Magazine - Year 1968 - Version 2
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Language: HINDI
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गायत्री उपासना से प्राणशक्ति का अभिवर्धन
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मनुष्य एक प्राणी है। प्राणी उसे कहते हैं- जिसमें प्राण हों। प्राण निकल जाने पर शरीर निर्जीव होकर सड़ गल जाता है, इसलिए मृत्यु होते ही उसे जलाने, गाड़ने, बहाने आदि का प्रबन्ध करना पड़ता है। मनुष्येत्तर जीवों के मरते ही उनके शरीर को समाप्त करने के लिए श्रृंगाल, कुत्ते आदि पशु, गिद्ध, कौए, चील आदि पक्षी और चींटे, गिड़ार आदि नष्ट करने के लिए जुट पड़ते हैं। प्राण निकलते ही प्राणी का भौतिक अस्तित्व समाप्त हो जाता है। मनुष्य अथवा अन्य जीव-जन्तुओं के जीवित रहने और विविध क्रिया-कलाप करते रहने का सारा श्रेय इस प्राण-शक्ति को ही है। जिसमें यह तत्व जितना न्यूनाधिक होता है, उसी अनुपात से उसकी सशक्तता, समर्थता, प्रतिभा एवं स्थिति में कमीवेशी दिखाई पड़ती है। मनुष्य अन्य प्राणियों से श्रेष्ठ एवं समर्थ इसीलिये है कि उसमें प्राण तत्व का दूसरों की अपेक्षा बाहुल्य रहता है।
सजीवता, प्रफुल्लता, स्फूर्ति, सक्रियता, जैसी शारीरिक विशेषताएं तथा मनस्विता, तेजस्विता, प्रतिभा, चतुरता जैसी मानसिक विभूतियाँ और कुछ नहीं प्राण-रूपी सूर्य की किरणें, प्राण-रूपी समुद्र की लहरें हैं। इतना ही नहीं अध्यात्मिक स्तर पर पाई जाने वाली, सहृदयता करुणा, कर्तव्य निष्ठा, संयम-शीलता, तितीक्षा, श्रद्धा, सद्भावना, समस्वरता जैसी महानताएँ भी इस प्राण शक्ति की ही उपलब्धियाँ हैं। प्राण एक विद्युत है, जो जिस क्षेत्र में भी जिस स्तर पर भी प्रयुक्त होती हैं, उसी में चमत्कार उत्पन्न कर देती है।
प्राण-शक्ति, जीवन-शक्ति का ही दूसरा नाम है। जो जितना सजीव है, उसे उतना ही प्राणवान कहेंगे। यह शक्ति शरीर में चमकती है तो व्यक्ति रूप-लावण्ययुक्त, निरोग, दीर्घजीवी, परिपुष्ट एवं प्रफुल्ल दिखाई देता है। उसे परिश्रम से ग्लानि या थकान नहीं वरन् प्रसन्नता प्राप्त होती है। मन में प्राण का बाहुल्य हो तो मस्तिष्क की उर्वरता अत्यधिक बढ़ जाती है। स्मरण शक्ति सूझ-बूझ, कुशाग्रता, बुद्धिमता, तुलनात्मक-निर्णय-क्षमता, एकाग्रता जैसी विशेषताएं उत्पन्न हो जाती हैं। अध्यात्म क्षेत्र में इस महत्ता का संचार होने पर व्यक्ति में शौर्य, साहस, अभय एवं सन्मार्ग पर निरन्तर चलते रहने का पुरुषार्थ उत्पन्न हो जाता है। सद्गुणों एवं सद्भावनाओं की भी उसमें कमी नहीं रहती।
यह प्राण-शक्ति ही प्राणी की विशेषता है, यही उसकी वास्तविक सम्पत्ति है। इसी के मूल्य पर भौतिक समृद्धियाँ एवं सफलताएँ मिलती हैं। इसलिए यह कहना उचित ही है कि जिसके पास जितनी प्राण-शक्ति है, वह उतनी ही जीवन संग्राम में विजय वरण करता है। उतना ही यशस्वी बनता है। प्राण का उपार्जन ही, समस्त सम्पत्तियों की अधिपति महासम्पत्ति का उपार्जन करना है। यह महासम्पत्ति-जिसके पास जितनी मात्रा में हो वह उतना ही अपने अभीष्ट लक्ष्य में सफल होता चला जाता है। प्राणवान व्यक्ति भले ही डाकू, तस्कर, ठग, शासक, नेता, वैज्ञानिक, अध्येता, व्यापारी, कृषक, सैनिक, महात्मा आदि कोई भी क्यों न हो, अपने प्रयोजन में असाधारण सफलता प्राप्त करेगा। अपनी दिशा में उन्नति के उच्च शिखर पर अवस्थित दिखाई देगा। अस्तु इस प्राण की सभी को आवश्यकता रहती है। यह बात अलग है कि कौन उसके लिये प्रयत्न करता है और कौन हाथ पर हाथ रखे बैठा रहता है? किसे उससे प्राप्त करने का मार्ग विदित है और कौन उससे अपरिचित रह रहा है?
