Magazine - Year 1971 - Version 2
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Language: HINDI
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मनुष्य की सर्वश्रेष्ठता का मिथ्या अहंकार
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“मनुष्य संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है”- इस घोषणा के पीछे कोई सत्य भी है या नहीं इस बात पर विचार करने की आवश्यकता है।
मनुष्य की सर्व श्रेष्ठता का आधार यही तो माना जाता है कि उन में बुद्धि एवं विवेक का तत्व विशेष हैं। उसमें कर्त्तव्य परायणता, परोपकार, प्रेम, सहयोग, सहानुभूति, सहृदयता तथा संवेदनशीलता के गुण पाये जाते हैं। किन्तु इस आधार पर वह सर्वश्रेष्ठ तभी माना जा सकता है जब दृष्टि के अन्य प्राणियों में इन गुणों का सर्वथा अभाव हो और मनुष्य इन गुणों को पूर्ण रूप से क्रियात्मक रूप से प्रतिपादित करें। यदि इन गुणों का अस्तित्व अन्य प्राणियों में भी पाया जाता है और वे इसका प्रतिपादन भी करते हैं तो फिर मनुष्य को सृष्टि के सर्वश्रेष्ठ प्राणी मानने के अहंकार का क्या अर्थ रह जाता है।
आइये, पहले शारीरिक तथा बौद्धिक विशेषताओं की पालना करली जाये। शेर, हाथी, गैंडा, चीता, बैल, भैंसे, शुतुरमुर्ग, मगर मत्स्य आदि न जाने ऐसे कितने थलचर, नभचर और जलचर जीव परमात्मा की इस सृष्टि में पाये जाते हैं जो मनुष्य से सैकड़ों गुना अधिक शक्ति रखते हैं। मछली जल में जीवन भर तैर सकती है, पक्षी दिन भर आकाश में उड़ते रहते हैं क्या मनुष्य इस विषय में उनकी तुलना कर सकता है ? परिश्रम शीलता के संदर्भ में हाथी, घोड़े, ऊँट बैल, भैंसे आदि उपयोगी तथा घरेलू जानवर जितना परिश्रम करते और उपयोगी सिद्ध होते हैं, उतना शायद मनुष्य नहीं हो सकता। जबकि इन पशुओं का मनुष्य के भोजन में बहुत बड़ा अन्तर होता है।
पशु-पक्षियों के समान स्वावलंबी तथा शिल्पी तो मनुष्य हो ही नहीं सकता। पशु-पक्षी अपने जीवन तथा जीवनोपयोगी सामग्री के लिए किसी पर कभी भी निर्भर नहीं रहते। वे जंगलों, पर्वतों, गुफाओं तथा पानी में अपना आहार आप खोज लेते हैं। उन्हें न किसी पथ-प्रदर्शक की आवश्यकता पड़ती है और न किसी संकेतक की। पशु-पक्षी स्वयं एक दूसरे पर भी इस सम्बन्ध में निर्भर नहीं रहते। अपनी रक्षा तथा आरोग्यता के उपाय भी बिना किसी से पूछे ही कर लिया करते हैं। जीवन के किसी भी क्षेत्र में पशु-पक्षियों जैसा स्वावलम्बन मनुष्यों में कहाँ पाया जाता है। यहाँ तो मनुष्य एक दूसरे पर इतना निर्भर हैं कि यदि वे एक दूसरे की सहायता न करते रहें तो जीना ही कठिन हो जाय।
