Magazine - Year 1971 - Version 2
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Language: HINDI
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सर्व समर्थ आध्यात्मिकता, उसके प्रमाण
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स्वामी योगानन्द ने तब योग दीक्षा नहीं ली थी पर उनने भारतीय दर्शन का स्वाध्याय किया था, उनकी जिज्ञासायें बहुत प्रखर थीं इसलिये वे किसी एक अध्यात्मिक व्यक्ति की खोज में रहते थे जिसमें आत्मिक प्रतिभाओं का विकास स्पष्ट देखने में आता हो। उन्होंने इस दृष्टि से परख की तो पता चला कि युक्तेश्वर में वह सारी क्षमतायें है जो किसी योगी में होनी चाहिए। यद्यपि वे सदैव आत्मकल्याण की साधना में लगे रहते थे तथापि लोगों के मन और मस्तिष्क की बातें जान लेने, आशीर्वाद से किसी का भला कर देने, भविष्य जान लेने आदि की अतींद्रिय क्षमताओं का उनमें पूर्ण जागरण हो चुका था। योगानन्द उनके शिष्य हो गये। योग के प्रति उनमें कौतूहल का भाव तो रहता था पर प्रारम्भिक अवस्था होने के कारण वे कठिन साधनाओं में प्रवेश का साहस नहीं कर सकते थे।
सन्तोष नाम एक लड़का योगानन्द का मित्र था। उसके पिता डॉ. नारायण चन्द्र राय नास्तिक व्यक्ति थे। किसी भी भौतिकतावादी व्यक्ति की तरह उन्हें आत्मा, परमात्मा, परलोक, पुनर्जन्म, स्वर्ग, मुक्ति आदि किसी पर भी कोई विश्वास न था। धार्मिक व्यक्ति मिलते उनसे वे प्रायः उल्टे तर्क किया करते। जिज्ञासायें और बाज हैं व्यंग और जिज्ञासायें तो आध्यात्मिकता का लक्षण हैं यदि वह न हों तो व्यक्ति ईश्वर और आत्मा जैसे जटिल विषय तो क्या सामान्य जीवन से सम्बन्धित बौद्धिक और मानसिक क्षमतायें ही विकसित नहीं का पाता। डाक्टर साहब थे कि वे जिज्ञासा के नाम पर धार्मिकता का व्यंग और उपहास ही अधिक किया करते थे। सच्ची लगन होती तो उन्हें वह परिस्थितियाँ मिलती अवश्य। आज के भ्रान्त युग में जबकि धर्म के नाम पर ठगी अधिक हो रही है सच्ची आध्यात्मिकता का न अन्त हुआ और न ही कभी इस देश से होगा।
एक दिन उन्होंने कुछ ऐसे ही मूड में योगानन्द से उनके गुरु से भेंट करने की इच्छा प्रकट की। मित्र सन्तोष के पिता होने के कारण वे डॉ. साहब को पिता की तरह ही मानते थे। उन्हें लेकर वे श्री युक्तेश्वर के पास आये। बड़ी देर तक बातचीत होती रही। पीछे वे उठकर चले गये तो उनने छूटते ही योगानन्द से कहा- “ऐसे मृत व्यक्तियों को आश्रम में क्यों ले आते हो।” यह घटना स्वामी योगानन्द की पुस्तक “ओटोबाई ग्राफी आफ योगी” के आधार पर उद्धृत की जा रही है।
श्री योगानन्द ने समझा कि जिसकी मानसिक चेष्टायें भौतिकता, स्वार्थ और भोगवाद में आसक्त हों वे एक प्रकार से मृतक ही होते हैं इसी अर्थ में युक्तेश्वर ने उन्हें मृत कहा होगा। फिर भी उन्होंने पूछ ही लिया-गुरुदेव! डाक्टर साहब तो जीवित हैं आपने मृत कैसे कह दिया।
श्री युक्तेश्वर बोले- बेटा वह 6 महीने से अधिक जीवित रहने वाला नहीं। 15 दिन में ही बीमार पड़ जायेगा। डाक्टरी इलाज तो उसे अच्छा न कर सकेंगे पर पीछे तुम मुझसे रक्षा कवच ले जाना उससे उसका स्वास्थ्य 6 सप्ताह में ही अच्छा हो जायेगा। लेकिन उसे समझाना वह बाद में माँस न खाये, शराब न पिये। फिर कुछ देर रुककर बोले- मानेगा तो वह है नहीं और इसीलिये उसकी मृत्यु हो जायेगी।