प्राण-शक्ति को उपार्जन करने के कई भौतिक उपाय भी हैं और एक सीमा तक उन उपायों से प्राण-शक्ति बढ़ाई भी जा सकती है। उन भौतिक उपायों की समयानुसार फिर कभी चर्चा करेंगे। इन पंक्तियों में अध्यात्मिक मार्ग पर चल कर किस प्रकार उच्च-स्तरीय प्राण-शक्ति का अर्जन, अभिवर्धन किया जा सकता है, उसी का उल्लेख करेंगे।
गायत्री महामन्त्र का प्रमुख लाभ प्राण-शक्ति उपलब्ध करना ही है। उसकी उपासना यदि ठीक प्रकार की जाय तो उपासक में प्राण-शक्ति की अभिवृद्धि शीघ्र ही होने लगती है और वह उस अभिवर्धन के आधार पर कई तरह की सफलतायें प्राप्त करने लगता है। कहने वाले इसे गायत्री माता का अनुग्रह आशीर्वाद कहा करें पर वस्तुतः होता यह है कि उस उपासना से साधक में विकसित रूप से प्राण-शक्ति बढ़ती चली जाती है, उससे उसके व्यक्तित्व में कई प्रकार के सुधार, परिवर्तन होते हैं, कई तरह के आकर्षण बढ़ते हैं, फलस्वरूप कठिनाइयों के अवरोध कार्य में से हटते हैं और सफलताओं का पथ-प्रशस्त होता है।
यह आन्तरिक परिवर्तन बहुत ही सूक्ष्म होता है, इसलिये वह मोटे-तौर पर दिखाई नहीं देता, पर थोड़ी गम्भीरतापूर्वक निरीक्षण करने से कितनी ही विशेषतायें गायत्री उपासना में संलग्न व्यक्ति में दिख पड़ती है। प्रगति का आधार मनुष्य का विकसित व्यक्तित्व ही है। देवता किसी की भौतिक सहायता नहीं करते, वे व्यक्ति के व्यक्तित्व में कुछ वैसे सुधार कर देते हैं, जिससे वह सफलता पर सफलता प्राप्त करता हुआ, अभीष्ट प्रयोजन की दिशा में तेजी से आगे बढ़ता चला जाता है। गायत्री की उपासना वस्तुतः प्राण-शक्ति की ही उपासना है। जिसे जितना प्राण बल उपलब्ध हो गया समझना चाहिये, उसकी उपासना उतने ही अंशों में सफल हो गई।
गायत्री का देवता सविता है। सविता का भौतिक स्वरूप रोशनी और गर्मी देने वाले अग्नि-पिण्ड के रूप में परिलक्षित होता है, पर उसकी सूक्ष्म सत्ता प्राण-शक्ति से ओत-प्रोत है। वनस्पति, कृमि, कीट, पशु-पक्षी, जलचर, थलचर और नभचर वर्गों के समस्त प्राणी सविता देवता द्वारा निरन्तर प्रसारित प्राण-शंकित के द्वारा ही जीवन धारण करते हैं। वैज्ञानिकों का निष्कर्ष है कि इस जगती पर जो भी जीवन के चिन्ह हैं, वे सूर्य की सूक्ष्म विकिरणशीलता के ही प्रतिफल है। सावित्री उस प्राणवान सविता देवता की अधिष्ठात्री है। उसकी स्थिति को अनन्त प्राण-शक्ति के रूप में आँका जाय तो कुछ अत्युक्ति न होगी।
गायत्री मंत्र का नामकरण उसकी इसी विशेषता के आधार पर हुआ है। गायत्री शब्द के तीन अक्षरों में यही भावार्थ ओत-प्रोत है।
सत-पथ ब्रह्मांड में कहा गया है-
सा हैषा गयांस्तत्रे प्राणाः वै गयास्तत्प्राणांस्तत्रे।
तद्यद गयांस्तत्रे तस्याद् गायत्री नाम।
