Magazine - Year 1970 - Version 2
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Language: HINDI
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मनुष्य की विलक्षण दिव्य शक्तियाँ
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“सहदेव के जन्म के समय मेरे एक मित्र, जिन्होंने ज्योतिष का बहुत अध्ययन किया था, मेरे पास ही थे। उन्होंने भैया (जिस परिवार को यहाँ उद्धृत किया जा रहा है, उनके घर छोटे बच्चों को भैया के ही सम्बोधन से पुकारा जाता है) की जन्म तिथि के आधार पर बताया कि आपके घर कोई देवात्मा आई है। इसे तो किसी बड़े सम्पन्न घर में जन्म लेना चाहिये था, पता नहीं वह कैसे आपके घर आ गया। फिर कुछ रुककर उन्होंने कहा-जून सन् 1955 की किसी तारीख को आपका बच्चा रहेगा? यदि कुछ उपाय कर लोगे तो यह बचा भी रह सकता है, बचा रहा तो आपके जीवन में तीव्र परिवर्तन आयेगा। सुख-सम्पत्ति का घाटा नहीं रहेगा।” “बातचीत के दौरान उन्होंने, बताया कि ज्योतिष शास्त्र के अब ज्ञाता रहे नहीं, अब तो जहाँ-तहाँ उसका झूठा व्यवसाय चल रहा है, पर यदि सचमुच भविष्य विद्या की साधना करें तो न केवल बालक के पूर्व जन्मों का इतिहास जाना जा सकता है, वरन् भविष्य के एक-एक दिन का इतिहास भी सिनेमा के पर्दे की तरह देखा जा सकता है। उन्होंने नकली प्रचलिन फलित ज्योतिष का बहुत खण्डन किया था।” “मेरे पूछने पर उन्होंने बताया पूर्व जन्मों में जो ईश्वर उपासक और देव वृत्ति की आत्मायें हैं, वे यदि किसी प्रकार परमात्मा को नहीं पा पातीं तो उनका दूसरा जन्म भी, कुल, यश, साधन सम्पन्न परिवारों में जन्म होता है। यदि वे किसी साधारण परिवार में ही जन्म ले लें तो “तिमि सुख सम्पत्ति बिनहिं बुलायें। धर्मशील पहं जाहिं सुहाये॥” के अनुसार साधन सम्पत्तियाँ उसके पास अपने आप दौड़ी चली आती हैं इसी आधार पर हमने कहा है कि यदि बच्चा 6 वर्ष की आयु के बाद जीवित रहा तो आपके घर किसी बात की कमी न रहेगी।” उस समय की यह बात आई गई हो गई। ज्योतिष पर पढ़े-लिखे लोगों का जैसा आम अविश्वास है, वैसे ही हमने भी उन बातों पर विशेष ध्यान नहीं दिया। उपरोक्त घटना पाण्डुचेरी के अरविन्द आश्रम की वर्तमान संचालिका श्री यज्ञ शिखा माँ (श्री माँ) को लिखे गये एक पत्र के आधार पर लिखी जा रही है। यह पत्र मध्य प्रदेश के महान राजनैतिक क्रान्तिकारी काशीराम का है, जो उनके एक मित्र द्वारा श्रीमाँ को भेजा गया था। श्री काशीराम जी अमर शहीद भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद आदि के साथियों में हैं, कानपुर सूटिंग केस में उन्हें सात वर्ष की जेल हुई थी। गाड़ोदिया बैंक के डकैती केस में वे चन्द्रशेखर आजाद के साथ रहे थे। इस पत्र में अपने प्रिय पुत्र के निधन का सकरुण चित्रण करते हुये काशीराम ने