Magazine - Year 1971 - Version 2
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Language: HINDI
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विराट् को पढ़ें ही नहीं कुछ अर्थ भी निकालें
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डॉ. विकी नामक प्रसिद्ध खगोलज्ञ से एकबार एक पत्रकार ने प्रश्न किया– आप बता सकते हैं अति सूक्ष्म से अति विशाल कितना बड़ा है डॉ. विकी ने खड़िया उठाई और एक बोर्ड में लिखा 100000000000000000000000000000000000000000000000 (10 से आगे 47 शून्य) गुना। जबकि यह मात्र अनुमान है सत्य में विराट् जगत कितना विराट् है उसकी कोई माप जोख नहीं है।
उसी प्रकार अणु इतना सूक्ष्म है कि उसकी सूक्ष्मता की सही माप कठिन है। परमाणु के नाभिक का व्यास 0000000000001 मिलीमीटर होता है इस नगण्य जैसी स्थिति को आँखें तो इलेक्ट्रानिक सूक्ष्मदर्शी से भी कठिनाई से ही देख पाती है। दोनों परिस्थितियाँ देखते ही ऋषियों का “अणोरणीयान् महतोमहीयान्” अर्थात्- ”वह अणु से अणु और विराट् से विराट् है” वाला पद याद आता है।
“मनुष्य इन दोनों के मध्य का एक अन्य विलक्षण आश्चर्य है ?” यह कहने पर डॉ. विकी से प्रश्नकर्ता ने पूछा- सो क्यों ? इसका उत्तर देते हुए उन्होंने बताया मनुष्य जिन छोटे-छोटे कोशों (सेल्स-शरीर की सूक्ष्मतम इकाई का नाम सेल है यह जीवित पदार्थ का परमाणु होता है ) से बना है उनकी संख्या भी ऐसी ही कल्पनातीत अर्थात् 7000000000000000000। इसमें आश्चर्य यह है कि इन सभी अणुओं में प्रकाशमान नाभिक की संगति आकाश के एक तारे से जोड़े तो यह देखकर आश्चर्य होगा कि समस्त ब्रह्माण्ड इस शरीर में ही बसा हुआ है। डॉ. विकी के इस कथन और ऋषियों के “यह ब्रह्माण्डे तत्पपिण्डे” जो कुछ ब्रह्माण्ड में है वह सब मनुष्य देह में ऐसी विलक्षणता और विराट् देह प्राप्त करके भी मनुष्य अब क्षुद्र जीव जन्तुओं का सा जीवन जीता है तो ऐसा होता है कि मनुष्य को इस शरीर की देन देकर भगवान ने ही भूल की अथवा मनुष्य ने स्वयं ही उस सौभाग्य को अज्ञान द्वारा नष्ट कर लिया।
मनुष्य सूर्य मंडल के जीवन चक्र हैं। सूर्य से सवा नो करोड़ मील दूर रहने वाली हमारी पृथ्वी को ग्रह कहते हैं क्योंकि इसका अपना प्रकाश नहीं है यह सूर्य की द्युति से चमकता है। शुक्र, मंगल, बृहस्पति, शनि, यूरेनस, प्लूटो सभी सूर्य से उधार प्रकाश पाकर चमकते हैं इसलिये इन्हें ग्रह-उपग्रह कहते हैं। जो अपनी चमक से चमकते हैं उन्हें तारा कहते हैं। सूर्य इस परिभाषा के अंतर्गत एक तारा ही है। इसके आठ ग्रह हैं। इन आठों ग्रहों के अपने अपने चन्द्रमा हैं। कम से कम 2500 छोटे उपग्रह भी सौर परिवार के सदस्य हैं। अपने सौर मंडल में दो विशाल उल्का पुँज और पुच्छल उल्का पुँज और पुच्छल तारे भी हैं।
अन्य तारे, सूर्य और उसके अन्य सदस्य ग्रह-उपग्रहों से मिलकर बना संसार एक आकाश गड़ा कहलाता है। हम जिस’ स्पाइनल’ आकाश गंगा में रहते हैं उसमें विभिन्न गैसों की बनी 19 निहारिकाएं है। अपना सौरमंडल उन्हीं में से एक है। प्रत्येक निहारिका में 25 खरब तारों के होने का अनुमान है। इस तरह अपनी आकाश गंगा में ही 25x19=475 खरब तारागण होंगे।
19 निहारिकाओं वाली आकाश गंगा का क्षेत्रफल 100000 x 32000 = 3200000000 वर्ग प्रकाश वर्ष है। 1 प्रकाश वर्ष में 186000 x 60 x 60 x 24 x 365 1 /4 =5869713600000 मील होते हैं फिर 3200000000 वर्ग प्रकाश वर्षों की दूरी का तो कोई अनुमान ही नहीं हो सकता 475 खरब तारामण्डल तो इस क्षेत्र के केवल 1 प्रतिशत भाग में बसते हैं शेष 99 प्रतिशत भाग तो शून्य है। देखने में ऐसा लगता है कि तारागण बहुत पास पास हैं यदि वे चलते होगे तो प्रतिक्षण आपस में टकराते रहते होंगे पर आकाश में कोई भी तारा परस्पर 25000000000000 मील दूरी से कम नहीं।