(सत-पथ 14/8/15/7)
अर्थात् कह गये हैं प्राण को। त्री अर्थात् त्राण रक्षण करने वाली, जो प्राण की रक्षा करे उस शक्ति का नाम गायत्री हुआ।
और भी देखिए-
गयाः प्राणा उच्यन्ते, गयान् प्राणान् त्रायते सा गायत्री।
-सन्ध्या भाष्य,
‘गय’ प्राण को कहते हैं, जो प्राणों की रक्षा करे उसे गायत्री कहते हैं।
गायत्रं त्रायते इति वा गायत्री प्राच्यते तस्यात् गायन्तं त्रायते यतः।
-याज्ञवल्क्य,
प्राणों का संरक्षण करने वाली होने से उसे गायत्री कहा जाता है।
गायतस्त्रायसे देवि तद्गायत्रीति गद्यसे।
गयः प्राण इति प्रोक्तस्तस्य त्राणादपीति वा॥
-नारद,
“जो गाने के त्राण (रक्षा) करे वह दैवी गायत्री कही जाती है अथवा जो गय अर्थात् प्राणों का त्राण करने वाली है वह गायत्री है।”
गातारं त्रायते यस्याद् गायत्री तेन गीयते।
-स्कन्द पुराण 9/51,
गायन करने वाले का त्राण उद्धार करती है, इसलिए उसे गायत्री कहते हैं।
तेषाएते पंच ब्रह्मपुरुषा स्वर्गस्य लोकस्य द्वार पालस्य एतानेकं पंच ब्रह्म पुरुषात् स्वर्गस्य लोकस्य द्वारपाल वेदास्य कुले वीरो जायते प्रतिपद्यते स्वर्ग लोकम्।
-छाँदोग्य
हृदय की चैतन्य ज्योति गायत्री- ब्रह्म रूप है। उस तक पहुँचने के लिए व्यान, अपान, समान, उदान ये पाँच प्राण द्वारपाल हैं। इनको वश में करना चाहिए, जिससे कि हृदयस्थित गायत्री स्वरूप ब्रह्म की प्राप्ति सम्भव हो सके। इस क्रिया से उपासना करने वाले को स्वर्ग-सुख प्राप्त होता है और उसकी कुल परम्परा से वीर जन उत्पन्न होते हैं।
‘गा’ चेति सर्वगा शक्ति, ‘यत्री’ तत्र नियंत्रिका।
अर्थात् ‘गा’ शब्द यह सर्व गायत्री शक्ति का बोधक है। उस शक्ति को जो नियंत्रण करने वाली सत्ता उसे ‘यत्री’ कहना चाहिए। गायत्री अर्थात् सर्वव्यापी परा और अपरा प्रकृति पर नियन्त्रण करने वाली आत्म-चेतना।
‘गा’ कारो गतिदः प्रोक्त ‘य’ कारो शक्ति दायिनी। ‘त्र’ त्राताच तथा विद्धि। ‘ई’ कार स्वयं परम्।
‘गा’ कार से गति देने वाली, ‘य’ कार से शक्ति-दायक ‘त्र’ से त्राण करने वाली और ‘ई’ कार स्वयं परम तत्व का बोधक है।
सर्वलोकान् व्यहारन्तीति व्याहृतयः।
गायत्री तदित्यादिका चतुर्विशत्यक्षराऽष्टाक्षर-पादपरिच्छेदेन त्रिपदी। तस्या भेदत्रय माह। प्राण वै गयास्तेषां त्रायाणां (त्राता) गायत्री। गायन्ते त्रायते वा गायत्री। सवितृप्रकाशनार्थत्वात् जगतः प्रसवित्री सावित्री। वाग्रूप त्वात् सरस्वती।
-सन्ध्या भाष्य,
“सब लोकों को जो बतलाती है, प्रतिपादन करती हैं, सूचित करती हैं, वे व्याहृतियाँ कहलाती हैं।”
