Magazine - Year 1972 - Version 2
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Language: HINDI
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अपनों से अपनी बात— महानता प्राप्त करने की दिशा में एक चरण आगे बढ़ाएँ
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बड़प्पन का मौसम चला गया। बरसाती फसल बोए और उगाए
जाने की फसल चली गई। अब बैसाखी रबी की फसल बोई जानी है। अब गेहूँ, जौ और चना
ही बोया और उगाया जाएगा। बरसाती अनाज मक्का आदि जिस मौसम में बोए, उगाए और
काटे जाते हैं, वह अब रहा नहीं।
किसी को वे फसलें अब नहीं बोनी चाहिए, जो
झर बादल के दिनों में ही आनन-फानन में तैयार होती थीं। अब लंबी सर्दियाँ
सामने आ रही हैं और पानी बरसने की आशा भी कम है। ऐसी परिस्थितियों को सहन कर
सके, अब उन्हीं फसलों को बोया-उगाया जाना चाहिए।
एक समय था, जब थोड़ी-सी चतुराई के बल पर
आसानी से बड़ा आदमी बना जा सकता था। भोले लोगों को उलझाकर किसी भी स्तर पर
पैसा बनाया जा सकता था और अपने को भाग्यवान, पुण्यवान, दैवी कृपापात्र
सिद्ध किया जा सकता था। भगवान का एकाध बड़ा मंदिर बना देना और रामनामी ओढ़
लेने से लोग डर जाते थे कि देवता इनके वश में है।
ये जो चाहे सो कर या करा
सकते हैं। उन दिनों एक ओर आतंक, एक ओर निराशा थी, इसलिए आतंकवादी और भोलेपन की
संगति में चतुराई, बड़प्पन का आधार खड़ाकर देती थी। उस अमीरी को देखकर अनेक
अभावग्रस्त चापलूस पीछे-पीछे फिरते थे। उनकी सहायता से मनमानी करना और भी
सरल हो जाता था और इस सरंजाम को खड़ा कर लेने वाला सहज ही ठाठ-बाट का बड़ा
आदमी बन जाता था।
अब वह समय बिलकुल चला गया। जहाँ ध्वंसावशेष
खड़े हैं और बालू के किले रच दिए गए हैं, वे आजकल में ढहने ही वाले हैं।
जनता काफी सजग और चतुर हो गई है। जिन्हें कुछ मतलब निकालना हो, उनकी बात
अलग है। साधारणतया बड़ा आदमी हर किसी की आँख में खटकता है और
ईर्ष्या-द्वेष का शिकार बनता है। जनसाधारण की तुलना में बहुत ऊँचा स्तर बना
लेना अब निष्ठुर, चोर या डाकू लोगों की तुलना में गिना जाता है; भले ही वह
अन्य
न्यायानुमोदित ही क्यों न कमाया गया हो। इस कटु आलोचना में इतना तो तथ्य भी
है कि जिस आपत्तिकाल में युग की पुकार एक-एक पैसे एवं एक-एक श्रमबिंदु के
लिए थी, उन दिनों ये तथाकथित बड़े आदमी अपना वैभव बटोरने में लगे रहे
और विश्वमानव की आवश्यकता को समझने में उपेक्षा, निष्ठुरता एवं कृपणता
दिखाई।
जो हो, अब हर दूरदर्शी का दृष्टिकोण बदलना
चाहिए। उसे बड़ा आदमी बनने की महत्त्वाकांक्षाएँ छोड़नी चाहिए और महान बनने
की राह पकड़नी चाहिए। आज समझदारी का तकाजा इसी परिवर्तन की अपेक्षा करता
है। महानता का मार्ग घाटे का नहीं, वरन दुहरे लाभ का है। उसमें आत्मसंतोष
के साथ लोक-मंगल की वे संभावनाएँ भी जुड़ी हुई हैं, जिनके कारण इतिहास
बदलता है और व्यक्ति को ‘हीरो’ बनने का अवसर मिलता है। आमतौर से इसे घाटे
का रास्ता समझा जाता है। यह भ्रांति है। महानता के पीछे-पीछे बड़प्पन भी
