Magazine - Year 1970 - Version 2
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Language: HINDI
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आध्यात्मिक काम विज्ञान- एक महान तथ्य-1
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सृष्टि का संचरण किस क्रिया से होता है, इस सम्बन्ध में पदार्थ विज्ञान अणु को प्रथम इकाई मानता है। उनका कहना है कि अणु के अंतर्गत नाभिक तथा दूसरे उपअणु अपनी क्रिया-कलाप जिस निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार संचरित करते हैं, उसी में विविध हलचलें उत्पन्न होती हैं और वस्तुओं के उद्भव से लेकर शक्ति उप शक्तियों की विद्या विभिन्न क्रम-विक्रमों के आधार पर चल पड़ती है। यह तीस वर्ष पुरानी मान्यता है। अब विज्ञान की आधुनिकतम शोधों ने बताया है कि अणु आरम्भ नहीं परिणति है। सृष्टि का मूल एक चेतना है, जिसे पदार्थ और विचार की द्विधा से सुसम्पन्न कहा जा सकता है। इस चेतना को वे प्रकृति कहते हैं। प्रकृति के स्फुल्लिंग ही परमाणु माने जाते हैं और कहा जाता है कि उन्हीं की गतिविधियों पर सृष्टि का उद्भव, विकास और विनाश अवलम्बित है। अध्यात्म विज्ञान इसकी बहुत अधिक गहराई तक जाता है और वह सृष्टि का आरम्भ प्रकृति और पुरुष के सम्मिश्रण से मानता है। वैज्ञानिक शब्दों में प्रकृति को रयि और पुरुष को प्राण भी कहा जाता है। इसी को शक्ति और शिव कहते हैं। वेदों में इसे सोम और अग्नि कहा गया है। और भी अधिक स्पष्ट समझना हो तो ऋण (निगेटिव) और धन (पॉजिटिव) विद्युत धारायें कह सकते हैं। विद्युत विज्ञान के ज्ञाता जानते हैं कि प्रवाह (करेंट) के अन्तराल में उपरोक्त दोनों धाराओं का मिलन-बिछुड़न होता रहता है। यह मिलन-बिछुड़न की क्रिया न हो तो बिजली का उद्भव ही सम्भव न हो सकेगा। प्रकृति और पुरुष के बारे में साँख्यकार की उक्ति है कि वह निरंतर मिलन-बिछुड़न के संघर्ष अपवय की प्रक्रिया संचरित करते हैं। फलस्वरूप परा और अपरा प्रकृति के नाम से पुकारा जाने वाला वह सृष्टि वैभव आरम्भ हो जाता है, जिसका प्रथम परिचय हम अणु प्रक्रिया द्वारा प्राप्त करते हैं। क्लॉक घड़ियों में पेण्डुलम लगा रहता है और गतिचक्र के नियमानुसार एक बार हिला देने पर वह स्वयमेव हिलते रहने की क्रिया करने लगता है और घड़ी की मशीन चलने लगती है। प्रकृति और पुरुष निरन्तर उसी प्रकार का मिलन बिछुड़न क्रम संचरित करते हैं और सृष्टि का क्रिया-कलाप दीवार घड़ी की पेण्डुलम प्रक्रिया की तरह चल पड़ता है। इस सूक्ष्म तत्व ज्ञान का एक अन्तर विज्ञान को और भी अधिक स्पष्ट समझना हो तो उसे नर-नारी का रूपक दिया जा सकता है। ब्रह्म को नर और प्रकृति को नारी का प्रतीक प्रतिनिधि माना जा सकता है। सृष्टि का उद्भव विकास और विगठन करने वाली शक्ति त्रिवेणी को ब्रह्मा, विष्णु, महेश के नाम से पुकारते हैं। यों तत्व एक ही है, पर उसके क्रिया-कलाप की भिन्नता को अधिक स्पष्टता के साथ समझने-समझाने के लिए तीन देवताओं का नाम दिया गया