मनुष्य शिल्प, अनुकरण तथा उपकरणों पर निर्भर रहता है। वह कोई भी वस्तु अथवा स्थान का निर्माण बिना किसी से सीखे, देखे अथवा औजारों के अभाव में नहीं कर सकता। जबकि पशु-पक्षी अपना निवास स्वयं अपनी अन्तःप्रेरणा से बना लिया करते हैं। न तो वे उसके लिए किसी के पास शिक्षा लेने जाते हैं और न उन्हें किन्हीं उपकरणों की आवश्यकता होती है। लोमड़ी, बिलाव तथा शृंगालों आदि के निवास कक्ष देखते ही बनते हैं। वे अपनी मांदों तथा विवरों में सब प्रकार की सुविधा का समावेश कर लेते हैं। पक्षियों के घोंसले तथा कोंटर तो उनकी निर्माण कला के जीते जागते नमूने ही होते हैं। वया का घोंसला, मधुमक्खी का छत्ता, मकड़ी का जाला तथा चींटी, का विवर देखकर तो यही कहना पड़ता है कि परमात्मा ने उन क्षुद्र समझे जाने वाले जीवों को गजब की निर्माण बुद्धि दी है। उनका वह सूक्ष्म शिल्प देखकर मनुष्य का मन ईर्ष्या कर उठता है।
पशु-पक्षी अपनी घ्राण तथा दृष्टि शक्ति से ऋतुओं तथा आपत्तियों का ज्ञान इतना शीघ्र, सच्चा और यथार्थ रूप से कर लेते हैं कि मनुष्य के बनाये वैज्ञानिक बैरोमीटर आदि यन्त्र भी नहीं कर सकते। लोग पक्षियों एवं पशुओं की गतिविधियाँ देखकर ऋतु तथा संभाव्य के सम्बन्ध में बड़े बड़े निर्णय कर लेते रहे हैं और उस सम्बन्ध में उन्हें कभी धोखा नहीं हुआ है। आज कल के प्रशिक्षित कुत्तों ने तो अपराधों तथा अपराधियों की खोज में चतुर से चतुर जासूसों को मात दे दी है। पशु-पक्षी किसी भी ज्योतिषी से बढ़कर आकाश की गतिविधियों का अध्ययन कर लेते हैं उन्हें उनकी तरह किसी वेधशाला की आवश्यकता नहीं होती उनकी वेधशाला उनकी नासिका तथा आँखों में ही बनी हुई है। पशु-पक्षियों से अधिक मार्ग का ज्ञान मनुष्यों के लिये किसी प्रकार भी सम्भव नहीं। एक स्थान के पक्षी को किसी भी स्थान पर ले जाकर क्यों न छोड़ दिया जाये वह बिना किसी भूल अथवा भ्रम के अपने स्थान पर लौट आयेगा। इसी विशेषता के कारण बहुत समय तक कबूतर तथा हंस आदि पक्षी पत्र वाहक का उत्तरदायित्व निर्वाह करते रहे है।
वनस्पतियों का ज्ञान पशु-पक्षियों से अधिक एक आयुर्वेदाचार्य भी नहीं रखता। वे देखते अथवा सूँघते ही पहचान लेते हैं कि अमुक वनस्पति विषैली अथवा स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है, जबकि मनुष्य उन्हें बड़े-बड़े प्रयोगों के आधार पर ही पहचान पाता है। यदि ऐसा न हो तो बीहड़ जंगलों में जहाँ, हितकर तथा अहितकर वनस्पतियाँ एक दूसरे के पास ही नहीं एक दूसरे से लिपट-चिपटकर आती हैं, वे अपना गुजर कैसे कर सकें। शीघ्र ही अज्ञान वश कोई विषैली वनस्पति खाकर जीवन खोते रहते, जबकि न तो उनके लिये कोई मेडिकल कॉलेज ही खुले हैं और न कोई आयुर्वेदाचार्य उन्हें इस ज्ञान की शिक्षा देने जाता है। इस प्रकार इन साधारण बातों में देख सकते हैं कि पशु-पक्षी, बल, बुद्धि, विद्या, परिश्रम तथा शिल्प आदि में मनुष्यों से कहीं आगे है। तब इस आधार पर अपने को सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी मानना कहाँ तक न्याय संगत है।
