Magazine - Year 1972 - Version 2
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Language: HINDI
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शीत की शक्ति समझें और उससे लाभ उठाएँ
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ताप की शक्ति बहुत दिनों से विदित है। अग्नि के
आविष्कार ने मानव जीवन को जो सुविधाएँ प्रदान की हैं। वे अब एक-एक कदम आगे बढ़ती चली जा रही हैं। अग्नि के बाद बिजली और बिजली के बाद अणुशक्ति, किंतु इसके
बाद अंतिम शक्ति का स्रोत क्या होगा? इस तथ्य पर विचार करते हुए
वैज्ञानिकों की दुनिया यह सोच रही है कि मानव जिस सत्ता को हाथ में लेकर
सर्वसत्तासंपन्न हो जाएगा। उसका नाम है— 'शीत'।
शीत भी कोई शक्ति है। यह कहने और सुनने में
आश्चर्यजनक लगता है, पर वस्तुतः बात ऐसी ही है। जिस प्रकार अग्नि, विद्युत,
अणु आदि शक्तियों का इन दिनों उपयोग करके आदिम मनुष्य की तुलना में आज का
सभ्य मनुष्य कहाँ से कहाँ पहुँच गया। उसी प्रकार आज की तुलना में भावी शीतयुग का प्राणी दैवी अथवा दानवी या न जाने किस नाम से पुकारी जाने वाली अद्भुत शक्ति का स्वामी बनकर रहेगा।
जब शून्य से सौ डिग्री नीचे की शीत उत्पन्न
करने और उसके उपयोग करने की क्षमता विज्ञानी मनुष्य के हाथ में होगी तो
हवा को धातुपिंड की तरह जमाया जा सकेगा और आज जिस तरह अनेकों उपकरण धातुओं
से बनाए जाते हैं। उस समय जमी हुई हवा से वह सब वस्तुएँ विनिर्मित की जा
सकेंगी।
सीसा धातु में बिजली की संवहनक्षमता अद्भुत
है। बिजली गुजरते ही वह लाल पड़ जाता है। इससे हीटर, टोस्टर, इस्तरी आदि
यंत्रों में सीसे के तार लपेटे जाते हैं और वे तुरंत गरम हो जाते हैं।
सामान्य तापमान में बहुत ही विद्युतशक्ति ऐसे ही बिखर जाती है। अभीष्ट
शीतल वातावरण में सीसे के किसी छल्ले में जरा-सा बिजली का करेंट लगा दिया
जाए तो उसमें बिजली अपने आप अनंतकाल तक पैदा होती रहेगी और बिजली घर
बनाने की जरूरत न रहेगी। वह एक बार का करेंट एक स्थायी विद्युतभंडार का काम देता रहेगा।
शीत विज्ञान पर इन दिनों अत्यंत गहन अध्ययन चल रहे हैं। इसे ‘क्रियोजेनिक्स’ नाम दिया गया है। इसका इन दिनों प्रधान लक्ष्य है—
मनुष्य को जमाकर चिरकाल के लिए सुरक्षित कर देना। अंतर्ग्रही यात्रा के
लिए जाने वाले यान वर्तमान कल्पना के अधिकतम वेग से चलने पर भी अभीष्ट
ग्रह-नक्षत्रों तक पहुँचने-लौटने में कई सौ वर्ष लगा लिया करेंगे। इतने
दिनों में सामान्य आयुष्य का मनुष्य तो मर ही जाएगा और उसके लिए भोजन आदि
दैनिक उपयोग की वस्तुएँ इतनी अधिक चाहिए, जो यान से भी ज्यादा भारी हों। यह
संभव नहीं है। ऐसी दशा में यही युक्ति काम करेगी कि मनुष्य को शीत में जमा