है। वे तीनों ही सपत्नीक हैं। ब्रह्मा की पत्नी का नाम सावित्री, विष्णु की लक्ष्मी और शिव की उमा प्रख्यात हैं। इस अलंकार के पीछे इसी तथ्य का प्रतिपादन है कि सृष्टि का उद्भव अकेले ब्रह्म से नहीं वरन् प्रकृति के संयोग से होता है। नर और नारी दोनों मिलकर ही एक व्यवस्थित शक्ति का रूप धारण करते हैं, जब तक यह मिलन न हो गति एवं चेतना उत्पन्न ही न होगी और सब कुछ शून्य निष्प्राण की तरह पड़ा रहेगा। नृतत्व विज्ञान की दृष्टि से पति-पत्नी का मिलना सृष्टि का स्थूल कारण है। संयोग या संभोग से ऊर्जा उत्पन्न होती है। प्रजनन प्रक्रिया में मिलन-बिछुड़न क्रम की एक रगड़ संघर्ष जैसी हलचल चलती है। इससे सृष्टि के अति सूक्ष्म क्रिया-कलाप का अनुमान लगाया जा सकता है। शरीर का जीवन इसी क्रिया-कलाप पर जीवित है। माँस-पेशियाँ सिकुड़ती-फैलती हैं। और जीवन शुरू हो जाता है। साँस का संचरण, दिल की धड़कन, नाड़ियों का रक्त संचार, कोशिकाओं का क्रिया-कलाप इस मिलन-बिछुड़न की- आकुँचन प्रकुँचन की क्रिया पर ही निर्भर है। जिस क्षण यह क्रम टूटा उसी क्षण मृत्यु की विभीषिका सामने आ खड़ी होती है। यह तथ्य मात्र देह के जीवन का नहीं- सम्पूर्ण सृष्टि का है। समुद्र में उठने वाले ज्वार-भाटे की तरह यहाँ सब कुछ उस संयोग-वियोग पर हो रहा है, जिसे अध्यात्म की भाषा में प्रकृति और पुरुष अथवा रयि और प्राण कहते हैं। मानव जीवन इसी सर्वव्यापी क्रिया-कलाप पर निर्भर है। नर और नारी मिलकर स्थूल जीवन को पुरुष और प्रकृति के संयोग से चलने वाले सूक्ष्म जीवन क्रम की तरह विनिर्मित करते हैं। इसलिये सामाजिक जीवन में नर और नारी का मिलन एक अनिवार्य आवश्यकता बन गया है। अपवाद की बात अलग है। विवशता और अति उच्चस्तरीय आदर्शवादिता नर-नारी के मिलन को वर्जित भी रख सकती है, पर वह मात्र अपवाद है। उनमें स्वाभाविक नहीं और न सरल विकास क्रम की क्रम-व्यवस्था का ही समावेश है। स्वाभाविक जीवन नर-नारी के सुयोग संयोग से विकसित होता है, इस तथ्य को स्वीकार करने में किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। यह संयोग मात्र प्रजनन के लिए नहीं है और न इन्द्रिय तृप्ति के लिये। वंश वृद्धि और आह्लाद की आवश्यकता इन क्रियाओं को अपनाने के लिए भी प्रेरणा कर सकती है, पर नर-नारी के मिलन के आधार पर बनने वाला संयोग मूलतः दोनों की प्रसुप्त चेतनाओं को जगाने के लिए, जन्म से लेकर मरण पर्यन्त यह आवश्यकता समान रूप से बनी रहती है। बचपन में माता का स्तन पीना, गोदी में खेलना लाड़-दुलार एक आवश्यकता है। मातृ विहीन लड़के और पितृ विहीन लड़कियाँ मनोवैज्ञानिक दृष्टि से बहुत हद तक अविकसित रह जाते हैं। बहिन-भाइयों का साथ खेलना परिवार की शोभा है। जिन घरों में केवल लड़के ही लड़के हैं या लड़कियों ही लड़कियाँ हैं, उनमें सर्वतोमुखी प्रतिभा का विकास बहुत कुछ रुका रहता है और मानसिक अपूर्णता को वहाँ सहज ही देखा जा सकता है। यौवन के आँगन से प्रवेश करते ही दाम्पत्य-जीवन की व्यवस्था जुटानी पड़ती