कर्त्तव्य के सम्बन्ध में भी मनुष्य पशु-पक्षी की तुलना में कहाँ आते हैं। परमात्मा ने उन्हें जो भी थोड़े बहुत, बड़े छोटे कर्त्तव्य सौंपे हैं उनका वे पूरी तरह से उत्साहपूर्वक निर्वाह करते हैं। वे नित्य नियम से प्रातःकाल जागते अपनी अपनी भाषा में परमात्मा का गुण-गान करते। दिनभर अपनी जीविका के लिये दौड़ते घूमते तथा परिश्रम करते और संध्या समय नियत समय पर अपने अपने निवासों पर लौट आते हैं। वे अपनी आजीविका आप तलाश करते न किसी की चीज पर निर्भर रहते और न चुराने का प्रयत्न करते हैं। वे प्रकृति के विशाल प्राँगण से अपना आहार चुग आते और दूसरों के लिये छोड़ आते हैं। न तो संग्रह करने की कोशिश करते हैं और न कुछ चुराने अथवा छीन लाने की। हजारों पशु अपने नियत स्थान पर और न जाने कितने पक्षी एक ही पेड़, खेत अथवा मैदान में साथ-साथ खाते और मौज करते रहते हैं। न तो कोई किसी को भगाता है और खाने से मना करता है। किसने कितना खा लिया इस और तो उनका कभी ध्यान ही नहीं जाता। यदि एक जाति के पक्षियों के बीच विजातीय पक्षियों का झुण्ड आ जाता है तो वे उन्हें भी आहार ग्रहण करने का पूरा अवसर तथा स्वतन्त्रता देते हैं।
कभी भी देखा जा सकता है कि जब कोई पशु-पक्षी कहीं आहार का संग्रह देख लेता है तो चुपचाप चोर की तरह खाने नहीं लगता, वह सबसे पहले अपनी भाषा में अपने सहचरों को बुला लेता है और तब सबके साथ मिलकर खाया करता है। आप कभी भी किसी स्थान पर दाने डालकर देख सकते हैं कि जहाँ एक पक्षी ने देखा कि उसने दूसरों को पुकारना शुरू किया और थोड़ी ही देर में पंडुक, गौरैया, तोते आदि न जाने कितने पक्षी वहाँ पर जमा हो जायेंगे। लोग बन्दरों को चने अथवा गेहूँ डालते हैं। जहाँ बन्दर ने देखा नहीं कि उसने ऊह-ऊह करके आवाज देना शुरू किया और क्षेत्र के सारे छोटे बड़े बन्द आकर उसका लाभ उठाते हैं। खाते समय भी कोई सबल कदाचित ही किसी निर्बल को भगाता हो। नर एवं मादा का भी उनमें कोई अन्तर नहीं देखा जाता।
अपने नीड़ में सुरक्षित ही क्यों न बैठा हो किन्तु खतरा देखते ही कोई भी पक्ष तत्काल चीखकर सबको उस खतरे के प्रति सावधान कर देता है। कभी भी देखा जा सकता है कि किसी विलाव अथवा बाज को कोई ऐसा पक्षी देखले जो उनकी आँखों से ओट में बैठा हो अथवा उनकी पहुँच से परे हो, और उनका खतरा किसी अन्य पक्षी को ही क्यों न हो तथापि वह विचार किये बिना कि बाज या विलाव उसे देख लेगा, वह चीख-चीखकर अपने साथियों को सजग कर देता है। गिलहरी बिल्ली को देखते ही किर-किर करती हुई तब तक पेड़ पर दौड़ती रहती है जब तक बिल्ली ही न भाग जाय अथवा सभी गिलहरियों के साथ पक्षी तक सजग एवं सतर्क नहीं हो जाते। किसी कारण से अभी लड़ चुकने पर भी पक्षी अथवा पशु खतरे से अपने उस द्वेषी को भी सावधान करने के अपने कर्त्तव्य से नहीं चूकता। पशु-पक्षी एक दूसरे को, खुजलाते, सहलाते, चाटते तथा रोमों की कीट बीनते कभी भी देखे जा सकते हैं। यह सब देखकर स्पष्ट कहा जा सकता है कि सहायता, सहयोग तथा पारस्परिकता के आधार पर मनुष्य पशु-पक्षियों से किसी भी दशा में आगे नहीं है।