छाया की तरह जुड़ा रहता है। गाँधी, बुद्ध, नेहरू, पटेल, तिलक, मालवीय,
राजेंद्र आदि ने विशेष रूप से महानता के पथ पर ही चरण बढ़ाए थे, पर
उन्हें बड़प्पन की उपलब्धियाँ भी कहाँ कम मिलीं। बड़े आदमी एक कोठी-बँगला
भर बना पाते हैं, पर महामानव जनता के हृदय में चिरकाल तक अपना भाव भरा घर
बनाए रहते हैं।
गुरुदेव अपने प्रियजनों के लिए महानता की
उपलब्धियाँ प्रस्तुत करने के लिए आकुल और आतुर रहे हैं। जौहरी का धंधा
उन्होंने किया है और उसी को अपने अनुयाइयों को सिखाना चाहते हैं। यह
दुर्भाग्य ही है कि लोग तुच्छ भौतिक लाभों को लेकर उससे प्राप्त होनेवाले बड़प्पन की
कीचड़ से बाहर निकलने को तैयार नहीं होते। छोटे लोगों की छोटी कामनाओं में
जो छोटापन भरा रहता है, उसे भी वे जुटाते रहते हैं, पर इससे उन्हें न संतोष
होता है और न उत्साह मिलता है। सारी दुनिया भी यदि बड़े आदमियों से भर
जाए तो उनसे न उन व्यक्तियों का कुछ लाभ होने वाला है और न लोकहित सधने
वाला है। अधिक खा-पहन लें और सुख-सुविधाओं की परिस्थिति प्राप्त कर लें तो
इतने भर से किसी का क्या बना? शरीर से संबंधित भौतिक सुख क्षणिक गुदगुदी
पैदा करते हैं और अपने साथ उतनी उलझनें लाते हैं, जिन्हें समेटना-सुलझाना
उस क्षणिक गुदगुदी की तुलना में कहीं अधिक भारी पड़ता है। दूरदर्शिता केवल
महानता का वरण करने में है। यह शिक्षा और दिशा गुरुदेव को उनके मार्गदर्शक
से मिली और वे उस मार्ग पर चलते हुए उस स्थिति में पहुँचे, जहाँ उनके चुनाव
को अबुद्धिमत्तापूर्ण नहीं कहा जा सकता। इस मार्ग पर न चलकर दूसरों की तरह
बड़प्पन के ‘थूक-बिलोना’ में लगे रहते तो कितना पाते और अब शौर्य, साहस,
विवेक और आदर्श की राह अपनाकर वे कहाँ जा पहुँचे। इसका तुलनात्मक अध्ययन
किया जाए तो सहज ही इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ेगा कि बड़प्पन का नहीं,
महानता का चयन दूरदर्शितापूर्ण है; विशेषतया इन परिस्थितियों में जबकि
बड़प्पन उगाने-बोने का मौसम बिलकुल चला गया। बदलती हुई परिस्थिति में कोई
घृणा, निंदा और ईर्ष्या-द्वेष की आग में जलने का जोखिम उठाकर ही बड़प्पन की
राह पर चलने का दुस्साहस कर सकता है।
गत फरवरी में कुछ समय के लिए मेरी बीमारी के
सिलसिले में वे आए और समय-समय पर उनके जो विचार सुनने-समझने को मिले, उनका
उल्लेख मई अंक में कर दिया गया है। उस कथनोपकथन में उनकी एक ही लालसा उभरी
पड़ रही है कि उनके प्रियजन महानता का वरण करें। उनके कंधे से कंधा मिलाकर
चलें और उस लक्ष्य तक पहुँचें, जहाँ मानव जीवन सार्थक एवं कृतकृत्य होता
है। वार्ता के बीच-बीच में निराशा, क्षोभ, दुःख के भाव भी उनके चेहरे पर
झलकते दिखाई पड़े। इसके पीछे एक ही व्यथा थी कि हर आधार पर समझाने के साथ
अपना निज का उदाहरण प्रस्तुत करने पर भी उनके प्रियजन उस मार्ग पर चलने के
लिए क्यों तैयार नहीं होते? अपनी पात्रता में वृद्धि क्यों नहीं करते? उनकी
सहायता के लिए लालाइत देवशक्तियाँ जो उनका दरवाजा कब से खटखटा रही हैं,
उनके लिए रास्ता क्यों नहीं खोलते?