दिया जाए। जमा हुआ प्राणी हजारों वर्ष तक शून्य स्थिति में पड़ा रह सकता
है। आवश्यकता पड़ने पर स्वसंचालित यान अभीष्ट तापमान उत्पन्न करके मनुष्य
को जीवित कर लिया करेगा। निर्दिष्ट ग्रह पर अपना काम पूरा करके पृथ्वी की ओर लौटते समय यात्री स्वसंचालित विधि से अपने आपको तब तक के लिए
ठंडा कर लेगा, जब तक कि पृथ्वी पर लौट न आए।
यह कल्पना असंभव लगती भर है, पर वस्तुतः इस
सिद्धांत की भली प्रकार पुष्टि हो चुकी है और उसे प्रमाणों और परीक्षणों की
कसौटी पर सही घोषित कर दिया गया है।
तरल नाइट्रोजन में अभी भी वस्तुएँ चिरकाल तक
सुरक्षित रखी जाती हैं। डिब्बों में फल, भोजन आदि बहुत दिनों तक सुरक्षित
रखने में यही प्रयोग इन दिनों चलता है। अगले दिनों तरल नाइट्रोजन को पलक
मारते हिमांक (फ्रीजिंग प्वाइंट) दिया जा सकेगा। इससे चलता-दौड़ता खून बिना
किसी विकार के पूरी तरह जम जाएगा और उसे अनिश्चितकाल तक जीवित रखा जा
सकेगा। इन दिनों तरल नाइट्रोजन में मेंढक आदि को डुबाकर रख दिया जाता है। उस समय वे सर्वथा निष्प्राण लगते हैं; पर जब उन्हें गरमी दी जाती है तो फिर
तुरंत सजीव होकर पूर्ववत् विचरण करने लगते हैं। इस सुषुप्तिकाल में उनके
शरीर को कोई क्षति नहीं पहुँचती।
इन दिनों एक व्यक्ति का रक्त अथवा नेत्र,
हृदय आदि कोई अंग किसी दूसरे को दिया जाता है तो यथासंभव तुरंत ही उसकी
अदला-बदली होती है। लंबे समय तक उन्हें सुरक्षित नहीं रखा जा सकता, किंतु
भविष्य में शरीर का कोई भी अंग चिरकाल के लिए सुरक्षित रखा जाना संभव हो
जाएगा। इस विश्रामकाल में शरीर अपनी खोई हुई क्षमता पुनः प्राप्त कर सकता
है, इसलिए हर विश्राम के बाद नई शक्तिसंचय करते रहने का क्रम जारी रखकर
व्यक्ति अपना आयुष्य भी हजारों वर्षों का कर सकेगा।
चुंबकशक्ति कल-कारखानों में बहुत काम आती है। उनके बनाने और क्षमता स्थिर रखने का झंझट बहुत बड़ा है। भावी शीतयुग में कुछ पदार्थों को तरल हीलियम की सहायता से ‘क्रियो चुंबक’ बना दिया जाएगा और फिर वे चिरकाल तक अपना काम करते रहेंगे। इसके लिए टिन के मिश्रण से बनने वाली ‘नोवियम’ धातु अधिक उपयोगी सिद्ध हो रही है। यह क्रियो चुंबक— साधारण चुंबक की अपेक्षा बारह हजारगुना अधिक शक्तिशाली होंगे। अणुबमों से या दूसरे अणु प्रयोगों से उत्पन्न होने वाली रेडियो-सक्रियता से बचने के लिए अभी बहुत दुर्बल साधन ढूंढ़े जा सके हैं; पर जब क्रियो चुंबकों का युग आ जाएगा तो रेडियो-सक्रियता से डरने की कोई आवश्यकता न रह जाएगी। एक और अतिआश्चर्य से ओत-प्रोत संभावना ‘क्रियोजेनिक्स’ विज्ञान की यह है कि एक 452 डिग्री में शीत की अदृश्य 'बोतल' बनेगी। यह आकाश में लटकी रहकर एक ऐसा ‘प्लाज्मा’ उत्पन्न करेगी, जो लगभग सूर्य की सतह जितना गरम होगा। इस गरमी से वे सारे काम लिए जा सकेंगे, जिन्हें अब तक आग, बिजली और भाप आदि से किया जाता रहा है। इससे अणुभट्टी बनाने की बात पुरानी और बेकार हो जाएगी। जितने तापमान की आवश्यकता होगी, उतना बिना किसी खरच के उपरोक्त ‘प्लाज्मा’ द्वारा प्राप्त कर लिया जाया करेगा। डॉ.