मजबूरी के कारण हिंस्र जीवों को छोड़कर अन्य कोई पशु-पक्षी मनुष्य को कभी भी कोई क्षति नहीं पहुँचाता। बल्कि मनुष्य ही उल्टा अपने मनोरंजन के लिए पिंजड़ों में बन्दी कर लेता है, स्वाद के लिये मारकर खा जाता है। काम लेने के लिये अपने अधीन बना लेता है। चमड़ा, हड्डी तथा चरबी के लिये उनका वध करता रहता है। मनुष्य पशु-पक्षियों को क्षुद्र तथा अपने से हीन मानता है किन्तु यह नहीं देखता कि पशु-पक्षी उसे कितना क्षुद्र तथा अविश्वासी मानते हैं। जंगली हिरन गायों के बीच हो सकता है। भैंसों, बैलों तथा अन्य तृण जीवी पशुओं के बीच जा सकता है, उनके साथ उठ बैठ सकता है किन्तु मनुष्य की छाया से घृणा करता है उसे देखते ही दूर भाग जाता है। एक पक्षी बैल के सींग पर बैठ सकता है, उसकी आँख नाक में लगी चीजों को निर्भयता पूर्वक अपनी चोंच से खा सकता है। शेर तक की पीठ पर बैठकर उसके रोओं के कीटाणु चुन सकता है किन्तु मनुष्य पर भूलकर भी विश्वास नहीं करता। दूर से ही इस अपने को दिव्य प्राणी कहने वाले को देखकर ‘फुर’ से उड़ जाते हैं। इस तुलना में तो सच पूछा जाये तो मनुष्य पशु-पक्षियों से गया बीता ही है।
कृतज्ञता तथा वफादारी में मनुष्य पशु-पक्षियों की तुलना ही नहीं कर सकता। आप किसी कुत्ते के बच्चे को पालिये उसका प्रेमपूर्वक पालन कीजिए तो वह होश संभालते ही रात रात भर आपके घर की चौकसी करता रहेगा। जरा सा खटका होते ही भौंक भौंक कर आपको सजग कर देगा। आपत्ति के समय प्राण देकर भी आपकी रक्षा करेगा। आपके आक्रमणकारी पर आपसे पहले ही जा पहुँचेगा। फिर भी इसके लिये वह आप पर कोई अहसान न दिखलायेगा आपसे कोई विशेष सुविधा अथवा अच्छा भोजन न माँगेगा। आप जो कुछ जूठा, सीठा, ताजी, बासी दे देंगे खाकर सन्तुष्ट रहेगा और कृतज्ञता पूर्वक आपके चारों ओर दुम हिलाता घूमेगा आपके पैरों में प्रेम से लिपटेगा। न जाने कितने चेतक आदि स्वामी भक्त घोड़ों और हाथियों ने अपने पालन कर्त्ता की जान बचाने में अपनी जान गंवा दी है और आज भी गंवा देते होंगे। कितने मनुष्यों के ऐसे उदाहरण मिल सकते हैं जिन्होंने अपने उपकारी पशु के लिये खतरा झेल लिया हो, उसकी रक्षा में जान खोई अथवा क्षति उठाई हो। इन सब बातों के होते हुए भी यदि मनुष्य अपने आपको पशु-पक्षियों से ऊँचा और सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी मानता है तो यह उसका दम्भ ही कहा जायेगा।
हाँ मनुष्य सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी तब माना जा सकता है जब वह इन पशु-पक्षियों की विशेषताओं तथा गुणों से आगे बहुत आगे निकल जाये। उसमें इतने प्रेम, सहानुभूति दया, करुणा तथा उदारता एवं सम्वेदना का विकास हो जाये कि परस्पर संघर्ष, शोषण तथा असहयोग, द्वेष, ईर्ष्या आदि के विचार तो दूर ही हो जायें साथ ही संसार के अन्य पशु-पक्षियों तक पर भी उसका प्रभाव पड़े। वे मनुष्य को देखते ही प्रेम विभोर होकर अपनी-अपनी बोली में “हमारा जेष्ठ एवं श्रेष्ठ आ गया” कहते हुये उसका स्वागत करने लगें और चारों ओर घेरकर अपना स्नेह तथा श्रद्धा व्यक्त करने लगें। अभी वह दिन दूर है जब मनुष्य अपने को संसार का सर्वश्रेष्ठ प्राणी कहलाने के योग्य होगा।
मनुष्य होकर भी जो दूसरों का उपकार करना नहीं जानता उसके जीवन को धिक्कार है। उससे धन्य तो पशु ही हैं जिनका चमड़ा तक (मरने पर) दूसरों के काम आता है।