Magazine - Year 1968 - Version 2
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Language: HINDI
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साहसी मंगो
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राजगढ़ की खबर है। पाँच ग्रामीण स्त्रियां घास काट रही थीं। बरसात के दिन थे। बड़ी-बड़ी घास खड़ी थी। पता चला नहीं। एकाएक एक स्त्री के हाथ में घास के साथ साँप आ गया संयोग था कि वह बिल्कुल फन के पास पकड़ में आया, इसलिए काट तो नहीं सकता था, पर उसकी भयंकरता देखते ही स्त्री बुरी तरह चिल्लाई। पास में घास काट रही स्त्रियों में से एक दौड़ी। पास पहुँची ही थी कि साँप ने पूँछ की तरफ से उसे भी पकड़ लिया उसके पाँव में कुण्डली मार ली।
बाकी सब यह दृश्य देखते ही भाग गईं। उनमें से मंगो शेष रही। उसने कहा- ‘‘बहन, घबराने से काम न चलेगा, तुम साहस करो और इसे मजबूती से पकड़े रहो मैं हैंसिये के वार से उसे काटे डालती हूँ।’’ वह स्त्री बुरी तरह डरी हुई थी, उसने कहा- ‘‘बहन, अगर मेरे हाथ से साँप छूटा तो खाये बिना न मानेगा।” अब क्या किया जाय, उसने सोचा साँप पूँछ से तो काटेगा नहीं इसलिए शक्ति लगा कर दूसरी स्त्री के पाँव से उसकी कुण्डली छुड़ाई पर अब उसने मंगो के पाँव में ही कुण्डली मार ली। दूसरी का छूटना था कि वह भी भाग ली। अब दो ही बचीं और साँप बुरी तरह फुसकार रहा था।
मंगो न कहा- ‘‘घबरा मत बहन अभी मैं हूँ। साँप को काटने न दूँगी।” उसने उस स्त्री के हाथ से थोड़ा ऊपर अपना हाथ बढ़ाकर साँप का फन अपने हाथ में पकड़ लिया। अब साँप के क्रोध का ठिकाना न था। पहली स्त्री किसी तरह तो बजाय इसके कि उसे बचाती खुद भी वहाँ से भाग गई। बेचारी मंगो अकेली रह गई। अब साँप को कैसे मारा जाय, यह प्रश्न और भी गम्भीर हो गया।
मंगो ने साहस से काम लिया। पास ही नदी थी उसमें पत्थर पड़े थे। मंगो वहीं पहुँची और अन्त में पत्थर से रगड़-रगड़ कर साँप की दम निकाल दी। अब तक आठ-दस ग्रामीण वहाँ पहुँच चुके थे। मंगो के इस साहसपूर्ण करतब को देख कर उनके मुख से “धन्य-धन्य” ही निकला। बाद में तत्कालीन रायसाहब लीलाधर ने महाराज वीरेन्द्र सिंह जी से इस वीरता के लिए मंगो को 101) रुपये का पुरस्कार दिलाया।