Magazine - Year 1970 - Version 2
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Language: HINDI
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शरीर नहीं आदर्श की रक्षा आवश्यक
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अग्नि बोले-महाराज! महाराज शिवि का धर्म और उनकी जीव दया उशीनर देश में ही नहीं सारे विश्व में विख्यात है। सभी जानते हैं कि राजसत्ता का स्वामी होकर भी शिवि ने न तो किसी के साथ अनीति बरती न छल किया इसलिये उनकी परीक्षा लेने की बात व्यर्थ ही है। इसमें कोई सन्देह नहीं वे प्राणिमात्र को आत्मा की दृष्टि से ही प्यार करते हैं।
देवराज इन्द्र ने उत्तर दिया-साधन सम्पन्न व्यक्ति का कोई ठिकाना नहीं जातवेद। क्या पता शिवि जो कुछ कर रहे हैं वह एकमात्र दिखावा हो वे इस तरह सब का ध्यान अपने विलासी जीवन की ओर से बँटाये रखना चाहते हों। निष्ठा की परीक्षा लिये बिना किसी की शुद्धता का क्या प्रमाण। फिर यदि वे सचमुच अपने अन्तःकरण से पूर्ण निश्छल हैं और परीक्षा में उत्तीर्ण हो जाते हैं तो उससे उनकी कीर्ति ही बढ़ेगी।
भगवान इन्द्र के तर्कों के आगे अग्नि देव की एक न चली। तब उन्होंने भी शिवि की परीक्षा लेने की बात स्वीकार कर ही ली।
एक निमेष के अन्तर से दृश्य पलट गया। महाराज शिवि सभासदों सहित राज दरबार में बैठे किसी महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा कर रहे थे तभी एक श्वेत कपोत उड़ता हुआ आया और उनकी जंघा पर आ बैठा। पक्षी घबराया हुआ था लगता था वह किसी संकट से ग्रस्त है। महाराज शिवि अभी अच्छी तरह सोच भी नहीं सके थे कि कबूतर का पीछा करता हुआ एक बाज भी वहाँ आ पहुँचा। एक बार उसने ललचाई दृष्टि से कपोत की ओर देखा फिर सिंहासन के दक्षिण पार्श्व में बैठता हुआ बोला-महाराज! कबूतर मेरा आखेट है आप उसे मुझे सौंप दीजिये।
शिवि बोले- तात! मेरे राज्य में कहीं भी जीव-हिंसा नहीं होती फिर वह कबूतर तो मेरी शरण में आ गया उसे तुम्हें सौंप कर हम जीव हिंसा का पाप अपने सिर पर नहीं ले सकते। कबूतर के बदले तुम और जो कुछ भी चाहो ले सकते हो।
एक का अधिकार छीन कर दूसरे की रक्षा करना कहाँ का धर्म है-महाराज! बाज ने तर्क किया-प्रकृति ने मुझे माँस भोजी बनाया है इसलिये मुझे तो माँस ही चाहिये। जब भी माँस देने की बात आयेगी आपको जीव हिंसा करना ही पड़ेगी इसलिए अच्छा तो यही है कि आप इस कबूतर को ही लौटा दें।
महाराज शिवि! एक क्षण के लिए विचार मग्न से प्रतीत हुये-बाज का कथन गलत नहीं है धर्म की रक्षार्थ बाज को माँस दिया जाये तो वह किसी जीव को मार कर ही दिया जा सकता है। एक की रक्षार्थ दूसरे को मारना पाप ही तो है फिर-तब ऐसा करो बाज, महाराज बोले-तुम्हें इस कबूतर के बराबर तोल कर यदि अपने शरीर से माँस दे दूँ तो- “मुझे कोई इन्कार नहीं” बाज ने सहमति प्रकट कर दी।
क्षण-क्षण चढ़ते-उतरते दृश्यों में ठहराव आ गया। सारी सभा इस आलौकिक न्याय को निस्तब्ध होकर देख रही थी। तराजू मँगाया गया। एक पलड़े में कबूतर के रूप में अग्नि देव को बैठाया गया दूसरी ओर शिवि अपने शरीर का माँस काट कर चढ़ाने लगे। बाँया हाथ, बाँया पाँव, दाँया पाँव तीनों चढ़ गये फिर भी माँस कबूतर के बराबर न हुआ। महामंत्री ने टोका महाराज? कुछ छल हो रहा है तो उन्होंने कहा-धर्म की राह पर चलने वाले वीर, छल-कपट की बात नहीं सोचते महामंत्री उठो और मुझे उठा कर पलड़े पर रख दो यदि कबूतर की रक्षार्थ मेरे प्राण चले जाते हैं तो भी कुछ हर्ज नहीं।
महाराज को पलड़े पर रख दिया गया, दोनों पलड़े बराबर हो गये पर अब भगवान् इन्द्र को और देर तक छद्म वेष में रहना कठिन हो गया शिवि की निष्ठा ने उन्हें पराभूत कर दिया। वे अपने देव रूप में प्रकट हुये और शिवि के धर्मपालन की प्रशंसा करने लगे। उनकी कृपा से शिवि के कटे अंग भी जुड़ गये और जुड़ गया इतिहास में जीव दया और कर्त्तव्य पालन का एक ऐसा पृष्ठ जो युग-युगों तक मनुष्य को कर्त्तव्य पालन की प्रेरणा देता रहेगा।