योगानन्द आश्रम से वापस आ गये। 15 दिन बीते सचमुच डॉ. साहब किसी असाध्य रोग से पीड़ित हो चार पाई पर पड़ गये। डाक्टरों ने बहुतेरा इलाज किया पर अच्छे होने की अपेक्षा वह क्षीण ही होते गये। योगानन्द श्री युक्तेश्वर से एक रक्षा कवच ले आये। पहले तो राय साहब ने उसे पहनने से ही इनकार कर दिया पर पुत्र सन्तोष और घर वालों के कहने से उनने उसे धारण कर लिया। उसके बाद से एकाएक उनकी स्थिति में सुधार होता गया और सचमुच ही 6 सप्ताह पीछे वे पूर्ण चंगे हो गये।
योगानन्द ने श्री युक्तेश्वर का आगे का भी सन्देश उन्हें कह सुनाया पर श्री राय जी थे अन्धे भौतिकतावादी। न तो घटनाओं से उन्होंने कुछ सीखा न आध्यात्मिकता उनमें श्रद्धा जगा सकी। उन्होंने स्वस्थ होते ही माँस खाना, अंडे खाना शुरू कर दिया। यही नहीं उन्होंने ऐसा न करने को अवैज्ञानिक, मूर्खता और दकियानूसी आदि जो कुछ भी शब्द उनकी दिमागी डिक्शनरी में थे प्रयुक्त कर डाले। बात उनने एक की भी न सुनी। कुछ दिन में उनका स्वास्थ्य बहुत अच्छा हो गया तो एक दिन योगानन्द से व्यंग करते हुये कहा-देखो माँस खाकर कितना मोटा हो गया-नैतिकता, जीव दया आदि का उपदेश भला ऐसे सख्त व्यक्ति को क्या प्रभावित करे उनके लिये तो प्रकृति के क्रूर दण्ड प्रहार ही प्रयुक्त होते जो आज नहीं तो कल, सवेर नहीं तो थोड़ा देर से ही सही पर वे अवाँछनीयता के दण्ड से वंचित नहीं रह सकते। जीव हिंसा जैसे पाप के दण्ड से कोई बच नहीं सकता।
उसी रात न जाने कैसा क्या हुआ। 9वाँ महीना पूर्ण होने को कुल एक दो दिन ही शेष थे। रात दिल में दर्द पैदा हुआ और डाक्टर साहब आध घण्टे में ही संसार से विदा हो गये। श्री योगानन्द ने सुना तो उनके मुख से यही निकला-सचमुच जो संसार की परिस्थितियों पर गम्भीरतापूर्वक दूरदर्शी विचार नहीं करते केवल अपने थोड़े से ज्ञान के कारण ही अहंकार में डूबे फिरते हैं वह न भी मरें तो भी मृत ही है। उन्हें क्या तो कोई महात्मा, क्या स्वयं भगवान भी नहीं बचा सकता।
सनत की कृपा सब पर समान है उनके लिये अच्छे, बुरे में कोई भेदभाव नहीं। वे तो सभी के कल्याण का प्रयत्न करते हैं। सेवा से ही सच्ची तृप्ति के आधार पर कोई आये वे सभी को कुछ न कुछ देने की भावना रखते हैं।
एक दिन योगानन्द (तब उनका नाम मुकुन्द था) के साथ शशि नाम उनका एक और भी मित्र श्री युक्तेश्वर के दर्शनों के लिये उनके पास गया। श्री युक्तेश्वर ने और बातचीत के दौरान थोड़ा गम्भीर होकर शशि से कहा- बेटा! मनुष्य जीवन का उपयोग क्षणिक इन्द्रिय सुख ही नहीं यदि ऐसा ही होता तो मनुष्य और पशु में अन्तर ही क्या रह जाता। मनुष्य को दी गई-बुद्धि विवेक, ज्ञान और आत्मिक सम्पदायें इस बात के लिये हैं कि वह संसार की यथार्थता समझें और जीवन लक्ष्य प्राप्त करें। बुद्धिधारी होकर भी यदि मनुष्य इन्द्रिय सुखों तक ही सीमित रहता है तो इसे उसका पागलपन ही कहना चाहिये। यह में इसलिये कह रहा हूँ कि तुम्हारा जीवन बड़ा अस्त-व्यस्त असंयमित है यदि तुम संभले नहीं तो आने वाले दिनों में गम्भीर संकट में पड़ जाओगे।