वे चाहते थे कि उनके प्रियजन महानता का मार्ग
अपनाएँ। उसके लिए पात्रता का चयन करें और ऐसा चिंतन अपनाएँ, जिसे धारणा,
ध्यान, प्रत्याहार और समाधि की संज्ञा दी जा सके। यह चिंतन वही हो सकता है ,
जो व्यक्ति निर्माण-प्रक्रिया के अंतर्गत गुरुदेव आए दिन समझाते रहे हैं।
वे चाहते हैं कि उनके हर साथी को इसी जीवन में स्वर्ग और मुक्ति का पग-पग
पर भरपूर आनंद मिले। इसके लिए कोई मंत्रानुष्ठान पर्याप्त नहीं हो सकता।
इसके लिए लोक-मंगल की वह साधना अपने कर्तृत्व में सम्मिलित करनी पड़ती है,
जिसे उन्होंने शतसूत्री युगनिर्माण योजना के नाम पर अनेकों बार अनेकों ढंग
से कहा है। उस पुराने कथनोपकथन को साररूप में दुहरा देने और उसे चिरंतन
अथवा नवीनतम संदेश के रूप में परिजनों तक पहुँचा देने के लिए उन्होंने आदेश
दिया था, सो उसी का पालन करते हुए मई अंक की लेखमाला उस संदर्भ में लिख दी
गई।
पर मेरा लिख देना और पाठकों का पढ़ लेना ही
पर्याप्त न होगा, आवश्यकता उसे समझने, हृदयंगम करने और कार्यान्वित करने की
है। उन संदेश-निर्देशों को यदि कार्यरूप में परिणत किया जा सके तो वह
क्रियाकलाप एक उच्चतम युग-साधना की आवश्यकता पूरी करेगा। देशकाल और पात्र के
अनुरूप सदा ही साधना-विधानों में हेर-फेर होता रहा है और उसका संदेश लेकर
तत्कालीन अग्रदूत इस पृथ्वी पर आते रहे। आज की स्थिति में व्यक्तिगत महानता
के अभिवर्द्धन और लोक-मंगल के अनुष्ठान की दृष्टि से वही प्रक्रिया
सर्वोत्तम रहेगी, जिसे मई के अंक में संक्षिप्त रूप से बताया गया है। आशा है, उसे पढ़-समझ लिया गया होगा।
उस परामर्श, चिंतन एवं निर्देश के बारे में हर
परिजन की प्रतिक्रिया जानने की आवश्यकता अनुभव की गई थी, सो गत अंक में
अनुरोध किया गया था कि प्रस्तुत विचारधारा से कौन-कितना सहमत और किस
अंश से असहमत है? उसमें सुधार के लिए किसका क्या परामर्श है? कौन उस परामर्श
को कार्यान्वित करने के लिए क्या सोच रहा है, क्या कर रहा है और क्या करने
जा रहा है? यह जानने की उत्सुकता हम लोगों को होनी नितांत स्वाभाविक है।
स्वजनों की गतिविधियाँ अपनी निज की प्रतीत होती हैं और उनकी सहज ही गहरी
रुचि जुड़ी रहती है। किसका भविष्य क्या बन सकता है, इसका अनुमान किसी के
कर्तृत्व और चिंतन को देखकर ही किया जा सकता है। इसी को सच्चा हस्तरेखा
विज्ञान और सच्ची जन्मकुंडली निरीक्षण कह सकते हैं। प्रतिक्रिया पूछने का
यही प्रयोजन था। अधिकांश परिजनों की प्रतिक्रिया पत्ररूप में प्राप्त हो गई
है। जिनकी अभी नहीं आई है, उन सबकी भी गायत्री जयंती से पूर्व आ
जाएगी, ऐसा विश्वास है। पूर्वसूचना के अनुसार वे सभी पत्र गुरुदेव के पास
भेज दिए जाएँगे या निकट भविष्य में इधर आने वाले हुए तो यहीं देख जाएँगे।
यह सर्वविदित है कि गुरुदेव की भावी साधना-तपश्चर्या का आधार युग-परिवर्तन की संभावनाओं को प्रबल करने के लिए
सूक्ष्मजगत में असाधारण हलचल उत्पन्न करना है। नवयुग का आगमन एक सुनिश्चित
तथ्य है। इस मेहमान की आगमन-व्यवस्था करने के लिए वे स्वागत अधिकारी की तरह
अपनी भूमिका निभा रहे हैं। उनका इन दिनों महत्त्वपूर्ण उपार्जन चल रहा है।
जमा करना तो उनकी प्रवृत्ति में ही नहीं। आने से पहले बाँटने की धुन ही उन
पर सदा सवार रही है। इस एक वर्ष में जो कमाया गया है। उसे किसे, कितना,
किस प्रकार बाँट दें, इसी उधेड़बुन में वे लगे हैं। अधिक कमाई की बात भी चल
रही है, पर उपार्जन से अधिक ध्यान वे सदा वितरण को देते रहे। अतः अब भी उसी
स्तर पर सोच रहे हैं। फरवरी में जितने दिनों वे हरिद्वार रहे, इसी की
