Magazine - Year 1972 - Version 2
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Language: HINDI
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नारी अकेले ही सृष्टिक्रम चला सकती है
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नर शारीरिक दृष्टि से नारी की तुलना में बलिष्ठ
भले ही हो, पर इसके अतिरिक्त हर क्षेत्र में नारी की गरिमा बढ़ी-चढ़ी है।
भावनात्मक उत्कृष्टता के क्षेत्र में तो वह निस्संदेह पुरुष की तुलना में
कहीं आगे है।
अभी विज्ञान की कसौटी पर
नारी की गरिमा का एक तथ्य और भी स्पष्ट हुआ है— नारी के द्वारा एकाकी संतानोत्पादन। पुरूष के संयोग के
बिना भी उसके लिए संतानोत्पादन संभव है। पुरुष के लिए यह सर्वथा असंभव है।
इस दृष्टि से पुरुष अपूर्ण हुआ और नारी पूर्ण ठहरी। यदि सृष्टि-संचालन की
बात का ही भौतिक मूल्यांकन किया जाए तो एक एकड़ भूमि का मूल्य दस हजार और
उसमें प्रयुक्त होने वाले पच्चीस किलो बीज का मूल्य पच्चीस रुपया होता है।
संतानोत्पादन का श्रेय यदि दिया जाना हो तो वह नारी को ही मिल सकता है। नर
तो उस महान प्रक्रिया में मात्र एक स्वल्प सहयोग भर प्रदान करता है। सो भी
इतना कम कि उसके बिना भी काम चल सकता है।
यदि किसी कारणवश ऐसी स्थिति आ जाए कि नर और
नारी में से इस सृष्टि में एक ही वर्ग शेष रह जाए और दूसरा समाप्त हो जाए तो
नारी में वह क्षमता है कि वह अकेले भी सृष्टिक्रम को संचालित रख सकती है;
किंतु पुरुष के लिये ऐसा कर सकना सर्वथा असंभव है। उसके पास वे यंत्र-उपकरण
ही नहीं हैं, जिनसे गर्भधारण संभव होता है।
अब तक यही माना जाता था कि नर-संयोग के बिना
अकेली नारी प्रजनन में असमर्थ है, पर विज्ञान ने सिद्ध किया है कि इस
क्षेत्र में भी नारी संपूर्ण है। उसमें यह संभावना भी विद्यमान है कि यदि
वह चाहे तो स्वावलंबी रहकर सृष्टि-संचालन कर सकती है। अभी विज्ञान इतना ही
सिद्ध कर सका है कि नारी केवल कन्याओं को ही जन्म दे सकती है। पुत्र के जन्म
के लिए पुरुष का सहयोग अपेक्षित है। आज अनुभव की जाने वाली इस कमी का समाधान भी अगले दिनों मिल सकता है।
विज्ञान का हर विद्यार्थी जानता है कि
प्रत्येक मनुष्य के भीतर उभयलिंगों का अस्तित्व विद्यमान रहता है। नारी के
भीतर भी नर का अस्तित्व रहता है। इस अंतर्नर को ऐनिमस कहते हैं और हर नर के
भीतर नारी की सूक्ष्मसत्ता विद्यमान रहती है। इस अंतर्नारी को ऐनिमा कहते
हैं। कोई मनुष्य न पूर्णतया नर है, न नारी। स्तन नारी के विकसित होते
हैं, पर उनका अस्तित्व नर के भीतर भी रहता है। उसी प्रकार प्रजनन अंगों के
गह्वर में विपरित लिंग का अस्तित्व भली प्रकार देखा जा सकता है।
शरीरशास्त्र का कोई भी छात्र इसे सहज ही समझ सकता है। इतना ही नहीं, स्वभाव
और प्रवृत्तियों में भी बहुत-सी बातें नर में नारी का