आत्मा सम्बन्धी भारतीय दर्शन को गम्भीर आस्था के साथ स्वीकार किया है और लिखा है कि हम साँसारिक व्यापारों में इतने पदार्थवादी हो गये हैं कि आत्मा की आवाज को भी नहीं पहचान सकते। आत्मा हर क्षण हमें अपने सन्देश और प्रेरणायें देकर हमारा मार्गदर्शन करना चाहती है, पर साँसारिक आसक्तियों में फँसे हम साधारण मनुष्य उसकी उपेक्षा ही करते रहते हैं और मनुष्य शरीर जैसे अलभ्य अवसर को यों ही गँवाते रहते हैं।” “आगे की घटना फिर प्रारम्भ होती है- सहदेव बच्चा था, पर उसने जीवन में एक बार भी असत्य नहीं बोला। उसने कभी पैसे भर की किसी और की वस्तु नहीं उठायी। उसके मुँह से निकली हुई कोई भी बात असत्य नहीं होती थी। एक बार काशीराम के एक पड़ोसी का मुकदमा चल रहा था। जिस दिन उन्हें फैसला सुनाया जाना था, सवेरे-सवेरे वे घर आये और पूछा “भैया! बताओ मैं मुकदमा जीत जाऊँगा या नहीं।” भैया ने कहा- “तुम मुकदमा हार जाओगे और तुम्हें तीन साल की सजा होगी।” उन सज्जन ने इस मुकदमे में बड़ी लम्बी रिश्वतें दी थीं और उन्हें छूट जाने का पक्का आश्वासन मिला था। इसीलिये वे हँसे और बड़े विश्वास के साथ बोले-सहदेव! तेरी बात झूठ निकलेगी किन्तु सायंकाल उनके घर से खबर लाई कि सहदेव की बात सच निकली। उस व्यक्ति को सचमुच तीन वर्ष की सजा सुना दी गई थी। सहदेव ने कहा-देख लिया न। मैं कभी झूठ नहीं बोलता, फिर मेरी बात असत्य कैसे हो जाती? बच्चे ने अनेक बार ऐसी भविष्यवाणियाँ की और वह सब सच निकलीं। घर मुहल्ले के लोग समझ नहीं पाते-कि जब बड़े-बड़े शिक्षित और बुद्धिमान लोग साधारण बातों का भविष्य नहीं जान पाते तब यह बच्चा असाधारण भविष्य ज्ञान कहाँ से पा गया। ऐसी जिज्ञासायें हम सबके सामने आती हैं, किन्तु हम कहाँ सोच पाते हैं कि आत्मानुवर्ती होना सबसे बड़ा ज्ञान और योग्यता है, जो आत्मा के जितना समीप है वह उतना ही स्पष्ट भूत और भविष्य दृष्टा होता है। जून की 20 तारीख और सन् 1955 काशीराम जी किसी काम से घर के बाहर जाने लगे। बच्चे ने जिद की-पिताजी मुझे भी साथ ले चलिये। श्री काशीराम जी ने उसे समझा दिया और वहाँ से चले गये। पीछे एक दो बार बच्चे ने उन्हें याद किया तो उसकी माँ ने यों ही हँसी-हँसी में कह दिया-तेरे पापाजी अब घर नहीं आयेंगे तू उन्हें बहुत तंग करता रहता है सो वे घर छोड़कर चले गये हैं।” बात हँसी में कही गई थी, पर लड़का इस बात को लेकर दिनभर उदास बना रहा। शाम को श्री काशीराम जी के घर पहुँचते ही सहदेव उनसे लिपट कर रोया-पिताजी! आप मुझसे तंग रहते हो। तो अब तुम घर छोड़कर न जाना मैं स्वयं ही चला जाऊँगा।” बच्चे के यह शब्द कहते ही न जाने क्यों श्री काशीराम जी को ज्योतिषी की बात याद आ गई। बच्चे के कथन में कोई एक सत्य झाँकता हुआ सा उन्हें प्रतीत हुआ। उन्हें जब पता लगा तो अपनी