Magazine - Year 1972 - Version 2
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Language: HINDI
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अनीति से समझौता नहीं
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साम्राज्ञी समुद्रा के सम्मुख अपनी मनोव्यथा व्यक्त करते हुए अनर्त नरेश जरुत्कार ने कहा— "समुद्रे ! आप जानती हैं। सम्राट पुलकेशिन ने वाजपेय यज्ञ आयोजित किया है। एक बार अनर्तवासी प्रजाजन के बौद्धिक उत्कर्ष के लिए मैंने भी वाजपेय आयोजित किया था। उस समय सम्राट पुलकेशिन स्वयं ही पधारे थे और महारानी भी उनके साथ थीं। आज जब उन्होंने वाजपेय आयोजित किया है तो नियमानुसार राजकुल के ही किसी प्रतिनिधि को उसमें भाग लेना चाहिए।"
अपनी विवशता को स्पष्ट करते हुए महाराज ने आगे कहा— "मैं सांतापन कर रहा हूँ और पूर्णाहुति में आपको मेरे साथ रहना चाहिए। अपने कोई पुत्र भी नहीं है। ऐसी स्थिति में, इस यज्ञ में किसे भेजा जाए? यही तो असमंजस है।"
महाराज का वाक्य अभी पूरा हुआ ही था कि राजकुमारी रत्नावती बोल उठीं— "महाराज! स्मृत्यर्थ सार में बताया गया है कि कोई यजमान किसी अनुष्ठान में भाग न ले सकता हो तो उसकी पत्नी, पुत्र अथवा पुत्री भाग ले सकते हैं। स्पष्ट शास्त्रीय आदेश के बाद भी असमंजस। आर्यश्रेष्ठ! मुझे आज्ञा दीजिए। महाराज पुलकेशिन के इस यज्ञ में अनर्त का प्रतिनिधित्व आपकी कन्या रत्नावती करेगी और यह दिखा देगी कि नारियाँ गृहस्थ संस्था का ही नहीं, धर्ममंच का भी संपादन सफलतापूर्वक कर सकती हैं।"
पुत्री रत्नवती के शीश पर हाथ फिराते हुए महाराज श्री, किंचित रूखी हँसी हँसे और बोले— "मैं जानता हूँ रत्नावती! तू योग्य है। तूने शास्त्राध्ययन ही नहीं किया, तेरे पास विचारों की पूँजी भी है। जनसमाज को जागृत करने की प्रतिभा का तुझमें अभाव नहीं है, तथापि.......।" महाराज कुछ रुके फिर स्वयं ही बोले— "तू नहीं जानती रत्ना! भारतीय कन्या का संबंध निश्चित हो जाने के बाद उसके माता-पिता के अधिकार गौण हो जाते हैं। राजकुमार वृहद्बल की आज्ञा प्राप्त किए बिना तुझे इस यज्ञ में भेजना संभव नहीं है और उनसे स्वीकृति प्राप्त करने के लिए यथेष्ट समय भी नहीं है।”
राजकुमारी ने कहा— "इसमें स्वीकृति की क्या आवश्यकता— महाराज! यह तो अंतर्राष्ट्रीय आवश्यकता है। संसार के किसी भाग की धर्मविमुखता, मदांधता और अज्ञानता का प्रतिफल समूचे विश्व के विनाश का कारण हो सकता है। पड़ोस में लगी आग की लपटें कब अपने घर आ जाएँ, कहा नहीं जा सकता; इसलिए विज्ञजन इसे अपना स्वार्थ समझकर दूसरों के घर लगी आग बुझाने दौड़ते हैं। लोक-मंगल के पुण्य-परमार्थ के लिए आप आज्ञा लेने की बात कहते हैं। यदि ऐसे पवित्र कार्यों में विघ्न-बाधा उपस्थित करने वाला कोई अपना सगा-संबंधी हो तो उसकी अवज्ञा या उपेक्षा ही नहीं, प्रतिरोध भी किया जाना चाहिए।"
जरुत्कार ने पुत्री की दृढ़ता देख उसे यज्ञ में भाग लेने की अनुमति दे दी। रत्नावती ने यज्ञ में भाग लेने के साथ ही जनजागृति अभियान का निपुणतापूर्वक संचालन किया। सारा राष्ट्र जाग उठा और साथ ही राजकुमारी का यश भी चारों ओर फैल गया।
राजकुमार वृहद्बल को यह बात अच्छी नहीं लगी। उन्होंने रत्नावती का संबंध ठुकरा दिया। महाराज जरुत्कार ने दूसरा संबंध ढूंढ़ने का प्रयास किया; किंतु रत्नावती ने दूसरा संबंध नहीं स्वीकारा। उन्होंने आत्मसाक्षात्कार के लिए कठोर तप किए। उनकी साधना के संवाद वृहद्बल तक भी पहुँचे। एक दिन वे स्वतः राजकुमारी के पास जाकर अपनी भूल के लिए क्षमा माँगने लगे, पर राजकुमारी ने विवाह करने से इनकार करते हुए कहा— "इस देश की कोई भी कन्या अन्याय के सम्मुख घुटने न टेके। मैं इसकी प्रेरणास्वरूप आजीवन कुमारी ही रहूँगी।"
रत्नावती ने सुख और वैभव का जीवन त्याग दिया और जीवन की अंतिम साँस तक लोक-मंगल का कार्य किया।