सैन फोर्ड ब्राउन ने यह प्लाज्मा प्रयोगशाला में बनाकर दिखा भी दिया है। वह समय दूर नहीं, जब सार्वजनीन ताप के आवश्यकता की पूर्ति इन बिना खरच वाले माध्यम से ही होती रहा करेगी। ‘क्रियोजेनिक्स’ विज्ञान का कार्यक्षेत्र शून्य से 150 डिग्री ठंडक होने से आरंभ होता है और अभी उसकी अंतिम संभावना 460 डिग्री आँकी गई है। इस एब्सोल्यूट जीरो (अंतिम शून्य) से प्रभावित पदार्थों के मालेक्यूल्स अर्थात कण अपनी चिरंतन गतिशीलता त्यागकर स्थिर हो जाया करेंगे। ऐसी दशा में उन्हें अन्य किसी पदार्थ में बदल दिया जा सकना संभव हो सकेगा। तब लोहा सोने में भी परिवर्तित हो सकेगा और पारस पत्थर की दंंतकथा प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होती रहेगी। शीत विज्ञान नया नहीं है। इसके प्रयोग बहुत दिनों से चल रहे हैं, पर अब उसकी व्यापक संभावनाएँ अधिक विश्वस्त हो चली हैं। गैसों का शीतलीकरण भली प्रकार होने लगा है। ठंडक पाकर वे तरल हो जाते हैं। शून्य से 297 डिग्री पर अभिजन, 302 पर आरगान, 320 पर हाइड्रोजन और 452 पर हीलियम द्रव रूप में बदल जाती है। यह द्रविभूत गैस अनंतशक्ति की निर्झरिणी है। उसका स्पर्श होते ही बर्फ की सिल्ली देखते-देखते उबलने लगती है। इन गैसों में इतनी प्रचंड तापोत्पादक क्षमता है। द्वितीय विश्वयुद्ध में जर्मनी ने लंदन पर बी-2 राकेट बरसाए थे। वे जहाँ गिरते थे, गजब ढाते थे। वे राकेट तरल ऑक्सीजन, अल्कोहल और दूसरे रसायनो से मिलाकर बनाए गए थे। मनुष्य के स्वभाव के अलावे व्यवहार में ताप का उपयोग अधिक होता रहा है। इससे खरच अधिक हुआ और लाभ कम रहा। अब दृष्टिकोण में परिवर्तन करने का समय आ गया। हमें शीत की उपयोगिता समझनी चाहिए और उसकी शक्ति को अपने क्रियाकलाप में सम्मिलित करना चाहिए। स्वभाव में आमतौर से जोशीले और सक्रिय व्यक्ति आवेश, उत्तेजना और क्रोध करने के आदी देखे गए हैं। जल्दबाज लोग अपनी इच्छानुकूल स्थिति न होने पर बेतरह झल्लाते, खीजते और उद्विग्न होते हैं। दूसरों को खिन्न, अपमानित और उत्तेजित करते हैं और अपना संतुलन बिगाड़कर शरीर और मस्तिष्क में अनावश्यक ताप उत्पन्न कर लेते हैं। इससे रक्त में विषैला माद्दा बढ़ता है और जीवनशक्ति का पोषक भाग जलता है।