“गायत्री ‘तत्’ से आरम्भ होकर चौबीस अक्षर वाली है और आठ-आठ अक्षरों की तीन पदों के कारण वह त्रिपदी कहलाती है। इसका भेद बतलाते हुए यह कहा है कि ‘प्राण’ अर्थात् ‘गय’ उसका रक्षण करने वाली वह ‘गायत्री’। अर्थात् गायत्री का जप करने से प्राणों की रक्षा होती है, इसलिये इसका नाम ‘गायत्री’ हो गया है। यही गायत्री सूर्य के समान प्रकाश करने वाली होने से, जगत् को उत्पन्न करने वाली होने से ‘सावित्री’ के नाम से कही जाती है और यही वाणी रूप में होने से ‘सरस्वती’ कही जाती है।
गायत्री में सन्निहित प्राण-शक्ति वस्तुतः परम ब्रह्म परमात्मा का ब्रह्म तेज ‘भर्ग’ ही है। निराकार विश्वव्यापी चेतना के रूप में इसे अनुभव किया जा सकता है। भावों का भगवान मनुष्य अथवा देवता का रूप धारण कर लोक-मंगल के लिए विभिन्न स्तर की लीलाएँ करता रहता है पर वैज्ञानिक का परब्रह्म सचेतन प्राण-शक्ति के रूप में उस विश्व ब्रह्मांड के कण-कण में सन्निहित एवं सक्रिय बना हुआ विद्यमान है। इसका बाहुल्य देवदूत, अवतार, महामानव, नर-रत्न, ऋषि, मनीषी आदि के रूप में देखा जा सकता है। गीता के विभूति योग में भगवान ने अपनी विशेष स्थिति जिन प्राणियों या पदार्थों में वर्णन की है- उनमें इस प्राण-शक्ति की अधिकता ही कारण है।
गायत्री के माध्यम से हम उस ब्रह्म चेतना प्राण-शक्ति से ही अपना संपर्क बनाते और अधिक सचेतन बनने का उपक्रम करते हैं। मनुष्य के सचेतन का ब्रह्म संपर्क इस प्राण-शक्ति के माध्यम से ही होता है। इसलिये गायत्री उपासना को ब्रह्म विद्या के नाम से उपनिषदों, ब्राह्मण ग्रन्थों तथा आरण्यकों में वर्णन किया गया है। ब्रह्म की चर्चा, विवेचना एवं स्तुति प्राण के रूप में भी की गई है।
कहा गया है-
कतमएको देव इति। प्राण इति स ब्रह्म तदित्यावक्षते।
-वृहदारण्यक
वह एक मात्र देव कौन है?- वह प्राण है। उसे ही ब्रह्म कहा जाता है।
प्राणो ब्रह्म इति ह स्याह कौषीतकिः।
- ब्रह्म संहिता
प्राण ही ब्रह्म है, ऐसा कौषीतकि ऋषि ने व्यक्त किया है।
प्रजापतिश्चरति गर्भे त्वमेव प्रति जायसे। तुभ्य प्राण प्रजास्त्वि या बलिं हरन्ति यः प्राणौः प्रतिष्ठति।
-प्रश्नोपनिषद्
हे प्राण! आप ही प्रजापति हैं, आप ही गर्भ में विचरण करते हैं। आप ही पिता-माता के अनुरूप होकर जन्म लेते हैं, यह सब प्राणी आपको ही आत्म-समर्पण करते हैं। वह प्राणों के साथ ही प्रतिष्ठित हो रहा है।
प्राणो ब्रह्म इति हस्माह पैंग्यः।
- ब्रह्म संहित
पैंग्य ऋषि ने कहा- प्राण ही ब्रह्म है।
प्राणो विराट् प्राणो देष्ट्री प्राणां सर्व उपासते।
प्राणोह सूर्य चन्द्रमाः प्राणमाहुः प्रजापतिम्॥
-अथर्व
प्राण ही विराट् है, वही सब का प्रेरक है। इसी से सब उसकी उपासना करते हैं। प्राण ही सूर्य है, चन्द्रमा है और वही प्रजापति है।
प्राणाय नमो यस्य सर्वमिदं वशे।
यो भूतः सर्वस्येश्वरो यस्मिन् सर्व प्रतिष्ठितम्॥