है। ढलती आयु में यह जरूरत पुत्र और पुत्रियों को गोदी में खिलाते हुए पूरी होती है। इस प्रकार प्रकारान्तर में नर-नारी आपस में प्रायः गुथे ही रहते हैं और अपनी-अपनी विशेषताओं के कारण एक दूसरे की प्रतिभा की-प्रसुप्त शक्तियों को जगाने की महत्वपूर्ण भूमिका स्थापित करते रहते हैं। मनोविज्ञान शास्त्री डॉ. फ्राइड ने मानव जीवन के विकास की सबसे महती आवश्यकता “काम” मानी है। जिसे वह नर और नारी के मिलन से विकसित होने वाली मानता है। चूँकि अपने देश में ‘काम’ शब्द प्रजनन क्रिया एवं संयोग के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा है, इसलिये वह अश्लील जैसा बन गया है और उसे हेय दृष्टि से देखा जाता है। इसलिये फ्रायड को उपरोक्त मान्यता अपने गले नहीं उतरती और न रचती है। पर यदि उसे वैज्ञानिक परिभाषा के आधार पर सोचें और शब्दों के प्रचलित अर्थों को कुछ समय के लिये उठाकर एक ओर रख दें तो इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ेगा कि सृष्टि के मूल कारण प्रकृति पुरुष के मिलन से लेकर दाम्पत्य जीवन बसाने तक चली आ रही काम प्रक्रिया विश्व की एक ऐसी आवश्यकता है जिसे अस्वीकार करने में केवल आत्म-वंचना ही हो सकती है। दुरुपयोग हर वस्तु का निषेध है। अति को सर्वत्र वर्जित किया गया है। अविवेकी मनुष्य ने हर इन्द्रिय को दुरुपयोग करने में कोई कसर नहीं रखी है। जिव्हा को ही लें तो कटु और असत्य भाषण से लेकर अभक्ष भोजन तक की दुष्प्रवृत्ति अपनाकर अपना शारीरिक, मानसिक, नैतिक आर्थिक सब प्रकार अहित ही किया गया है। यह दोष जिव्हा की स्वाद एवं संभाषण क्षमता का नहीं। इनका सदुपयोग किया जाय तो जिव्हा हमारे जीवन में विकास क्रम की महती भूमिका सम्पादित कर सकती है। इसी प्रकार जननेन्द्रिय को सीमित और सोद्देश्य प्रयोग के लिए प्रतिबन्धित कर दिया जाय। संयम और ब्रह्मचर्य के महत्व को समझते हुए मर्यादाओं के अंतर्गत रहते हुए तत्सम्बन्धित कामोल्लास का लाभ किया जाय तो उससे हानि नहीं, लाभ ही होगा। हानि तो दुरुपयोग से है। सो दुरुपयोग अमृत का करके भी हानि उठाई जा सकती है और सदुपयोग विष का भी किया जाय तो उससे भी आश्चर्यजनक लाभ उठाया जा सकता है। हेय काम प्रकृति नहीं- भर्त्सना उसके दुरुपयोग की की जानी चाहिए। नर-नारी का मिलना जितना ही प्रतिबन्धित किया जायगा उतनी ही विकृतियाँ उत्पन्न होंगी। सच तो यह है कि अनावश्यक प्रतिबन्धों ने ही हेय काम प्रवृत्ति को भड़काया है। बच्चा माँ का दूध पीता है, उसे स्तन स्पर्श से कुछ भी अश्लीलता प्रतीत नहीं होती है और न लज्जा जैसी कोई बुराई दीखती है। आदिवासी क्षेत्रों में, पिछड़े, कबीलों में, स्त्रियाँ प्रायः छाती नहीं ढकती। वहाँ किसी को इसमें अश्लीलता और काम विकार भड़काने वाली कोई बात ही प्रतीत नहीं होती। यह मानसिक कुत्सायें और मूढ़ मान्यतायें ही हैं, जिन्होंने नारी के स्तन जैसे परम पवित्र और अभिवन्दनीय अंग को विकारों का प्रतीक बनाकर रख दिया। यह विचार विकृति का दोष ही है कि अति स्वाभाविक