योजना बनाते रहे। यह प्रसंग उन्होंने कितनी ही बार दुहराया कि अब बड़प्पन
का मौसम चला गया। जो ऋतु के प्रतिकूल प्रयास करेगा, वह तो असफल ही
रहेगा और जितना कमाएगा, उससे ज्यादा विपत्तिमोल लेगा। वह संपदा रह भी न
सकेगी। अपनी कुपात्र संतानें, समाज के विद्रोहीतत्त्व तथा सरकारी कानून
उसे संग्रहीत न रहने देंगे। उपार्जन में इन दिनों की असाधारण
प्रतिद्वंद्विता, अत्यधिक लोभ की पूर्ति के लिए अपनाई गई अवांछनीयता को
तप-साधना जैसा कष्ट उठाकर सहन भी किया जाए तो उसके बेतरह नष्ट होने का दुःख
और भी विकट होगा। अगले दिनों हर किसी को निर्वाह भर मिलेगा और शक्ति भर
अनिवार्य रूप से काम करना पड़ेगा।
इस अवश्यंभावी भवितव्यता की आगाही यदि
लोगों को मिल जाए तो संभव है कि जो लिप्सा बेतरह व्यक्तिगत
महत्त्वाकांक्षाओं की पूर्ति में लगी हुई है, वह कुछ शिथिल हो। उससे बचे
हुए समय, मनोयोग एवं धन की मात्रा संभव है कि लोक-मंगल की आज की
आपत्तिकालीन आवश्यकता की पूर्ति में लग सके। ऐसा मानसिक परिवर्तन आने पर ही
महानता के पथ पर चलने के लिए किसी को साहस जुटा सकना संभव होगा। आज की
लिप्सा और ललक शिथिल पड़े तो कुछ नवनिर्माण के करते— देते— बचे। इस तथ्य को
वे बहुत बार बहुत गंभीरता से कहते और बताते रहे कि, "जिन पर अपना
थोड़ा-सा भी प्रभाव हो या जिनमें महानता की दिशा में चलने की तनिक भी
वास्तविक आकांक्षा हो, उन्हें सबसे पहला मंत्र यही दिया जाना चाहिए कि
बड़प्पन का मौसम चला गया। अब उस दिशा में पैर पीटने से लाभ कम और हानि अधिक
है। जीवन कृतकृत्य बनाने और ईश्वरीय प्रवाह में बहते हुए रीछ-वानरों की
भूमिका प्रस्तुत करने का ठीक यही अवसर है।" हर परिजन में महानता प्राप्त
करने की व्याकुल तड़पन उठनी चाहिए। इस प्रथम चरण के बाद ही आगे की कुछ बात
बनेगी।
उन्होंने जो कहा था— उसी को इन पंक्तियों में फिर
अधिक जोर देकर कह दिया गया है। जिन्हें यह तथ्य उचित लगा हो, वे इतना साहस
और करें कि इस दृष्टिकोण को व्यावहारिक गतिविधियों में परिणत करने के लिए
कदम बढ़ाएँ। केवल पठन-पाठन और सोच-विचार करते रहने से बहुमूल्य समय ऐसे ही
बीतता चला जाएगा, जैसे कि अब तक का जीवन बालक्रीड़ाओं में बीत गया।
गुरुदेव ने कहा था कि, "आज की परिस्थितियों में
सर्वोत्तम तप-साधना वही हो सकती है, जो स्वयं उन्हें करनी पड़ी। उनकी साधना
का बाह्यस्वरूप भर देखना पर्याप्त न होगा। चौबीस लाख के चौबीस पुरश्चरणों
की जप संख्या को नहीं, महत्त्वपूर्ण उस तथ्य को मानना चाहिए जिसके अनुसार
हर मंत्रजप के साथ-साथ ऋतंभरा प्रज्ञा का प्रकाश अपने रोम-रोम में भरने और
उसी प्रकाश का अनुगमन करते हुए अपनी मानसिक और शारीरिक गतिविधियों को एक
विशेष दिशा में लगाए रहने का साहस कर दिखाया। उन दिनों की उनकी एकांत साधना
को जनकोलाहलरहित सूनेपन की विशेषता नहीं माननी चाहिए, वरन आकर्षणों-साधनों
से सर्वथा मुक्त एकाकी ब्रह्मवर्चस के महासमुद्र में विचरण करने वाले
आत्मबोध के अभ्यासरूप में ही उसे देखना चाहिए। आत्मचेतना को मनुष्यों
तक सीमित न रखकर प्रत्येक जड़-चेतन में अपनी आत्मा का प्रकाश जगमगाते हुए
देखने की दिव्य अनुभूति का इसे एक प्रयोग माना जाना चाहिए।"
उनके समस्त जीवन की साधना-तपश्चर्या का
निष्कर्ष दो शब्दों में निकाला जा सकता है— (1) आत्मपरिष्कार और (2)
लोक-मंगल का निरंतर प्रयास। यह साधना-पद्धति आज की युग-साधना है, जो उसे कर
सके, समझना चाहिए कि परिपूर्ण साधना और समग्र तपश्चर्या का सही रास्ता उसे
मिल गया। गुरुदेव का साधना-रथ इन्हीं दो पहियों पर गतिशील रहा है। वे हृदय