धर्मपत्नी को वैसा कह देने के लिये डाँटा भी पर सहदेव का मनोमालिन्य दूर न हुआ। वह शाम तक फिर काशीराम जी से एक शब्द भी नहीं बोला। उनके पास ही सोता था, सो सोया तो उन्हीं के साथ ही, पर उनसे कुछ हटकर निःशब्द बिना कुछ बोले, बातचीत किये, जबकि इससे पूर्व वह घण्टों अपने पिता से तरह-तरह की मीठी-मीठी बातें किया करता था। बच्चे कितने संवेदनशील होते हैं, पर हम उनकी भावनाओं का आदर कहाँ करते हैं। माता-पिताओं की उपेक्षा उन्हें गलत रास्तों में भटका देती है। उन्हें गुनहगार ठहराया जाता है, पर सारी भूल अभिभावकों की होती है, जो उन्हें स्नेह और मनोवैज्ञानिक ढंग से सिखाना, समझाना भी नहीं जानते। रात बारह बजे बच्चे की नींद टूटी। उसने कई बार श्री काशीराम जी को पिताजी, पिताजी! कहकर पुकारा-उस दिन दुर्भाग्य से पति-पत्नी दोनों ने भंग पी ली थी। देर तक नींद न टूटी एक पड़ोसी ने आकर जगाया-बच्चा कब से चिल्ला रहा है और आप ऐसे धुत्त सो रहे हैं। उस दिन श्री काशीराम जी ने पहली बार अनुभव किया-नशा-मनुष्य जीवन का कितना बड़ा पाप है।
बच्चे ने बिना किसी प्रकार की शिकायत किये कहा- “पापाजी- मेरी गरदन दुःख रही है” यह कहकर उसने काशीराम जी का हाथ पकड़ कर अपने दाहिनी गरदन पर रख कर वह स्थान बताया। श्री काशीराम चौंक पड़े-बच्चे का सारा शरीर गर्म तवे की भाँति जल रहा था। उन्होंने घबड़ा कर पत्नी को जगाया। दोनों उतर कर नीचे आये। पत्नी बच्चे को लेकर सो गई काशीराम जी अलग जा सोये। नशे का अभिशाप-दोनों में से किसी को भी यह ध्यान नहीं रहा कि बच्चे को बुखार है उसे डॉक्टर को दिखाना चाहिये, औषधि दिलानी चाहिये। प्रातःकाल सहदेव की स्थिति बहुत बिगड़ी हुई मिली तब श्री काशीराम जी डॉक्टर के लिये दौड़े। समय निकल जाता है, तब सिवाय हड़बड़ी के और क्या हो सकता है। डॉक्टर आया उसने देखकर बताया कि स्थिति ठीक नहीं है, उसे अस्पताल ले जाना चाहिये। नानी-नाना बुला लिये गये। बच्चा दिनभर तीव्र ज्वर में अचेत नानी की गोद में पड़ा रहा। काशीराम जी डॉक्टर के पास गये। डॉक्टर “अभी-अभी” कहकर अपने मरीजों में व्यस्त था, उसे पता था, काशीराम जी की स्थिति तंगी की है, वहाँ से दवाओं के पैसे मिलना कठिन है, इसलिये उसने शाम के सात बजा दिये और चला नहीं। काशीराम जी डॉक्टर के पास खड़े थे, तो उन्हें ऐसा लगा जैसे सहदेव कह रहा हो- “पिताजी अब तो लौट आओ अब मैं हमेशा के लिये जा रहा हूँ” आत्मा की आवाज, पर कितनी स्पष्ट और शक्तिशाली। श्री काशीराम जी ने कहा- “डॉक्टर साहब! धन्यवाद! अब आपको कष्ट करने की आवश्यकता नहीं रही। सहदेव रहा नहीं।” यह कहकर वे घर की तरफ भागे और तब पीछे-पीछे डॉक्टर साहब भी अपनी कार लेकर दौड़े पर प्राण किस की प्रतीक्षा करते हैं? बच्चे का शरीर ठण्डा पड़ चुका था, ओठ सुख गये थे। डॉक्टर ने