Magazine - Year 1970 - Version 2
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Language: HINDI
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गुरु दक्षिणा जो चुकाई न जा सकी।
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“मान लो, तुममें योग-साधनाओं के लिये अभीष्ट मनोबल हो भी, तुम तन्त्र की कठिनाइयों को झेल लो और अनेक सिद्धियों के स्वामी बन जाओ तो भी उसमें तुम्हारा कोई हित नहीं है। आत्म-कल्याण का प्रयोजन तो किसी और ही तरह से पूरा होता है, उसके लिये व्यक्ति को अपने अन्तःकरण को शुद्ध बनाना पड़ता है। सद्गुण और सन्मार्गगामी साधनायें करनी पड़ती हैं, तुम्हारे लिये भी वही उचित है।” महर्षि वर्ष ने नवागत शिष्य व्याडि और इन्द्रदत्त को बहुतेरा समझाया पर वे तन्त्र और पदार्थ विद्या सीखने का ही हठ करते रहे। महर्षि ने सोचा यह विद्या लुप्त न हो, लोग आध्यात्मिक शक्तियों को भौतिक शक्ति से बढ़कर स्वीकार करते रहें और आवश्यक हो तो विश्व-कल्याण में तन्त्र का उपयोग भी होता रहे, इस दृष्टि से उन्होंने शिष्यों की बात मान ली। उन्हें अनेक ऐसे आसन, प्राणायाम, हठ-योग की क्रियायें आदि बताईं जिससे उनमें सैकड़ों सिद्धियों का प्रादुर्भाव होता चला गया। परकाया प्रवेश से लेकर सूक्ष्म लोकों में अभिगमन तक, दूरदर्शन, श्रवण से लेकर औरों के मन की बता जान लेने तक की सारी विद्यायें उन्होंने दोनों शिष्यों को सिखाकर उनको निष्णात योगी बना दिया।
साधनायें समाप्त कर घर चलने का समय हुआ तो व्याडि बोला-गुरुदेव! कहिये आपको गुरुदक्षिणा क्या दें? इन्द्रदत्त ने भी वही, आग्रह किया तो वर्ष बोले-तात! भौतिक सम्पत्तियाँ क्षण भंगुर सुख देती हैं, हमें वह चाहिये नहीं, कोई भी अध्यात्मवादी जो चाहता है, मेरी भी वही इच्छा है कि तुम यहाँ से जाओ, धर्म और ज्ञान का प्रकाश फैलाओ ताकि अपने देश जाति और संस्कृति के जीवन में उच्च आदर्शों, उद्दात्त भावनाओं, सुख और समृद्धि की कमी न रहे और हमें कुछ नहीं चाहिये।
शिष्य सन्तुष्ट न हुये उन्हें अपनी उपलब्धि का अहंकार नचा रहा था-वे दोनों हठ करते रहे कोई भौतिक वस्तु माँगने की। न मानने पर महर्षि ने कहा-दे सकते हैं तो एक हजार स्वर्ण मुद्रायें लाकर दे दें, ताकि टूटे आश्रम के जीर्णोद्धार का प्रबन्ध किया जा सके। यह बात शिष्यों ने स्वीकार कर ली। होना यह चाहिये था कि दोनों परिश्रम करते, उद्योग करते और मेहनत से गुरुदक्षिणा चुकाते पर अहंकार तो अहंकार ही है। निश्चय यह हुआ कि तन्त्र विद्या का प्रयोग कर गुरुदक्षिणा अविलम्ब चुका दी जाये। संयोग से जिस दिन उनकी यह मन्त्रणा चल रही थी, मगध के सम्राट नन्द की मृत्यु हो गई। दोनों शिष्य ने वररुचि को अपना मित्र बनाया और तय किया कि इंद्रदत्त नन्द के शरीर में परकाया प्रवेश करें, उसके शव की रक्षा व्याडि करे और इंद्रदत्त की आत्मा नन्द के शरीर में पहुँच जाये, तब वररुचि जाकर उनसे स्वर्ण मुद्रायें माँग लायें जिससे गुरुदक्षिणा भी चुका दी जाये और अपने लिये भी धन प्राप्त किया जा सके।
सारी व्यवस्था जुटायें ली गई। इन्द्रदत्त ने अपने शरीर से प्राण-निकाल कर नन्द के शरीर में प्रवेश कर लिया। मृत नन्द जी उठे तो सारे मगध के लोग आश्चर्य चकित रह गये। इस रहस्य को और कोई तो नहीं जान पाया पर स्वभाव में भिन्नता के कारण नन्द का मन्त्री शकटारि सारी स्थिति समझ गया। उसने तत्काल पता लगाकर इन्द्रदत्त के शव का तो दाह करा दिया और व्याडि को बन्दी बनाकर कारागृह में डाल दिया। कोई उपाय न देखकर नन्द के शरीर में व्याप्त इन्द्रदत्त उसी शरीर में रह गये और भोग-वासनाओं में डूब गये। इधर चन्द्रगुप्त के हाथों वह मारा गया और व्याडि कारागृह की यातनाओं से। जो योग-विद्या आत्म-कल्याण के उद्देश्य से सिखाई गई थी, अहंकार के कारण वह अपने साधकों को ही ले डूबी। गुरुदक्षिणा तो दूर रही वर्ष ने यह समाचार सुना तो उन्होंने इतना ही कहा-अपात्र को विद्या देने का यही फल होता है-आगे उन्होंने योग-विद्या हर किसी को न सिखाकर आत्म-कल्याण की दक्षिणमार्गी साधनायें ही सिखाईं।