और नारी में नर का अस्तित्व प्रदर्शित करती हैं।
अविकसित जीवों में नर-मादा का संयोग बिना हुए
भी संतानोत्पत्ति का क्रम चलता रहता है। बहुत से पौधे ऐसे हैं, जिनकी
टहनियाँ काटकर जमीन में गाड़ दी जाएँ तो वे उगती हैं और एक स्वतंत्र पेड़
बन जाता है। ईख इसी किस्म का पौधा है। गाजर की हर कोशिका से एक नया गाजर का
पौधा उगाकर अमेरिका के वनस्पतिविज्ञानी प्रो.स्टीवर्ड ने दिखाया है।
हाइड्रा नामक एक सूक्ष्मप्राणी के शरीर का कोई टुकड़ा गिर जाए तो वह एक
स्वतंत्र हाइड्रा बन जाता है। बैक्टीरिया भी इसी तरह दो खंडों में बँटते और
अपनी वंशवृद्धि करते हैं। हर वनस्पति की भिन्नलिंगी पराग या बीज में
उभयपक्षी लिंगभेद हो ही, यह आवश्यक नहीं। पेड़-पौधों के प्रजनन में भी जीवधारियों की
तरह परागण क्रिया ही मूल कारण होती है। रज-वीर्य की तरह इनमें भी
स्त्रीकेशर और पुंकेसर तत्त्व होते हैं और इनके मिलन पर ही फल एवं बीज की
उत्पत्ति होती है और यहीं से वंशवृद्धि का आधार बनता है।
कुछ पौधों में दोनों तत्त्व पाए जाते हैं और
हवा के साथ उड़कर अथवा मधुमक्खियों, तितलियों अथवा अन्य छोटे कीड़ों द्वारा
अपने पंख या पैरों के सहारे इधर-उधर किया जाता है और जब भिन्नलिंगी पराग का
परस्पर सम्मिश्रण होता है तो वे गर्भधारण करते हैं। यह भ्रूण ही फल हैं।
फल के अंदर बीज उसकी अगली पीढ़ी की तैयारी समझी जानी चाहिए।
बहुत से पेड़-पौधे एकलिंगी होते है। इस प्रकार
के मादा पौधे किसी अन्य पेड़ से पुंकेशर प्राप्त कर सकें तो वे फलित
नहीं होंगे। विज्ञान ने इन पौधों में भी कृत्रिम गर्भाधान की प्रक्रिया
आरंभ की है। समर्थ पुंकेसर का संयोग हलकी जाति के स्त्रीकेशर से कराने से
पौधों के स्तर को अधिक विकसित करने का सफल प्रयोग इन दिनों बहुत चल रहा है।
अच्छी जाति के बीज कठिनाई से मिलते हैं। फसल
के समय जो बीज अच्छा होता है, वह भी ऋतु-परिवर्तन या छूत के कीड़े चिपक जाने
से अपना प्रभाव खो बैठता है और अच्छा दीखने वाला बीज भी घटिया सिद्ध होता
है। अतः एक नई विधि यह निकाली गई है कि गन्ना आदि की तरह पेड़ के टुकड़े
काटकर उन्हें बोने को ही ऐसा योग कर दिया जाए कि अन्य पौधे भी उसी प्रकार
बिना बीज के उगने और बढ़ने लगें। टहनियाँ काटकर बोने और उसी से पौधा
उत्पन्न हो जाने की विधि अब तक कुछ खास किस्म के पौधों तक ही सीमित थी, पर
अब यह प्रयत्न किया जा रहा है कि अधिकांश पौधों में यह सुधार कर दिया जाए
कि वे संयोग अथवा परागण के बाहरी बीज की प्रतीक्षा किए बिना अपने आप में ही
वह प्रयोजन पूरा कर लिया करें और परागण की प्रतीक्षा किए बिना ही टहनियों
के द्वारा ही अपनी वंशवृद्धि जारी रख सकें।
पर प्राणि-जगत में यह बात आश्चर्य की समझी
जाती थी। निर्जीव अंडा देने वाली मुर्गियाँ बिना नर के संयोग के अंडे तो
दे लेती हैं, पर उनसे बच्चे नहीं हो सकते। मनुष्य जैसे विकसित प्राणी के