से यही चाहते हैं कि उनका हर आत्मीय इसी मार्ग पर चलकर उन्हीं की जैसी
महानता का लाभ प्राप्त करे। छिटपुट मंत्र-तंत्र की उलट-पुलट में लंबे-चौड़े
सपने देखना छोड़कर युग-साधना के आधार पर अपनी अंतःचेतना में पात्रता का
प्रकाश उत्पन्न करे। इतना कर लेने पर वे दिव्यशक्तियाँ उसकी सहायता के लिए
दौड़ पड़ेंगी, जो आज भी बार-बार द्वार खटखटाती हैं, किंतु पात्रता का अभाव
देखकर वापिस लौट जाती हैं।
गुरुदेव की पिछली तप-संपदा भी कम नहीं थी। कम
होती तो वे लाखों व्यक्तियों को नवनिर्माण के रूखे प्रयोजन में लगाने का
उत्साहपूर्ण वातावरण कैसे उत्पन्न कर सके होते? कैसे विविध क्षेत्रों में
आश्चर्यजनक सफलताएँ उपस्थित हुई होतीं? कैसे परिजनों की व्यक्तिगत
कठिनाइयों के अद्भुत समाधान वे दे सके होते? किस आधार पर उनका व्यक्तित्व
जादू जैसे प्रभाव से ओत-प्रोत रहा होता? यह पिछले दिनों की बात है। इन
दिनों तो उनकी सारी एकाग्रता आतिशी शीशे में सूर्य की किरणें इकट्ठी होने
की तरह एक बिंदु पर केंद्रीभूत हो गई हैं। स्वभावतः उनकी पूँजी इस अवधि में
बढ़ी ही है। इस अतिरिक्त लाभ को वे अतिरिक्त बोनस के रूप में अपने
सहचरों-अनुचरों को बाँटने के लिए आतुर थे।
‘प्रत्यावर्तन’ अनुदान की चर्चा पिछले अंक
में की गई है। वे जब हरिद्वार आया करेंगे तो इस उपक्रम से पात्रतासंपन्न
परिजनों को लाभान्वित किया करेंगे। यह कोई साधना-अनुष्ठान नहीं है। केवल
उन दिनों ग्रहण करने के अनुकूल मनःस्थिति बनाए रखना भर पर्याप्त होगा। अपने को हर दृष्टि से
विचारों से रिक्त रखने, कुछ भी न सोचने और चाहने की मनःस्थिति बनाए रखकर
उसमें शक्तिपात के लिए द्वार खुला रहने भर के लिए आगंतुकों को कहा जाएगा।
शरीर और मन को अनिवार्य नित्य क्रिया करने के अतिरिक्त पूर्ण विश्राम करने
के लिए कहा जाएगा। इस मनःस्थिति में आदान-प्रदान सफल और संभव हो जाता है।
यही वे आगंतुकों से कराएँगे और बीजारोपण कर देंगे। इस बीज को वृक्ष बनाने
के लिए बहुत प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ेगी। यही परंपरा उन्हें स्वयं मिली भी
है। 15 वर्ष की आयु में उन्हें अपने मार्गदर्शक का सान्निध्य चार घंटे का
मिला। 24 वर्ष की तपश्चर्या के उपरांत सन् 59 में एक वर्ष के अज्ञातवास के
लिए गए। उस समय भी चार दिन का अवसर उन्हें अपने मार्गदर्शक के समीप रहने का
मिला। इस बार भी उन्हें 4 दिन की ही समीपता मिली है और शेष समय अन्यत्र
बिताने का निर्देशपालन करना पड़ा है।
बीज एक दिन में ही बो दिया जाता है, पर उसे
सींचने-सँभालने में ही समय लगता है। गर्भधारण की क्रिया कुछ मिनटों में ही
हो जाती है। नौ मास तक गर्भवती उस भ्रूण को विकसित भर करती है। गुरुदेव
अपने मार्गदर्शक के अनुदान और अपने कर्त्तव्य को इसी भोंड़ी मिसाल के साथ
अक्सर समझाया करते हैं। उन्हें स्वयं भी आगे इसी परंपरा को अग्रसर करना
पड़ेगा। परिजनों को वे लंबी कष्ट-तपश्चर्या में नहीं उलझाना चाहते हैं। उस
प्रयोजन की पूर्ति वे अपने अनुदान से स्वयं ही पूरी कर देंगे, जैसी कि उनकी
खुद की पूर्ति की गई। उनकी निज की साधना तो सिंचन-पोषण भर है। वस्तुतः
जितना उनने पाया है, उसका 90 प्रतिशत भाग प्रदत्त अनुदान ही कहना चाहिए।
यदि ऐसा न होता तो लोक-मंगल की दिशा में इतना जो कार्य बन पड़ा, वह कैसे बन
पड़ा होता। सारा समय जप-तप में ही लग जाता तो फिर ईश्वरीय निर्देश और
मार्गदर्शक के आदेश को पालन करते हुए नवयुग की संभावनाओं को साकार करने में
इतनी तत्परता के साथ लगा रहना कैसे संभव होता?