आवेशग्रस्त स्वभाव के कारण गुत्थियाँ सुलझती नहीं, उलझती हैं। हो चुकी हानि की पूर्ति क्रोध से किसी भी प्रकार नहीं हो सकती, वरन वह क्षति अपना और दूसरों का मानसिक संतुलन बिगड़ जाने से और भी अधिक बढ़ जाती है। यदि उस क्षति की पुनरावृत्ति रोकनी हो तो शांतचित्त से वास्तविक कारण तलाश करना चाहिए। इसके बाद निवारण के लिए धैर्यपूर्वक और शांतचित्त से प्रयत्न करना चाहिए। यह प्रयोजन शांति और क्षोभरहित स्थिति में ही ठीक तरह पूरा किया जा सकता है। अपने स्वभाव में यदि तापतत्त्व बढ़ा-चढ़ा हो तो उसे घटाने का अविलंब प्रयत्न आरंभ कर देना चाहिए। शीतलता बढ़ने से अपना व्यक्तित्व उतना ही प्रभावशाली, चिंतनशील और दूरदर्शितापूर्ण होता चला जाएगा। आहार में से उष्णतावर्द्धक तत्त्वों को हटाना चाहिए। गरम-गरम चाय, काफी, सिगरेट, नशे, मिर्च-मसाले, स्वाद में भले ही अच्छे लगते हैं,पर उनकी प्रतिक्रिया शरीर पर ही नहीं, मन पर भी बुरी होती है। तामसिक भोजन इसलिए हानिकारक बताया गया है कि वह ऊष्मा की अनावश्यक मात्रा बढ़ाकर अवांछनीय उत्तेजना पैदा करता है। गरमी हर चीज को सुखाती है। आहार की उष्णता हमें सुखाती और पिघलाती है। इससे पुष्टि और दृढ़ता बनाए रखने वाले तत्त्व घटते जाते हैं और असमय ही मृत्यु के मुख में जाना पड़ता है। ऋषि-मुनियों की तपश्चर्या— तप-साधनाएँ शीतप्रधान हिमालय में होती थीं। ठंड से हानि नहीं, लाभ होता है। खाँसी, जुकाम, निमोनिया आदि सरदी के प्रकोप नहीं, वरन भीतर भरे हुए विकारों को शीत के प्रयोग से बाहर करने का उपाय है जो उस वातावरण में थोड़े दिन रहने पर सहज ही ठीक हो जाता है। गरम रहन-सहन की आदत बदलते समय थोड़ी प्रतिक्रिया हो सकती है, पर कुछ ही दिन में यह स्पष्ट हो जाएगा कि सरदी सहने के लिए शरीर खुशी-खुशी तैयार है। नाक के भीतरी भाग सबसे कोमल हैं। आँखें भी कम कोमल नहीं हैं। गाल, होंठ आदि चेहरे का सारा कलेवर नंगा रहता है। उस पर कोई ऊनी या सूती वस्त्र नहीं पहनाया जाता है। चेहरे के सभी कोमल अंग पूर्णतया नंगे रहकर शीत को सहते हैं और किसी प्रकार की असुविधा अनुभव नहीं करते। यदि संभव हो तो अपना निवासस्थान शीतप्रधान क्षेत्रों में विनिर्मित करना चाहिए। बीच-बीच में कुछ समय के लिए उधर जाते रहना चाहिए। अन्यथा जहाँ भी रहना पड़े, वहाँ अपेक्षाकृत शीतल वातावरण बनाने का प्रयत्न करना चाहिए। सघन वृक्षों की छाया, नदीतट, कच्ची मिट्टी या फूस से बने घर शीतल रहते हैं और लाभ पहुँचाते हैं। उष्णप्रदेश में रहने वालों की अपेक्षा शीत प्रकृति के क्षेत्रों में रहने वालों का स्वास्थ्य और सौंदर्य सदा अच्छा पाया जाएगा। यह शीत का ही महात्म्य है। कपड़ों से लदे और कसे रहने से त्वचा पीली पड़ जाती है और उसकी