जल्दी-जल्दी देखा और कह दिया- “बच्चे की मृत्यु हो गई है।” किसे दोष दिया जाये ऐसे तो हजारों बच्चे रोज मरते रहते हैं डॉक्टर लौटा और अपने काम में लग गया। जल्दी नाना जी को भी थी। जीवन और मृत्यु के क्षणों में भी मनुष्य उन काल की विलक्षण घटनाओं के बारे में एक क्षण भी विचार नहीं करता- सम्भव है ऐसे प्रसंग देखकर ही धर्मराज युधिष्ठिर ने यक्ष के “संसार में सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है?” प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा था- अहन्यहन्य भूतानि गच्छन्ति यम मन्दिरम्। शेषाः स्थिरत्वभिच्छन्ति किंआश्चार्य मतः परम्॥ अर्थात् एक-एक करके सारा संसार मृत्यु के मुख में समाता चला जा रहा है, पर पीछे रह जाने वालों की गतिविधियाँ ऐसी रहती हैं मानो उन्हें मृत्यु तक जाना ही नहीं-हे यक्ष! इससे बढ़कर संसार में और कोई दूसरा आश्चर्य नहीं हो सकता। व्यवस्थापक नाना जी ही थे। बच्चे को ले जाकर जल्दी-जल्दी गड्ढा खोदकर दफना दिया गया। श्री काशीराम जी उसका अच्छी तरह मुँह भी नहीं देख पाये। मित्र, परिचित और सम्बन्धी आते और श्री काशीराम जी को सान्त्वना दिलाते रहे। वह दिन ऐसे ही बीता। सन्ध्या आई और चली गई। बत्तियाँ बल गई। बच्चे की माँ की स्थिति अब भी बड़ी गम्भीर थी। पर काशीराम जी के दुःख का पारावार ही न था। स्वतन्त्रता आन्दोलन का क्रान्तिकारी जो कभी गोली और बन्दूक दागने और डकैती डालने जैसे कामों में भी नहीं घबराता था, पुत्र की ममता के आगे उसकी सारी दृढ़ता ढेर हो गई। रात कोई आठ बजे होंगे। काशीराम जी चारपाई पर लेटे थे। बिजली का खम्भा सामने ही था बल्ब जल गया था। उससे सड़क के उन हिस्से में खूब प्रकाश फैल रहा था। तत्ववस्य (हिप्नोटाइज्ड) मस्तिष्क की भाँति काशीराम जी को एकाएक ऐसा लगा जैसे सहदेव की छाया बल्ब के नीचे प्रकाश में खड़ी है। आकृति थोड़ा आगे बढ़ी और बोली- “पिताजी! आपने मुझे जीवित गाढ़ दिया। जल्दी करो मुझे निकाल लो। मुझे बड़ा कष्ट हो रहा है।” रुक-रुक कर बच्चे ने तीन बार यही शब्द कहे। बच्चे की आकृति सामने आते ही पिता का हृदय छलक पड़ा। वे चिल्लाये- भैया! मेरे भैया! और उनके इतना कहने पर ही उनकी धर्म पत्नी का ध्यान उनकी ओर गया। उन्होंने बताया अभी भैया आया था और कह रहा था, मुझे जीवित गाड़ दिया गया है। मुझे फावड़ा तो लाओ, मैं अभी जाकर सहदेव को खोद लाता हूँ। धर्मपत्नी ने कहा-तुम्हें यों ही वहम हो गया है, जब बच्चा बीमार था, तब दवा कराते नहीं बना अब जब उसकी लाश गाड़ दी गई तो उसे उखाड़ने से क्या लाभ? श्री काँशीराम ढीले पड़ गये और फिर इन्हीं शोकपूर्ण विचारों में डूब गये। हलकी सी नींद लगी और भैया की आवाज फिर सुनाई दी- “पिताजी-मुझे जीवित गाड़ दिया गया है, मुझे निकाल लो पिताजी, मेरा दम घुट रहा है।” काशीराम