और अति सामान्य नारी के- एक कुत्सा गढ़कर खड़ी कर दी है। काम का विकृत स्वरूप जिसने मनुष्य की एक प्रकृति प्रदत्त दिव्य सामर्थ्य को कुत्सित बनाकर रख दिया वस्तुतः हमारी बौद्धिक भ्रष्टता ही है। पशु-पक्षी नग्न रहते हैं। उनकी जननेन्द्रिय बिना ढकी रहती है। सभी साथ-साथ खाते, सोते हैं, पर बिना अवसर की माँग हुये दोनों पक्षियों में से कोई किसी की ओर ध्यान तक नहीं देता, आकर्षित होना तो दूर। मनुष्यकृत गर्हित कामशास्त्र को यदि जला दिया जाय और प्रकृति की स्वाभाविक प्रेरणा और जीवन विकास के पुण्य प्रयोजन के लिए उस संजीवनी शक्ति का सदुपयोग किया जाय तो काम-क्रीड़ा गर्हित न रहकर जीवनोत्कर्ष की एक महती आवश्यकता पूर्ण कर सकने में समर्थ बनाई जा सकती है। बेटी, भगिनी और माता का पिता, भाई और पुत्र के साथ विनोद और उल्लास भरा संपर्क अहितकर नहीं, हित कारक ही हो सकता है, उसी प्रकार नर-नारी के बीच खड़ी करदी गई एक अवाँछनीय विभीषिका यदि गिरा दी जाय तो इससे अहित क्यों होगा? दाम्पत्य-जीवन की बात ही लें, उसमें से कुत्सायें हटा दी जायें और परस्पर सहयोग एवं उल्लास अभिवर्धन वाले अंश को प्रखर बना दिया जाये तो विवाह उभय पक्ष की अपूर्णता दूर करके एक अभिनव पूर्णता का ही सृजन करेगा। इस दिशा में भगवान कृष्ण ने एक क्रान्तिकारी शुभारम्भ किया था। उन दिनों अबोध बालकों और बालिकाओं का सहचरत्व भी प्रतिबन्धित था। लोगों ने एक काल्पनिक विभीषिका गढ़कर खड़ी कर ली थी कि नर-नारी चाहे वे किसी भी आयु के, किसी भी मनःस्थिति के क्यों न हों, मिलेंगे तो केवल अनर्थ ही होगा। इस मान्यता ने जन साधारण की मनोभूमि तमणाछिन्न कर रखी थी और छोटे बच्चे भी परस्पर इसलिए हँस-बोल नहीं सकते थे, खेल-कूद नहीं सकते थे क्योंकि वे लड़के और लड़की के भेद से प्रतिबन्धित थे। कृष्ण भगवान ने इस कुण्ठा को अवाँछनीय बताया और उन्होंने लड़के-लड़कियों को साथ हँसने, खेलने के लिए आमन्त्रित करते हुए रासलीला जैसे विनोद आयोजन खड़े कर दिये। उन्हें अवाँछनीय लगा कि मनुष्य-मनुष्य के बीच इसलिए दीवार खड़ी कर दी जाये कि एक वर्ग को नारी कहा जाता है और उसके मूँछें नहीं आतीं। दूसरे वर्ग को इसलिए अस्पर्श्य घोषित किया जाय कि वह पुण्य है और उसकी मूंछें आती हैं। प्रजनन अवयवों की बनावट में प्रकृति प्रदत्त अन्तर सृष्टि की शोभा विशेषता है। इतने नन्हें से कारण को लेकर मनुष्य जाति के दो परस्पर पूरक पक्षों को यह मानकर अलग कर दिया जाय कि वे जब मिलेंगे तब केवल अनर्थ ही सोचेंगे, अनर्थ ही करेंगे। यह मनुष्य ही मनुष्य के प्रति अविश्वसनीयता की अति है। प्रतिबन्धित करके किसी को भी सदाचरण के लिए विवश नहीं किया जा सकता। जेल में कैदी हथकड़ी, बेड़ी पहने हुए भी बड़े-बड़े अनर्थ करते हैं। घूंघट और पर्दे के कठोर प्रतिबन्ध रहते हुए भी दुनिया में न जाने क्या-क्या हो रहा है, सगे भाई-बहिन, पिता, पुत्र जैसे बाह्याचार के भीतर ही भीतर न जाने क्या-क्या बनता बिगड़ता है, उन कुत्सित कथा-गाथाओं को कहने-सुनने में