सहनशक्ति नष्ट हो जाती है। ऐसे लोग बार-बार और जल्दी-जल्दी बीमार पड़ते हैं। स्वस्थ रहना हो तो कम से कम कपड़े पहनने चाहिए, सो भी ढीले और हवादार। भारतीय प्राचीन पोशाक में धोती-दुपट्टा दो ही पुरुषों के वस्त्र थे। शरीर को खुली हवा और रोशनी समुचित मात्रा में मिलती रहे। वायुसंपर्क से शीतलता मिलती रहे; इसीलिए अपने शरीर आच्छादन की यह प्रक्रिया बनाई गई थी। शीत छूने में ही ठंडा लगता है। वस्तुतः उसमें वास्तविक और उपयोगी उष्णता पैदा करने की पूरी-पूरी सामर्थ्य विद्यमान है। गरम वस्तुएँ छूने में उत्तेजक प्रतीत होती हैं, परिणाम में शिथिलता और अशक्तता ही उत्पन्न करती हैं। इस तथ्य को समझने पर हमें इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ेगा कि शारीरिक और मानसिक क्षेत्र को अनावश्यक ताप से बचाकर उपयुक्त शीतलता के संपर्क में रखना ही श्रेयस्कर है।
चुंबकशक्ति कल-कारखानों में बहुत काम आती है। उनके बनाने और क्षमता स्थिर रखने का झंझट बहुत बड़ा है। भावी शीतयुग में कुछ पदार्थों को तरल हीलियम की सहायता से ‘क्रियो चुंबक’ बना दिया जाएगा और फिर वे चिरकाल तक अपना काम करते रहेंगे। इसके लिए टिन के मिश्रण से बनने वाली ‘नोवियम’ धातु अधिक उपयोगी सिद्ध हो रही है। यह क्रियो चुंबक— साधारण चुंबक की अपेक्षा बारह हजारगुना अधिक शक्तिशाली होंगे। अणुबमों से या दूसरे अणु प्रयोगों से उत्पन्न होने वाली रेडियो-सक्रियता से बचने के लिए अभी बहुत दुर्बल साधन ढूंढ़े जा सके हैं; पर जब क्रियो चुंबकों का युग आ जाएगा तो रेडियो-सक्रियता से डरने की कोई आवश्यकता न रह जाएगी। एक और अतिआश्चर्य से ओत-प्रोत संभावना ‘क्रियोजेनिक्स’ विज्ञान की यह है कि एक 452 डिग्री में शीत की अदृश्य 'बोतल' बनेगी। यह आकाश में लटकी रहकर एक ऐसा ‘प्लाज्मा’ उत्पन्न करेगी, जो लगभग सूर्य की सतह जितना गरम होगा। इस गरमी से वे सारे काम लिए जा सकेंगे, जिन्हें अब तक आग, बिजली और भाप आदि से किया जाता रहा है। इससे अणुभट्टी बनाने की बात पुरानी और बेकार हो जाएगी। जितने तापमान की आवश्यकता होगी, उतना बिना किसी खरच के उपरोक्त ‘प्लाज्मा’ द्वारा प्राप्त कर लिया जाया करेगा। डॉ.सैन फोर्ड ब्राउन ने यह प्लाज्मा प्रयोगशाला में बनाकर दिखा भी दिया है। वह समय दूर नहीं, जब सार्वजनीन ताप के आवश्यकता की पूर्ति इन बिना खरच वाले माध्यम से ही होती रहा करेगी। ‘क्रियोजेनिक्स’ विज्ञान का कार्यक्षेत्र शून्य से 150 डिग्री ठंडक होने से आरंभ होता है और अभी उसकी अंतिम संभावना 460 डिग्री आँकी गई है। इस एब्सोल्यूट जीरो (अंतिम शून्य) से प्रभावित पदार्थों के मालेक्यूल्स अर्थात कण अपनी चिरंतन गतिशीलता त्यागकर