जी की नींद फिर टूट गई। फिर सोये तो फिर वही आवाज। रात भर बच्चे की आत्मा पिता के आस-पास घूमती, जगाती और सन्देश देती रही, पर कुछ धर्मपत्नी के शब्द, कुछ अपना भी अविश्वास बेचारे लेटे के लेटे ही रहे। पर प्रातःकाल 4 बजे जब बच्चे को मरे 24 घण्टे हो रहे थे, फिर जोर से बच्चे की वही आवाज सुनाई दी-पिताजी मुझे जीवित गाड़ दिया गया है, मुझे जल्दी निकाल लो।” श्री काशीराम जी की नींद टूट गई। वहाँ भागे। पागल की तरह बच्चे की कब्र के पास पहुँच गये। एक क्षीण सी आवाज आई- “पिताजी! बहुत देर करदी। मैं मर रहा हूँ, अब आने का क्या लाभ?” काशीराम जी पागल हो उठे। हाथ में कोई वस्तु नहीं किससे खोदते। फिर घर को भागे। फावड़ा लेकर फिर उसी स्थान की ओर दौड़े, जहाँ बच्चा गड़ा था। अब तक घर के सब लोग भी जग चुके थे। सबने यही कहा कि काशीराम जी बच्चे की ममता में पागल हो गये हैं, यह किसी ने नहीं समझा कि आत्मा की भी कोई आवाज होती है, इसका भी कहीं कोई अस्तित्व होता है? काशीराम जी ने कब्र खोदकर बच्चे को निकाला तो आश्चर्यचकित रह गये। बच्चे की देह बिलकुल गर्म थी, लाश में किसी प्रकार की खराबी नहीं थी। साँस चलने का तो कोई लक्षण नहीं दिखाई दे रहा था, पर कनपटी की नसें अब भी फड़क रही थी और उससे यह स्पष्ट होता था कि बच्चा थोड़ी देर पहले पूर्णतया जीवित था। अभी भी उसके शरीर में जीवन शेष है। अब तक घर के बहुत से लोग और दूसरे लोग भी जमा होने लगे थे। बहुत लोगों ने उसके फोटो लिये। कई लोग कई तरह की चर्चा कर रहे थे, पर यह किसी से न बना कि कोई किसी डॉक्टर को लाता। बच्चे का शरीर उसकी नानी को देकर काशीराम जी कई डाक्टरों के पास गये पर जिसने भी यह चर्चा सुनी उसी ने काशीराम जी को पागल कह कर टाल दिया। इसी बीच कोई एक तान्त्रिक भी दौड़ा-दौड़ा वहाँ आया और बच्चे को देखकर चिल्लाया- तुम लोगों ने बच्चे को जीवित मार डाला- उसका इलाज भी नहीं करते बना। उसके इतना कहते-कहते एक बार बच्चे ने खून की उल्टी की और फिर सदा के लिये इस संसार से विदा हो गया। मिट्टी जहाँ से आई थी उसी में मिल गई।” यह पत्र श्री माँ ने बहुत ध्यान से पढ़ा और फिर काशीराम जी के मित्र को, उन्होंने उन तक यह पत्र पहुँचाया था-लिखा-ओह! उसने आत्मा की आवाज को नहीं पहचाना (पिटी, ही डिड नाट लिसन टु विद इंट्यूशन)। एक काशीराम क्या, हम सब भी तो पागलों की सी जिन्दगी जीते हैं। बाहरी भौतिक संसार के सुख के लिये न जाने क्या-क्या करते हैं, पर आत्मा तो उपेक्षित पड़ी है। हमें उसकी आवाज सुनने का अवकाश ही कहाँ? यह घटना प्रसिद्ध साहित्यकार श्री बनारसीदास जी चतुर्वेदी के आग्रह पर स्वयं काशीराम जी ने लिखकर ‘नई दुनिया’ को भेजी थी। यह दैनिक पत्र इन्दौर से निकलता है। 3 नवम्बर 1968 के अंक में यह हृदयस्पर्शी संस्मरण छपा भी था।