कुछ लाभ नहीं। बात सोचने की यह है कि यदि मनुष्य की सज्जनता-ईमानदारी और प्रामाणिकता को विकसित न किया गया हो तो कड़े से कड़े प्रतिबन्ध आदमी की बुद्धि चातुरी को चुनौती नहीं दे सकते। वह हर कानून और हर प्रतिबन्ध के रहते हुए भी चाहे जो कर गुजर सकता है। मानवीय चरित्र निष्ठा को उनकी श्रद्धा, विवेकशीलता और दूरदर्शिता तथा आदर्शवादिता को विकसित करके ही परिपक्व करनी होगी। अन्यथा प्रतिबन्ध कड़े करते जाने में परस्पर सहयोग से उपलब्ध हो सकने वाले अगणित भौतिक लाभों और असीम आत्मिक उत्कर्षों से वंचित रहकर अपार हानि का ही सामना करना पड़ेगा और हम निरन्तर पिछड़ते ही चले जायेंगे। भगवान कृष्ण की रास परिहास आन्दोलन के पीछे यही क्रान्तिकारी भावना काम कर रही थी। आध्यात्मिक काम शास्त्र की जानकारी हमें सर्व-साधारण तक पहुँचानी ही चाहिए। भले ही उस प्रशिक्षण को अवाँछनीय या अश्लील कहा जाय। सृष्टि के इतने महत्वपूर्ण विषय को जिसकी जानकारी प्रकृति जीव-जन्तुओं तक को करा देती है उसे गोपनीय नहीं रखा जाना चाहिए। खास तौर से तब जबकि इस महत्वपूर्ण विज्ञान का स्वरूप लगभग पूरी तरह से विकृत और उलटा हो गया हो। जो मान्यतायें चल रही हैं, वे चलती ही जायें। सुलझे हुए समाधान और सुरुचिपूर्ण प्रावधान यदि प्रस्तुत न किये गये तो विकृतियों ही बढ़ती, पनपती चली जायेंगी और उससे मानव जाति एक महती शक्ति का दुरुपयोग करने अपना सर्वनाश ही करती रहेगी। आध्यात्मिक काम विज्ञान नर-नारी के निर्मल सामीप्य का समर्थन करता है। दाम्पत्य जीवन में उसे इन्द्रिय तृप्ति और काम-क्रीडा द्वारा उत्पन्न होने वाले हर्षोल्लास की परिधि तक बढ़ाया जा सकता है। इसके अतिरिक्त वह सौम्य सामीप्य अप्रतिबन्धित रहना चाहिए। जिस प्रकार दो नर या दो नारी चाहे वे किसी वय के हों निर्बाध रूप से हँस-बोल सकते हैं और स्नेह सामीप्य बढ़ा सकते हैं और उससे कुछ भी अनुचित आशंका नहीं की जाती, इस प्रकार नर-नारी का परस्पर व्यवहार भी निर्मल और निष्कलंक रखा जा सकना अति सरल है। इस सौम्य सरलता को प्रतिबन्धित नहीं किया जाना चाहिए। प्रतिबन्ध परक प्रयोग पिछले बहुत दिनों से चले आ रहे हैं और उनके निष्कर्षों ने उस मान्यता की निरर्थकता ही सिद्ध की है। पर्दे की प्रथा चलाकर हमने क्या पाया? केवल इतना भर हुआ कि नवागन्तुक वधुयें अपनी ससुराल का जो अविच्छिन्न स्नेह पा सकती थी, अनुभवी गुरुजनों का परामर्श प्राप्त कर सकती थी, अपनी कठिनाइयों की चर्चा करके समाधान पा सकती थीं, उससे वंचित रह गईं। उन्हें ससुराल का वातावरण पितृ गृह से उतना भिन्न और विपरीत लगा जितना स्वच्छन्द विचरण करने वाले पक्षी को आँखें बन्द करके, चारों ओर से पर्दा लगाकर रखे गये पिंजड़े में बन्द किये जाने की स्थिति में हो सकता है। कई भावुक लड़कियाँ तो इस जमीन-आसमान जैसे परिवर्तन से बुरी तरह घबरा जाती है और उन्हें हिस्टीरिया सरीखे-भय, भूत-प्रेत, घबराहट जैसी अनेकों मानसिक बीमारियाँ उठ खड़ी होती हैं। ऐसी स्थिति में हीनता की भावना बढ़ना नितान्त