स्थिर हो जाया करेंगे। ऐसी दशा में उन्हें अन्य किसी पदार्थ में बदल दिया जा सकना संभव हो सकेगा। तब लोहा सोने में भी परिवर्तित हो सकेगा और पारस पत्थर की दंंतकथा प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर होती रहेगी। शीत विज्ञान नया नहीं है। इसके प्रयोग बहुत दिनों से चल रहे हैं, पर अब उसकी व्यापक संभावनाएँ अधिक विश्वस्त हो चली हैं। गैसों का शीतलीकरण भली प्रकार होने लगा है। ठंडक पाकर वे तरल हो जाते हैं। शून्य से 297 डिग्री पर अभिजन, 302 पर आरगान, 320 पर हाइड्रोजन और 452 पर हीलियम द्रव रूप में बदल जाती है। यह द्रविभूत गैस अनंतशक्ति की निर्झरिणी है। उसका स्पर्श होते ही बर्फ की सिल्ली देखते-देखते उबलने लगती है। इन गैसों में इतनी प्रचंड तापोत्पादक क्षमता है। द्वितीय विश्वयुद्ध में जर्मनी ने लंदन पर बी-2 राकेट बरसाए थे। वे जहाँ गिरते थे, गजब ढाते थे। वे राकेट तरल ऑक्सीजन, अल्कोहल और दूसरे रसायनो से मिलाकर बनाए गए थे। मनुष्य के स्वभाव के अलावे व्यवहार में ताप का उपयोग अधिक होता रहा है। इससे खरच अधिक हुआ और लाभ कम रहा। अब दृष्टिकोण में परिवर्तन करने का समय आ गया। हमें शीत की उपयोगिता समझनी चाहिए और उसकी शक्ति को अपने क्रियाकलाप में सम्मिलित करना चाहिए। स्वभाव में आमतौर से जोशीले और सक्रिय व्यक्ति आवेश, उत्तेजना और क्रोध करने के आदी देखे गए हैं। जल्दबाज लोग अपनी इच्छानुकूल स्थिति न होने पर बेतरह झल्लाते, खीजते और उद्विग्न होते हैं। दूसरों को खिन्न, अपमानित और उत्तेजित करते हैं और अपना संतुलन बिगाड़कर शरीर और मस्तिष्क में अनावश्यक ताप उत्पन्न कर लेते हैं। इससे रक्त में विषैला माद्दा बढ़ता है और जीवनशक्ति का पोषक भाग जलता है।आवेशग्रस्त स्वभाव के कारण गुत्थियाँ सुलझती नहीं, उलझती हैं। हो चुकी हानि की पूर्ति क्रोध से किसी भी प्रकार नहीं हो सकती, वरन वह क्षति अपना और दूसरों का मानसिक संतुलन बिगड़ जाने से और भी अधिक बढ़ जाती है। यदि उस क्षति की पुनरावृत्ति रोकनी हो तो शांतचित्त से वास्तविक कारण तलाश करना चाहिए। इसके बाद निवारण के लिए धैर्यपूर्वक और शांतचित्त से प्रयत्न करना चाहिए। यह प्रयोजन शांति और क्षोभरहित स्थिति में ही ठीक तरह पूरा किया जा सकता है। अपने स्वभाव में यदि तापतत्त्व बढ़ा-चढ़ा हो तो उसे घटाने का अविलंब प्रयत्न आरंभ कर देना चाहिए। शीतलता बढ़ने से अपना व्यक्तित्व उतना ही प्रभावशाली, चिंतनशील और दूरदर्शितापूर्ण होता चला जाएगा। आहार में से उष्णतावर्द्धक तत्त्वों को हटाना चाहिए। गरम-गरम चाय, काफी, सिगरेट, नशे, मिर्च-मसाले, स्वाद में भले ही अच्छे लगते हैं,पर उनकी प्रतिक्रिया शरीर पर ही नहीं, मन