नचिकेता थोड़े ही समय में आचार्य यम से
पंचाग्नि विद्या सीखकर आ गए थे। विवेकानंद और छत्रपति शिवाजी को ऐसे ही
कुछ ही समय में बहुत कुछ मिल गया था। स्वयं रामकृष्ण परमहंस ने इसी प्रकार
का अनुदान स्वल्पकाल में उपलब्ध किया था। यही प्रत्यावर्तनक्रम है। जिसे
यदा-कदा— जिस-तिस के लिए गुरुदेव प्रयुक्त किया करेंगे। अभी तो इस प्रकार के
इच्छुकों के नाम भर नोट कर लिए हैं। ताकि जब, जैसी संभावना हो, वैसा
उन्हें सूचित किया जा सके। इसके लिए अभी तो हरिद्वार में निवास-आवास आदि का
प्रबंध करना है, क्योंकि उस प्रत्यावर्तन अवधि में साधकों को एकाकी रहना
पड़ेगा। भोजन जो दिया जाएगा, वही खाना पड़ेगा। जिस तरह रखा जाएगा, उसी तरह
रहना पड़ेगा। यह झंझट भरा क्रियाकलाप अनेक व्यवस्थाएँ बनाने के लिए कहता
है, सो अगले कुछ दिनों में बनेंगी। इसके उपरांत ही गुरुदेव के हरिद्वार आगमन
के अवसर पर वह आदान-प्रदान अर्थात प्रत्यावर्तन संभव हुआ करेगा। एक समय में कुछ
ही व्यक्ति बुलाए जाया करेंगे, ताकि सीमित शक्ति का सीमित लोगों में समुचित
वितरण संभव हो सके। हरिद्वार में तपोभूमि जैसे शिविर नहीं लगेंगे।
उँगलियों पर गिनने जितनी संख्या में ही एक समय में कुछ व्यक्ति बुलाए जाया
करेंगे और उन्हें 4-5 दिन भर रोककर वापिस कर दिया जाया करेगा। इस अनुदान से
कौन-क्या प्राप्त कर सकेगा, कितना ऊँचा उठ सकेगा और कितना आगे बढ़ सकेगा?
इसकी समय से पूर्व चर्चा अनुपयुक्त ही होगी। संक्षेप में एक ही शब्द
पर्याप्त होगा कि गुरुदेव को अविस्मरणीय अनुदान अपने मार्गदर्शक से
मिलेंगे, वे भी जिसे-जो कुछ यह विशेष उपहार देंगे, वह चिरस्मरणीय तो
रहेगा ही।
इसके लिए भी भेड़ियाधसान का क्रम नहीं है। जो
चाहे वही घर दौड़े। ऐसा संभव न होगा। इच्छामात्र से क्या कुछ होता है।
चाहने भर से कलक्टर कौन बन सका है। इसके लिए पात्रता की दीर्घकालीन साधना
अनिवार्य रहती है वह पुष्पहार, दंडवत् प्रणाम या फल-उपहार जितनी सस्ती नहीं
है और न किसी मंत्र की कुछ मालाएँ घुमा-फिरा देने जितनी सरल हैं। मँहगी
उपलब्धियाँ सदा मँहगे मूल्य पर मिलती हैं। गुरुदेव ने स्वयं समुचित मूल्य
चुकाकर ही अपने मार्गदर्शक का— अपने परमेश्वर का— अनुग्रह खरीदा
है। दूसरों के लिए भी यही हाट खुली है। खाली हाथ ऐसे ही बहुत कुछ पा लेने
की लालसा लेकर हाट में जाने वालों को खाली हाथ ही लौटना पड़ता है। उनके
पल्ले निराशा ही बँधती है।
अपने निज के प्रबल पुरुषार्थ से लेकर किसी
दिव्य सत्ता के अनुग्रह-अनुदान तक में एक तथ्य अनिवार्य रूप से प्रस्तुत
रहता है कि व्यक्ति अपनी पात्रता और प्रामाणिकता सिद्ध करे। यह कल्पना की
उड़ानें उड़ने से नहीं, व्यावहारिक जीवन को साधनामय बनाने से ही वह
उपलब्धियाँ प्राप्त होती हैं। इसी एक अड़चन ने इस प्रक्रिया को आबद्ध कर
दिया है। इस आधार पर आत्मवादी परिजन भी उसी प्रकार लाभान्वित हो सकते थे,
जिस प्रकार गुरुदेव स्वयं हुए। इस अड़चन को दूर करना ही होगा। इस
श्रमसाध्य राजमार्ग को छोड़कर कोई सीधी-सरल पगडंडी नहीं है। परिजनों को
युग-साधना को अपनाना ही चाहिए। उस दिशा में कदम बढ़ाना ही चाहिए। कहना न
होगा कि व्यक्ति निर्माण, परिवार निर्माण और समाज निर्माण की त्रिविधि
साधना-पद्धति को नवनिर्माण की युग-साधना त्रिवेणी कहना चाहिए। निश्चित रूप
से यह एक योग-साधना और तपश्चर्या है। एकांत में प्राणायाम करना ही एकमात्र
योगाभ्यास नहीं है। गीता में कहे गए कर्मयोग का यह श्रेष्ठतम और सामयिक
स्वरूप है। इस युग-साधना में जहाँ व्यक्ति के निज का अंतःकरण योगियों जैसा