-अथर्व
जिसके अधीन यह सारा जगत है, उस प्राण को नमस्कार है। वही सब का स्वामी है। इसी में यह सारा जगत प्रतिष्ठित है।
सर्वा ऋचः सर्वे वेदाः सर्वे घोष एकैव व्याहृतिः
प्राणएव प्राणं ऋच इत्येव विद्यात्।
-एतरेय,
जितनी ऋचायें हैं, जितने वेद हैं, जितने शब्द हैं, जितनी व्याहृतियां हैं, ये सब प्राण हैं। उन्हें प्राण रूप समझ कर उन्हीं की उपासना करनी चाहिये।
प्राणो वा ज्येष्ठः श्रेष्ठश्च। -छाँदोग्य
प्राण ही बड़ा है और प्राण ही श्रेष्ठ है।
प्राण एव स पुरिशेति। तं पुरिशेते इति पुरिशयं।
सन्त प्राणं पुरुष इत्याचक्षते। -गोपथ,
शरीर रूपी पुरी में निवास करने से उसका स्वामी होने के कारण प्राण ही पुरुष कहा जाता है।
सत पथ ब्राह्मण में कई स्थानों पर प्राण को प्रजापति कहा गया है।
प्राणो हि प्रजापतिः 4/5/5/13
प्राण उ वै प्रजापतिः 8/4/1/4
प्राणः प्रजापतिः 6/3/1/9
सर्व ही दं प्राणोनावृतम्। -एतरेय,
यह सारा जगत् प्राण से आवृत है।
प्राण स्येदं वशे सर्व त्रिदिचे सा प्रतिष्ठितम्।
मातेव पुत्रान् रक्षस्व श्रींच प्रसांच विधेहि न इति॥
-प्रश्नोपनिषद्
इस विश्व में जो कुछ है वह सब प्राण के अधीन है। जो कुछ स्वर्ग में है, वह भी प्राण के ही अधीन है। हे प्राण! तू हमें माता के समान पाल और लक्ष्मी तथा जीवन-शक्ति प्रदान कर।
स एष वैश्वानरो विश्व रूपः प्राणोदऽग्नि रुदयेत्।
-पिप्पलाद,
यह प्राण ही सारे संसार में वैश्वानर रूप से प्रकट होता है।
अमृतमु वै प्राणः (सत. 9/1/2/32)
“इस मर्त्यपिण्ड को अमृतत्व से संयुक्त रखने वाला प्राण ही है।”
अराइव रथ नाभौ प्राणो सर्व प्रतिष्ठितम्।
ऋचो यजूंषि सामानि यज्ञः क्षत्रं ब्रह्म च॥
“रथ चक्र की नाभि में लगे अरों के समान ऋक् की ऋचाएँ, यजु-साम के मन्त्र, यज्ञ, क्षत्रिय, ब्राह्मण आदि सभी इस प्राण में निहित हैं।”
प्रजापतिश्चरसि गर्भे त्वमेव प्रतिजायते।
तुभ्यप्राण प्रजास्त्विमा बलिं हरन्ति यः प्राणौः प्रतिष्ठम्॥
“प्रजापति तू ही है, गर्भ में तू ही विचरण करता है और तू ही माता-पिता के समान आकृति वाला होकर उत्पन्न होता है। हे प्राण! यह सब देहधारी तुझे बलि देते हैं। तू देहगत अन्य प्राणों के साथ प्रतिष्ठित है।”
हमारे साँसारिक जीवन को सफल और सार्थक बनाने में भी प्राण का महत्व सर्वोपरि है। जो व्यक्ति यहाँ पर अधोगति की स्थिति में पड़े रहते हैं, उनमें या तो प्राण-शक्ति की न्यूनता होती है अथवा वे उसका प्रयोग गलत तरीके से करते हैं। गायत्री-विज्ञान और उसका विधिवत अभ्यास प्राणों का सदुपयोग करना सिखलाता है। इसलिये गायत्री उपासक यदि अपने लक्ष्य की पूर्ति में दृढ़तापूर्वक लगा रहेगा तो वह अवश्य अपने लोक और परलोक का सुधार कर सकेगा।