Magazine - Year 1971 - Version 2
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Language: HINDI
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योग का मर्म
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महर्षि अंगिरा ने शिष्य गोपमाल का तिलक किया .............................- तात ! मैं जानता हूँ कि तुम्हारे अन्तःकरण की आकाँक्षा अत्यन्त प्रबल है तो भी तुम जाओ ................ धर्म की मर्यादा के अनुसार गृहस्थ-धर्म ........... करो।
आपकी आज्ञा शिरोधार्य है गुरुदेव ! पर यह संसार मायाधन है वहाँ जाकर मुक्ति जैसे जीवन-लक्ष्य को भूल जाऊं तो ?
भूलोगे नहीं तात ! यदि तुमने कर्म के फल में आसक्ति रखी तो गृहस्थ जैसे कठोर उत्तरदायित्व का पालन करते हुए भी तुम उसी लक्ष्य की और अपने आप को .......... पाओगे, जिसके लिये तुम गृहस्थ का परित्याग करना चाहते हो। गोपमाल ने और अधिक प्रतिवाद नहीं किया। वह अपने घर आ गया। श्रावस्ती के एक ग्रामीण कन्या हेमामालिनी के साथ विवाह कर सुख से जीवन बिताने लगा।
गृहस्थी के कार्य बड़े बेढंगे होते हैं एक बार धन के भव में गोपमाल को अपनी गायें बेचनी पड़ी, तब तो पता नहीं चल पाया पर जब वह गायें विचरकर चली गयीं और उनका वध भी हो गया तब उसे पता चला कि गायें धोखे से कसाई के हाथ बेच दी गयीं। गोपमाल का अन्तःकरण क्षुब्ध हो उठा। इस अनजाने में हुये पाप के प्रति उसका अन्तःकरण क्षुब्ध हो उठा। इस अनजाने में हुये पाप के प्रति उसका अन्तःकरण तीव्रता से छटपटाने लगा।
अब उसने निश्चय किया कि गृहस्थी के उत्तरदायित्वों का परित्याग कर देगा। उसने यह बात किसी से बताई नहीं तथापि उसने जीवन में आकस्मिक परिवर्तन और तीव्र विरक्ति देख कर हेमामालिनी ने उसके मन की बात जान ली। उसने निश्चय कर लिया यदि गोपमाल गृहस्थ का परित्याग करते हैं तो मैं भी उनके साथ ही गृह परित्याग कर दूँगी।
रात्रि का निविड़ अन्धकार हाथ को हाथ नहीं सूझता था, गोपमाल चुपचाप उठा जैसे ही आगे बढ़ने को हुआ देखा कि हेमामालिनी सम्मुख खड़ी है। मुझे मत रोको देवी ! उससे आहत वाणी में कहा।
रोकती नहीं आर्य, मैं तो स्वयं भी आपके साथ चलने को प्रस्तुत हूँ आत्मकल्याण क्या पुरुष की ही आवश्यकता है नारी की नहीं ? हेमामालिनी ने पूछा ! “ हे भन्ते। किन्तु अन्तेवासी जीवन को कठोरता तुम कैसे सहन कर सकोगी। गोपमाल ने प्रतिवाद किया। “
आप कर सकते हैं तो मैं भी कर सकती हूँ याद है परिग्रहण के समय मैंने आपको हर कष्ट में साथ रहने का वचन दिया था उसे भी तो पालन करना है। गोपमाल कुछ उत्तर दे इससे पूर्व ही एक आकृति सामने आई। गोपमाल ने उन्हें पहचाना। यह तो महर्षि खड़े है उसने उन्हें प्रणाम किया। आशीर्वाद देते हुए अंगिरा ने कहा-तात ! तुम दोनों आत्म-कल्याण के इच्छुक हो, दोनों तितीक्षाएं सहन करने के लिये तैयार हो पर जो सामाजिक जीवन की विपरीत परिस्थितियों से ही नहीं लड़ सकता वह भला, एकान्त जीवन के संघर्ष से क्या मुकाबला करेगा। तुम्हारे पलायन से भी संसार इस तरह के पाप और अपराध करेगा फिर क्या उचित न होगा कि तुम संसार में ही रहकर लोगों को पाप से बचाने और उन्हें सन्मार्ग पर लगाने का प्रयत्न करो।
लेकिन गुरुवर अनजान में हुई भूलों का उत्तरदायी कौन होगा- देव ! यही समझने में तो निष्काम कर्मयोग का सारा मर्म छिपा है। मनुष्य कर्म करे पर सफलता या विफलता सुख या दुःख मान या अपमान सब में अपने आपकी स्थिर रखकर फल से प्रभावित न हो तो संसार की बुराइयों का उत्तरदायी भी भगवान को माना जा सकता है। मनुष्य को तो अपने आपको उसका प्रतिनिधि मानकर लोक सेवा का ध्यान रखना चाहिए।
गोपमाल को मानो सिद्धि मिल गई उस दिन से उसने कर्म से विरक्ति का परित्याग कर दिया और लोक कल्याण को ही अपना लक्ष्य मानकर जीवन यापन करने लगा।