निर्मल होता है, वहाँ उनकी तप-साधना के प्रकाश से असंख्यों को अपना उद्धार
करने का लाभ मिलता है। इस प्रकार यह दुहरा लाभ प्रस्तुत करने वाली
आध्यात्मिक-साधना का ही प्रयोजन पूरा करती है।
प्रत्यावर्तन वर्ग के अग्रगामी आत्मीयजनों को
युग-साधना में नियमित साधनारत होना ही चाहिए। अन्य परिजनों को भी आत्मविकास
की दृष्टि से या युगधर्म की पूर्ति की दृष्टि से दिव्य तत्त्वों का
अनुग्रह उनपर बरसने में जो अड़चन उपस्थित है, उसे दूर करने की दृष्टि से यह
आवश्यक है कि वे युग-साधना के साधक बनें। उसे पढ़ते-सुनते ही न रहें।
चर्चा और कल्पना का ही विषय न बनाए रहें, वरन उसे व्यावहारिक जीवन में
उतारने और कार्यरूप में परिणत करने का भी प्रयत्न करें। यही है— प्रथम चरण
वास्तविक प्रगति का, विभूतिवान बनने का, आत्मसंपदाओं से परिपूर्ण होने का
और महानता के वरण करने का। इसके लिए बड़प्पन की आकुल अभिलाषाओं से थोड़ा
मुँह मोड़ना ही चाहिए और उस विमुखता को नवनिर्माण के प्रति प्रतीति में
नियोजित करना ही चाहिए। इसी के लिए गुरुदेव गत फरवरी मास में यह चिंता
व्यक्त करते रहे कि यदि परिजन प्रथम चरण की उपेक्षा-अवज्ञा किए बैठे रहे तो
वे कुछ भी महत्त्वपूर्ण पा नहीं सकेंगे। उन्हें कुछ दिया जा सकना संभव न हो
सकेगा। बड़प्पन की निरर्थकता और महानता की गरिमा को समझाने के लिए व्याकुल
थे। कहते थे— "किसी प्रकार मैं अपना कलेजा, हृदय और मस्तिष्क चीरकर उखाड़
सकूँ और उसे परिजनों के भीतर ‘फिट’ कर सकूँ तो उन्हें बुद्धिमत्ता का
लाभदायक मार्ग एक ही दिखाई पड़ेगा कि निर्वाह भर के भौतिक साधनों से
संतुष्ट रहकर अपने भीतर जो कुछ असाधारण है, उस समस्त को समान रूप से महानता
प्राप्त करने के लिए नियोजित कर दिया जाए।" उनका कलेजा, हृदय और मस्तिष्क
तो दूसरों में ‘फिट’ किया जा सकना कठिन है, पर कम-से-कम इतना तो आवश्यक है
कि उस प्रक्रिया को उपेक्षा के गर्त्त में पड़ा न रहने दिया जाए। किसी-न -किसी रूप में अनेक आवश्यक कार्यों की तरह उसे भी आवश्यक कार्यों में
सम्मिलित रखा जाए और जितना कुछ न्यूनाधिक बन पड़े, उतना उस प्रयास को
निरंतर करते रहा जाए। ऐसा करने से आत्मनिर्माण और लोक-मंगल की, स्वार्थ और
परमार्थ की पूर्ति जहाँ होगी, वहाँ वह भी अड़चन दूर होगी; जिसके कारण
गुरुदेव अपने प्रियजनों को कुछ न दे सकने की व्यथा से उदास, चिंचित और दुखी
रहते हैं। पात्रता के अभाव में किसी को भी कुछ दे सकना उनके हाथ की बात भी
तो नहीं है। आखिर उनके हाथ भी तो किसी उच्चसत्ता ने बाँध ही रखे हैं। यह
अड़चन दूर हो सके तो परिजन जितने लाभान्वित होंगे, गुरुदेव उससे हजारगुने
संतुष्ट और प्रसन्न होंगे। मार्ग की बहुत बड़ी बाधा अथवा कठिनाई दूर हुई,
अनुभव करेंगे।
युग-साधना—युगनिर्माण योजना की, आत्मनिर्माण
और समाज निर्माण की विधि-व्यवस्था अपनाकर ही की जा सकती है। युगनिर्माण
योजना की चर्चा समय-समय पर पत्रिकाओं में लेखों द्वारा और उनके प्रवचनों
द्वारा होती रही है। उनकी रूपरेखा छपी भी है, पर उनमें यह कमी है कि किस
कार्य को किस प्रकार किया जाए, इसका स्वरूप निर्धारण और व्यावहारिक
मार्गदर्शन नहीं हुआ है। अब वह कमी दूर कर दी गई है। युगनिर्माण योजना की
सांगोपांग क्रमबद्ध रूपरेखा और उसे कार्यान्वित करने की शैली को इन्हीं
दिनों पुस्तकाकार छापा गया है। तीन-तीन रुपये मूल्य के तीन खंडों में
‘हमारी युगनिर्माण योजना’ नाम से यह ग्रंथ छप रहा है। 30 जून तक छपकर तैयार
हो जायगा। नौ रुपया मूल्य और पोस्टेज देकर वह गायत्री तपोभूमि, मथुरा से