आकाश की गहराई की सीमा यहीं समाप्त नहीं हो जाती। अभी तक तो आकाश गंगा में ही चक्कर काट रहे है। हमें अपनी पृथ्वी स्थिर और सूर्य को उसके इर्द-गिर्द चक्कर काटते दिखाई देता समझ में आता है पर खगोलज्ञों ने सिद्ध कर दिया है कि सूर्य नहीं पृथ्वी ही सूर्य की परिक्रमा करती है। यह सब समिति दृष्टिकोण की बातें है जिस प्रकार मनुष्य अपने एक गाँव एक प्राँत एक देश का ही निवासी मानकर रहन- सहन, खान-पान, वेषभूषा, भाषा संस्कृति के प्रति संकुचित दृष्टिकोण अपनाता है पर जब वैज्ञानिकों के यह संदर्भ सामने आते हैं तब पता चलता है कि अनन्त आकाश के क्षुद्र जन्तु मनुष्य-मनुष्य में कोई भेद नहीं। समस्त मनुष्य जाति एक है। उसे एक नियम व्यवस्था के अंतर्गत परस्पर मिल जुलकर रहना चाहिये। यदि वह परस्पर बैर भाव रखता है स्वार्थ और संकीर्णता की बात सोचता और करता है तो यह उसकी अबुद्धिता ही कही जायेगी।
इस सम्बन्ध में वैज्ञानिकों के कथन भी पूर्ण सत्य नहीं। उनके द्वारा प्रतिष्ठापित मान्यतायें अभी हमारी दार्शनिक मान्यताओं और हमारे ऋषियों की उपलब्धियों के सामने वैसी जैसे अन्त आकाश में आकाश गंगा और निहारिकाओं के सिद्धाँत हमें जीवन की वास्तविकता को भौतिक वरन् जैसा वेद कहते है-
पतंगमक्तमसुरस्य मायया हदा पश्यन्ति मनसा विपश्चितः।
समुद्रे अन्तः कवयो विचक्षते मरीचीनाँ पदमिच्छन्ति वेवसः॥
परमात्मा की अद्भुत इच्छा द्वारा शरीर धारण करके प्रकट हुये मनुष्यों ! अपने आपको ज्ञान भक्ति और मनन द्वारा प्राप्त करो संसार समुद्र के बीच प्रत्येक पदार्थ को कवि की दिव्य से देखना चाहिए। जो ध्यान में स्थित होकर तेज को मूल स्थान को ढूंढ़ते हैं वही आत्मा का पूर्ण रहस्य प्राप्त करते हैं।
विज्ञान और ब्रह्मांड की गहराइयाँ उसी ओर लेकर चल रही हैं। अब यह निश्चित हो चुका है कि सूर्य है कि सूर्य भी अपने समस्त परिवार के साथ अपनी आकाश गंगा के केन्द्र से 33000 प्रकाश वर्ष दूरी पर रहकर 170 मील प्रति सेकेंड की गति से उसकी परिक्रमा कर रहा है। इस तरह हम सौर मंडल-निहारिका से आकाश गंगा के सदस्य हो गये। जितना यह विराट् बढ़ा हम और छोटे हो गये उसी के अनुसार हमारे विचार और व्यवहार का तरीका भी बदलना चाहिये, तब तक जब हम सम्पूर्ण अस्तता को प्राप्त नहीं कर लेते।
अमरीका की माउन्ट पैलोमर वेधशाला में सबसे बड़े 200 इंच व्यास वाली दूरबीन है इसे वैज्ञानिक हाले ने बनाया था। बड़े दृष्टिकोण से संसार की असलियत का सबसे अधिक स्पष्ट और सही अनुमान होता है इस दूरबीन से देखने पर पता चला कि अपनी आकाश गंगा से 3000000000 प्रकाश वर्ष अर्थात् 20000000000000000000000 मील की दूरी पर सूर्य मंडल जैसे 1000000000 और सौर मंडल या निहारिकाएं है। ऊपर दिये आंकड़ों के अनुसार इन निहारिकाओं में तारागणों की संख्या 25000000000 खरब होनी चाहिये। जबकि इन तारागणों द्वारा घेरे जाने वाला क्षेत्र कुल 1/100 ही होगा अर्थात् सम्पूर्ण विस्तार इन तारागणों के क्षेत्रफल से कही 99 गुना अधिक होगा।
इस सारे नक्शे को एक कागज में उतारना पड़े और दूरी का मापक 1 प्रकाश वर्ष को 1 इंच के बराबर माना जाये तो भी कागज की लम्बाई कई निहारिकाओं की लम्बाई से बढ़कर होगी। ज्यामिती शास्त्र (ट्रिगनोमेट्री) के अनुसार चन्द्रमा की दूरी निकालने के लिए चार हजार मील की लम्बी आधार रेखा चाहिए फिर इन निहारिकाओं में बसने वाले तारे तो इतने दूर हैं कि उनकी दूरी निकालनी पड़ जाये तो 20 करोड़ मील लम्बी तो आधार रेखा ही चाहिये इतनी बड़ी पटरी (फुटा) बनानी सम्भव हो जाये तो उसका एक छोर पृथ्वी में रखकर नापने से भी सूर्य की आधी दूरी तक की ही माप हो सकेगी। सूर्य को पाने के लिए उसके दो गुने से भी अधिक लम्बाई आवश्यक होगी।
अनंत विस्तार के यह संदर्भ संकेत करते हैं कि मनुष्य अणु से ही उलझा न रहकर विराट् का अर्थ भी निकाले और विराट् भी बने । भगवान ने उसे जो सर्वशक्ति सम्पन्न देह और बुद्धि दी है वह भी इसीलिए कि उसे तुच्छ जीवों की सी स्थिति में ही पड़े न रहकर आत्मा का उत्थान और कल्याण करना चाहिए।