन-सी गतिविधि नहीं अपनानी चाहिये इस बात का उचित न्याय सामने रख कर चलने वाले आध्यात्मिक लोग बहुधा मानसिक समस्याओं से सुरक्षित बने रहते हैं। अपनी उन्नति करते चलें और दूसरों की उन्नति में सहायक होते चलें; अपनी स्थिति और दूसरों की स्थिति के बीच अन्तर से न तो ईर्ष्यालु बनें और न हीन भावी। इसी प्रकार असफलता में निराशा को और सफलता में अभिमान को पास न आने दें। मनःशांति का महत्व समझते हुए प्रतिकूल परिस्थितियों और विरोधों में भी उद्विग्न और क्रुद्ध न हों। सहिष्णुता, सहनशीलता, क्षमा, दया और प्रेम का प्रश्रय लेते चलें। मनःक्षेत्र में इस आध्यात्मिक दृष्टिकोण का समावेश कर लेने पर मानसिक समस्याओं के उत्पन्न होने का कोई प्रश्न ही नहीं रह जाता।
आर्थिक क्षेत्र में तो आध्यात्मिक दृष्टिकोण का महत्व और भी अधिक है। इस क्षेत्र में ही लोग अधिक अनात्मिक और अनियमित हो जाया करते हैं। आर्थिक क्षेत्र के आध्यात्मिक सिद्धाँत हैं- मितव्ययिता, संतोष, निरालस्य और ईमानदारी। मितव्ययी व्यक्ति को आर्थिक संकट कभी नहीं सताता। ऐसा व्यक्ति जीवन की अनिवार्य आवश्कताओं के सिवाय कृत्रिमता को कभी भी प्रश्रय नहीं देता। विलास, भोग और अनावश्यक सुख सुविधा के साधनों से उसका कोई लगाव नहीं होता और न वह प्रदर्शन की ओछी वृत्ति को ही अपनाया करता है। संतोष आर्थिक क्षेत्र में ईर्ष्या-द्वेष, प्रतिस्पर्धा, लोभ और स्वार्थपरता के पापों से बचा रहता है। आर्थिक क्षेत्र में आध्यात्मिक दृष्टिकोण रखने वाला व्यक्ति निरालस्य होकर भरपूर परिश्रम करता है। ईमानदारी के पारिश्रमिक द्वारा मितव्ययिता और संतोषपूर्वक जीवन-यापन करता हुआ सदा प्रसन्न रहता है। न तो उसे स्वार्थ की अधिकता सताती है और ईर्ष्या जलाती है और नाहीं ऐसे व्यक्ति के विरोध में कोई अन्य लोग ही खड़े होते हैं।
इस प्रकार तन-मन और धन के शक्तिशाली साधनों को उपयोगी बना कर व्यवहार जगत और आर्थिक जगत में समान रूप से आध्यात्मिक दृष्टिकोण रख कर चला जाय तो मनुष्य की सारी समस्याओं का एक साथ ही समाधान हो जाय और तब वह लौकिक और आत्मिक दोनों जीवनों में समान रूप से प्रगति कर सकता है।