स्वाभाविक है। सब लोग हँसी-खुशी से घर-बाहर घूमें और हँसें-बोलें पर उस वयस्क नारी की, जिसकी भावुकता नये वातावरण में बहुत ही उभरती है और नई परिस्थितियों में ढलने, बदलने के लिए उस परिवार के भारी मानसिक सहयोग की आवश्यकता पड़ती है-यदि मुँह ढककर एक कोने में बैठे हुए प्रतिबन्धित कैदी की स्थिति में पटक दिया जाये तो निस्सन्देह उसका मानसिक प्रभाव घुटन, कुण्ठा, अरुचि, विवशता, ज्यादती के रूप में ही होगा। या तो विद्रोह भड़केगा या अन्तःकरण अपना अहं खोकर सर्वथा दीन-हीन, पराधीन हो जायेगा। दोनों ही मनः स्थितियाँ अवाँछनीय है। इससे नारी की भाव सम्पदाओं का-सृजनात्मक विभूतियों का नाश हो सकता है। हुआ भी है। पर्दा प्रथा ने नव वधुओं के साथ सचमुच बहुत अनीति बरती और ज्यादती की है और उसका परिणाम समस्त समाज को भोगना पड़ा है। यह अस्वाभाविक प्रक्रिया एक कदम भी जीवित न रह सकी। पर्दा का उद्देश्य रत्तीभर भी सफल न हुआ। उसका उद्देश्य नर और नारी के बीच पारस्परिक आकर्षण को रोकना था। वह कहाँ पूरा हुआ। नव वधू केवल ससुराल में सास-ससुर, जेठ आदि गुरुजनों से पर्दा करती है। जो वस्तुतः उसे बेटी जैसी ही समझ सकते हैं। जिनसे खतरा है, उनके तई तो पर्दा फिर भी खुला रह सकता है। यदि व्यभिचार की रोक-थाम की समस्या है तो उसकी सबसे अधिक गुंजाइश पितृगृह के स्वच्छन्द वातावरण में रहती है। ससुराल में भी बाहर के लोगों से हाट बाजार में-मेले-ठेले में किसी से भी मुँह खोलकर बातें की जा सकती हैं। ससुराल में भी यदि उस आकर्षण की गुंजाइश है तो देवर से है, जो पति की अपेक्षा अधिक मृदुल लग सकता है। उससे पर्दा नहीं, बुजुर्गों से पर्दा-इस मूर्खता को किसी भी तथ्य के आधार पर समर्थित नहीं किया जा सकता, जो आज-कल चल रही है। पर्दे की प्रथा उन विदेशी शासकों की देन है जो दूसरों की बहिन-बेटियों को केवल पाप अनाचार की दृष्टि से ही देखते और उनका अपहरण करने में नहीं चूकते थे। उन दिनों पर्दे का कुछ सामयिक उपयोग हो भी सकता था। अरब के रेगिस्तानों में जहाँ रेतीली आँधियाँ चलती रहती थीं। आँख, नाक, कान, मुँह आदि को कूड़े-कचरे से बचाने के लिए पर्दे का प्रचलन कुछ समझ में भी आता है। पर भारत की वर्तमान परिस्थिति में कहीं घूँघट, पर्दे की गुंजाइश है, इसका कोई कारण समझ में नहीं आता। यौवन कोई अभिशाप नहीं- नारी का शरीर मिलना कोई पाप नहीं है। इस ईश्वरीय अनुदान को निष्ठुरतापूर्वक प्रतिबन्धित किया जायगा तो उसकी प्रतिक्रिया अवाँछनीय और अनुपयुक्त ही होगी। पर्दे ने नारी का मनोबल गिराया और उसकी अगणित क्षमताओं को कुचलकर फेंक दिया। उससे इसकी उपयोगिता में कमी आई और स्थिति यहाँ तक जा पहुँची कि लड़कियों का विवाह करना हो तो लड़के वाले रिश्वत के रूप में दहेज, नकदी, जेवर और गुलामी जैसी दीनता माँगते हैं। यह स्थिति तभी बनी जब नारी का मूल्य बे हिसाब गिर गया। यदि उसका उचित मूल्य स्थिर रखा गया होता तो बिना कीमत अपना शरीर मन और सहयोग देने के लिये महान आत्मिक अनुदान देने वाली वधू के