योगियों जैसे दूरदर्शी विचार और अनुभव शक्ति सब मनुष्यों में ही धार्मिकता का सारा प्रशिक्षण इसी धुरी पर घूमता है पर अश्रद्धालु लोग उसे कहाँ समझ पाते हैं। शशि के लिये युक्तेश्वर के इतने शब्द “संजीवनी” थे पर तब जब वह उनकी वास्तविकता समझता। उसने सुना तो पर एक कान से, दूसरा कान उपदेश को निकल जाने के लिए खुला रखा। धार्मिक उपदेश सुनने के नहीं, व्यवहार में लाने के लिये होते हैं। केवल सुन लेना या पाठ कर लेने मात्र से आत्म-कल्याण हो जाता तो ऋषि मनीषी जीवन भर कठोर साधनायें न किया करते।
न समझने का यह फल हुआ कि बीमार पड़ गया। जाँच करने से पता चला कि टी.बी. हो गई। उसके दोनों फेफड़ों में गहरे जख्म पैदा हो गये। बचने की ना उम्मीद हो गई। तब एक दिन वह अपने पिता को लेकर पुनः युक्तेश्वर के पास आया और बोला- गुरुदेव! आपकी बात न मानने का फल मेरे सामने है। आत्म बल की कमी के कारण ऐसा हुआ महात्मन् अब तो कुछ कृपा करिये। आगे से अपने आपको अवश्य संभालूंगा। तुच्छ इन्द्रिय भोगों से मन को हटाकर उसे पुण्य परमार्थ में लगाऊँगा।
श्री युक्तेश्वर उसके जीवन के सारे पाप आदि देर तक पूँछते रहे। युवक ने सारी बातें पश्चाताप पूर्वक बतादी और आगे से फिर वैसा कुछ न करने का वचन दिया। युक्तेश्वर ने कहा- जाओ जौहरी के यहाँ से “ज्योतिथचूड़ा” लेकर पहन लेना। अब की तुम्हें अच्छा कर देंगे। फिर कभी दुराचार और इन्द्रिय असंयम में प्रवृत्त मत होना, अन्यथा अध्यात्म कोई जादू नहीं जो तुम्हारी बार-बार रक्षा करता रहेगा आखिर तो तुम्हें अपना उद्धार आप करना हैं।
शशि उनकी बात मान गया। वह कुछ ही दिन में पूर्ण स्वस्थ हो गया। औषधि तो उसने नाम मात्र की ही ली। उसे आध्यात्मिकता पर ऐसा विश्वास हुआ कि उसके जीवन का सारा उद्देश्य, रीति-नीति और कर्म कलाप ही बदल गये। फिर वह पूर्ण स्वस्थ और सुखी जीवन जिया। एक भी रोग उसके पास नहीं फटका।
भौतिक दृष्टि से यह शंकास्पद बातें हैं पर अब इन शंकाओं को दूर करने का समाधान विज्ञान ने खोज लिया हैं। रोग रासायनिक अस्तव्यस्तता के परिणाम होते हैं। कैल्शियम की कमी से दांतों की बीमारी हो जाती हैं। शरीर का 75 प्रतिशत भाग 16 रासायनिक तत्वों से बना हैं। इन्हीं की अस्त-व्यस्तता से दुनिया भर के रोग होते हैं। जिन्हें डाक्टर स्थूल परीक्षण द्वारा अलग-अलग नाम देते हैं।
आध्यात्मिक पुरुष रोगों का कारण इन रासायनिक तत्वों की सूक्ष्म अवस्था को मानते हैं। वस्तुतः शारीरिक और मानसिक सभी संस्कार “जीन्स” में होते हैं जो जीवित शरीर की इकाई कोश (सेल) का सूक्ष्म भाग है। उसे प्रकाश या लहर जैसी चेतना भी कह सकते हैं। सूक्ष्मदर्शी व्यक्ति के आचरण उनके रोगी या नीरोग होने का पता लगा लेते हैं और आवश्यकतानुसार अपनी ओर से उन सूक्ष्म कणों में परिवर्तन कर उन्हें बचा भी लेते हैं।
योगी-महात्माओं के लिए, सिद्धि की गहराइयों तक पहुँचे हुये अध्यात्मवादियों के लिये यह सब बातें कोई अधिक महत्व नहीं रखती। इनसे तो अध्यात्म की सर्वोपरिता ही सिद्ध हो सकती हैं। अध्यात्म का मूल-प्रयोजन अंतःकरण को प्रकाशित करना, जन्म और मृत्यु के अन्तर को पाटना, बन्धन मुक्ति और लौकिक व पारलौकिक सुख-शाँति प्राप्त करना है उसके लिये आवश्यक है कि डाक्टर साहब की तरह केवल तर्कवादी ही न बना जाये जीवन में श्रद्धा आनी चाहिये और उस श्रद्धा का उपयोग आत्म-सुधर में किया जान चाहिए। तभी हम अध्यात्म के लोभों से सही अर्थों में लाभान्वित हो सकते हैं।