मँगाया जा सकता है।
अनुरोध है कि अखंड ज्योति का प्रत्येक सदस्य
इस ग्रंथ को मँगा ले और ध्यानपूर्वक कई बार उसे पढ़े। पढ़कर यह देखे कि
उसमें से कितना अंश आज की स्थिति में वह कार्यान्वित कर सकता है। जितना
संभव हो, उसका शुभारंभ अविलंब किया जाना चाहिए। हममें से एक भी ऐसा न रहे,
जिसे मात्र पत्रिका का पाठक भर कहकर चुप रहा जा सके। विचारों की सार्थकता
तब है, जब वे कार्यरूप में परिणत होने की दिशा में अग्रसर हो सकें। अखंड
ज्योति के लेखों का परिजनों की मनोभूमि को अब इस कसौटी पर कसे जाने का अवसर
आ गया। हमारे यह दोनों ही पक्ष तभी खरे कहे जा सकते हैं, जब उनमें
सक्रियता का दर्शन हो सके।
नवीन प्रकाशित तीन खंडों वाला ग्रंथ ‘हमारी
युगनिर्माण योजना’ को किसने पढ़ा, किसने समझा और किसने उसे कार्यान्वित
किया? इसके संबंध में एक प्रश्नपत्र अक्टूबर की अखंड ज्योति में छापा जाएगा।
उसके उत्तर माँगे जाएँगे। जिससे पता चल सके कि कौन कितनी गहराई में उतर
सका। आगामी विजयादशमी का पर्व आश्विन सुदी 10 तदनुसार 17 अक्टूबर का है। उस
अवसर पर उस ग्रंथ के संदर्भ में कितनी ही पूछताछ की जाएगी। उन उत्तरों के
आधारों पर वर्तमान परिजनों की प्रामाणिकता एवं पात्रता सुनिश्चित की
जायगी। आरंभिक परिजन तो कोई भी हो सकता है, पर अंतरंग स्तर का उन्हें ही
माना जाएगा जो युगनिर्माण योजना के आदेश, उद्देश्य, स्वरूप एवं क्रियाकलाप
को पूरी तरह समझ सके होंगे। समझ ही नहीं, उसे कार्यान्वित करने के लिए भी
कुछ कदम बढ़ा चुके होंगे। इस पत्र में अंतरंग सदस्यों का एक वर्ग दूध औटाने
पर ऊपर तैरने वाली मलाई की तरह ऊपर आ जाएगा और उनको लेकर गुरुदेव अपनी
प्रत्यावर्तन-प्रक्रिया तथा उसकी सूक्ष्म उपलब्धियों को कार्यान्वित कर
सकेंगे।
प्रायः सभी युगनिर्माण शाखाएँ पिछले दिनों
युगनिर्माण विद्यालय चलाती आ रही हैं और उनका शिक्षा-परीक्षाक्रम अपने
ढर्रे पर चलता आ रहा है। इस बार उसमें एक सामयिक अतिरिक्त परिवर्तन यह कर
लिया जाए कि 1 जुलाई से 30 सितम्बर तक का 3 महीने का विशेष शिक्षण सत्र
चलाया जाय। इसमें नवीन प्रकाशित ‘हमारी युगनिर्माण योजना’ के तीन खंड पढ़ाए
जाएँ। हर दिन क्लास चलाने में जहाँ कठिनाई हो, वहाँ ऐसा भी किया जा सकता
है कि सप्ताह में एक दिन रविवार को अगले सप्ताह के पाठ्य पृष्ठ निर्धारित कर
दिए जाया करें। अगले रविवार को उनके संबंध में प्रश्नोत्तर कर लिए जाया
करें। जो बात समझ में न आई हो, उसे समझा दिया जाया करे और फिर पीछे की तरह
अपने घर पर ही एक सप्ताह तक अगला पाठ्यक्रम पढ़ते, समझते और उनमें से
आवश्यक नोटसंग्रह करते रहने के लिए कह दिया जाया करे। इस प्रकार हर सप्ताह
का क्रम चलता रहे। 3 महीने के 12 सप्ताह में उपरोक्त ग्रंथ के तीन खंड
पूरे कर लिए जाएँ। 1 अक्टूबर की अखंड ज्योति में छपने वाले प्रश्नपत्रों के
उत्तर वे सब लोग लिखें, जिन्होंने पाठ्यक्रम पूरा किया हो। इस प्रकार इस
बार की विशेष शिक्षा और विशेष परीक्षा नवीन प्रकाशित ग्रंथ के आधार पर
संपन्न हो सकेगी और उत्तीर्ण शिक्षार्थियों को युगनिर्माण योजना परिवार के
अंतरंग सदस्यों में सम्मिलित करके उसका प्रमाणपत्र भी दिया जा सकेगा। इस
प्रकार प्रशिक्षित और सक्रिय परिजनों को विशेष रूप से आगे बढ़ाया जा सकना और उन्हें महानता के लक्ष्य तक पहुँचाया जा सकना संभव होगा। गुरुदेव इस संदर्भ में विशेष सहायता करने के लिए आतुर हैं। अब
पात्रता विकसित करने के लिए एक ठोस कदम आगे बढ़ाना प्रिय परिजनों का काम
है।