ससुराल वाले चरण धो-धोकर पीते। पशु भी कीमत देकर खरीदा जाता है। अनेक गुणों से विभूषित वधू घर में आवे तो उसे लेने के लिये उपेक्षा दिखाई जाय और रिश्वत माँगी जाय इस दयनीय स्थिति के पीछे नारी का वह अवमूल्यन झाँक रहा है, जो पर्दे जैसे प्रतिबन्धनों ने अवाँछनीय और अनुचित रूप से प्रस्तुत कर दिया। अध्यात्म तत्व ज्ञान की मान्यतायें नर-नारी के बीच की उन अवाँछनीय दीवारों को तोड़ना चाहती हैं जो मनुष्य को मनुष्य से पृथक करती हैं और एक दूसरे का सहयोग करने में अस्वाभाविक, अप्राकृतिक प्रतिबन्ध उत्पन्न करती हैं। यौन विकृतियों और व्यभिचार के खतरों को रोकने के दूसरे तरीके हैं। एक दूसरे से सर्वथा पृथक रखने वाली प्रक्रिया इस प्रयोजन को पूरा नहीं करती। आधी जनसंख्या को इन प्रतिबन्धों के नाम पर अपंग बनाकर हम अपने ही पैरों में कुल्हाड़ी मार रहे हैं। सारी समस्या का एकमात्र कारण वह बौद्धिक भ्रष्टाचार है, जिसने नारी को कामिनी और रमणी का अतिरंजित चित्रण करके उसे एक भयावह चुड़ैल के रूप में प्रस्तुत कर दिया। तथाकथित कलाकारों-चित्रकारों, मूर्तिकारों, कवियों, गायकों, साहित्यकारों, अभिनेताओं ने नारी का कुत्सित अंश ही उभारा-उसे यौन आकर्षण का प्रतीक मात्र बनाया और उस भ्रान्ति को अधिकाधिक सघन करने में अपनी सारी कलाकारिता का अन्त कर दिया। नर और नारी के बीच पाये जाने वाले प्राण और रयि-अग्नि और सोम स्वाहा और स्वधा तत्वों का महत्व सामान्य नहीं असामान्य है। सृजन और उद्भव की-उत्कर्ष और आह्लाद की असीम सम्भावनायें उसमें भरी पड़ी हैं, प्रजा उत्पादन तो उस मिलन का बहुत ही सूक्ष्म या स्थूल और अति तुच्छ परिणाम है। इस सृष्टि के मूल कारण और चेतना के आदि स्रोत इन द्विधा संस्करण और संचरण का ठीक तरह मूल्याँकन किया जाना चाहिए और इस तथ्य पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि इनका सदुपयोग किस प्रकार विश्व कल्याण की सर्वतोमुखी प्रगति में सहायक हो सकता है और उनका दुरुपयोग मानव जाति के शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य को किस प्रकार क्षीण विकृत करके विनाश के गर्त में धकेलने के लिए दुर्दान्त दैत्य की तरह सर्वग्राही संकट उत्पन्न कर सकता है। अश्लील अवाँछनीय और गोपनीय संयोग कर्म ही हो सकता है। विकारोत्तेजक शैली में उसका वर्णन अहितकर हो सकता है। पर सृष्टि संस्करण के आदि, उद्गम प्रकृति पुरुष के संयोग से किस प्रकार यह विश्व वसुधा गतिशील हो रही है। नर-नारी के बीच वह शिव शक्ति की द्विधा किस प्रकार काम कर रही है यह जानना न तो अनुचित है और न अनावश्यक। सच तो यह है कि इस पंचाग्नि विधा की अवहेलना अवमानना से हमने अपना ही अहित किया है। नर-नारी के बीच प्रकृति प्रदत्त विद्युतधारा से किस सीमा तक, किस दिशा में कितनी और कैसे श्रेयस्कर प्रतिक्रिया उत्पन्न करती है और उनकी विकृति विनाश का निमित्त कैसे बनती है। इस जानकारी को आध्यात्मिक काम विज्ञान कह सकते हैं। इसकी चर्चा क्रमशः अगले अंकों में पाठक पढ़ते रह सकेंगे।