पर भी बुरी होती है। तामसिक भोजन इसलिए हानिकारक बताया गया है कि वह ऊष्मा की अनावश्यक मात्रा बढ़ाकर अवांछनीय उत्तेजना पैदा करता है। गरमी हर चीज को सुखाती है। आहार की उष्णता हमें सुखाती और पिघलाती है। इससे पुष्टि और दृढ़ता बनाए रखने वाले तत्त्व घटते जाते हैं और असमय ही मृत्यु के मुख में जाना पड़ता है। ऋषि-मुनियों की तपश्चर्या— तप-साधनाएँ शीतप्रधान हिमालय में होती थीं। ठंड से हानि नहीं, लाभ होता है। खाँसी, जुकाम, निमोनिया आदि सरदी के प्रकोप नहीं, वरन भीतर भरे हुए विकारों को शीत के प्रयोग से बाहर करने का उपाय है जो उस वातावरण में थोड़े दिन रहने पर सहज ही ठीक हो जाता है। गरम रहन-सहन की आदत बदलते समय थोड़ी प्रतिक्रिया हो सकती है, पर कुछ ही दिन में यह स्पष्ट हो जाएगा कि सरदी सहने के लिए शरीर खुशी-खुशी तैयार है। नाक के भीतरी भाग सबसे कोमल हैं। आँखें भी कम कोमल नहीं हैं। गाल, होंठ आदि चेहरे का सारा कलेवर नंगा रहता है। उस पर कोई ऊनी या सूती वस्त्र नहीं पहनाया जाता है। चेहरे के सभी कोमल अंग पूर्णतया नंगे रहकर शीत को सहते हैं और किसी प्रकार की असुविधा अनुभव नहीं करते। यदि संभव हो तो अपना निवासस्थान शीतप्रधान क्षेत्रों में विनिर्मित करना चाहिए। बीच-बीच में कुछ समय के लिए उधर जाते रहना चाहिए। अन्यथा जहाँ भी रहना पड़े, वहाँ अपेक्षाकृत शीतल वातावरण बनाने का प्रयत्न करना चाहिए। सघन वृक्षों की छाया, नदीतट, कच्ची मिट्टी या फूस से बने घर शीतल रहते हैं और लाभ पहुँचाते हैं। उष्णप्रदेश में रहने वालों की अपेक्षा शीत प्रकृति के क्षेत्रों में रहने वालों का स्वास्थ्य और सौंदर्य सदा अच्छा पाया जाएगा। यह शीत का ही महात्म्य है। कपड़ों से लदे और कसे रहने से त्वचा पीली पड़ जाती है और उसकी सहनशक्ति नष्ट हो जाती है। ऐसे लोग बार-बार और जल्दी-जल्दी बीमार पड़ते हैं। स्वस्थ रहना हो तो कम से कम कपड़े पहनने चाहिए, सो भी ढीले और हवादार। भारतीय प्राचीन पोशाक में धोती-दुपट्टा दो ही पुरुषों के वस्त्र थे। शरीर को खुली हवा और रोशनी समुचित मात्रा में मिलती रहे। वायुसंपर्क से शीतलता मिलती रहे; इसीलिए अपने शरीर आच्छादन की यह प्रक्रिया बनाई गई थी। शीत छूने में ही ठंडा लगता है। वस्तुतः उसमें वास्तविक और उपयोगी उष्णता पैदा करने की पूरी-पूरी सामर्थ्य विद्यमान है। गरम वस्तुएँ छूने में उत्तेजक प्रतीत होती हैं, परिणाम में शिथिलता और अशक्तता ही उत्पन्न करती हैं। इस तथ्य को समझने पर हमें इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ेगा कि शारीरिक और मानसिक क्षेत्र को अनावश्यक ताप से बचाकर उपयुक्त शीतलता के संपर्क में रखना ही श्रेयस्कर है।