लिए तो यह और भी कठिन है।
पुराणों में ऐसी कथा मिलती हैं, जिनमें यह
बताया गया है कि विपरीतलिंगी संपर्क के बिना बच्चे हो सकते हैं। लंका-दहन के
पश्चात हनुमान समुद्र में नहाए। उनका पसीना मछली पी गई और उससे मकरध्वज का
जन्म हुआ। देवताओं और ऋषियों के बारे में भी ऐसा वर्णन मिलता है, पर
उन्हें अलंकारिक माना जाता है। पीछे के इतिहासकाल में भी जब इस प्रकार की
घटनाएँ देखने को मिलती हैं तो यह सोचने को विवश होना पड़ता है कि क्या यह
संभव है कि बिना संयोग के संतान उत्पन्न हो सके। वृद्ध दशरथ जी की तीन
रानियों की संतानें यज्ञचरु से हुई थीं। व्यासजी ने वंशनाश के संकट को
बचाने के लिए राजा विचित्रवीर्य की रानियों को नग्न देखा भर था और उन्हें
पांडु, धृतराष्ट्र तथा विदुर के रूप में तीन संतानें मिलीं। इस दिशा में
खोज करने पर और भी उदाहरण मिलते हैं। कुंती ने कर्ण को कुमारी अवस्था में
ही उत्पन्न किया था। कर्ण ही नहीं, धर्मराज से युधिष्ठिर की, इंद्र से
अर्जुन की और पवन से भीम की उत्पत्ति मानी जाती है। क्या अशरीरी देवशक्तियों
का आवेश नारीदेहधारियों से संतानोत्पन्न कर सकता है? इस शृंखला में तब एक
कड़ी और जुड़ जाती है, जब हम कुमारी मरियम के पेट से ईसामसीह के जन्म की
बात पढ़ते हैं।
पुराने उदाहरणों के संबंध में कई तरह की
आशंकाएँ की जा सकती हैं और यह कहा जा सकता है कि नर-संयोग को उन दिनों
लोक-लाजवश देव आवेश कहकर छिपाया गया होगा। अब वे घटनाएँ बहुत
पुरानी हो गईं और अब उनका परीक्षण-विवेचन करने का समय नहीं रहा, इसलिए इन
उदाहरणों को लेकर इस निष्कर्ष पर पहुँचना कठिन है कि ईख और गुलाब की तरह
टहनियों से अथवा हाइड्रा और बैक्टीरिया जैसे जीवों की तरह क्या मनुष्य भी बिना
संयोग के सन्तानोत्पादन कर सकता है। केला केवल मादा अंडाशय का ही परिष्कृत
रूप है। प्रकृति में तो यह एकलिंगी प्रजनन— पार्थनोवेनेसिस चिरकाल से चला आ
रहा है। प्रश्न केवल मनुष्य के संबंध में है।
बात असंभव-सी लगती है, पर विज्ञान के बढ़ते
हुए चरणों ने इस संभावना को एक सच्चाई के रूप में प्रस्तुत कर दिया है कि
बिना नर की सहायता के नारी द्वारा अपने कौमार्य और ब्रह्मचर्य की रक्षा
करते हुए संतानोत्पन्न कर सकना संभव है। नर के लिए ऐसा कर सकना कठिन दीखता है। वस्तुतः
उसके पास भ्रूणधारण करने के वे अवयव नहीं होते, जो नारी को उपलब्ध
हैं।
कुछ समय पूर्व जीवविज्ञानी प्रो.हाल्डेन की
सहयोगिनी-सहधर्मिणी डॉ. हेलेन पर्व ने यह दावा किया था कि, ”किसी असंदिग्ध
कुमारी के गर्भवती होने की उतनी ही संभावना है, जितनी एक साथ कई बच्चे किसी
स्त्री के पेट से पैदा होने की। दोनों ही बातें अपवाद हैं, पर असंभव नहीं।
एक साथ कई बच्चे हर स्त्री के नहीं होते, पर उनका होना असंभव नहीं। इसी
प्रकार यदि कोई कुमारी बिना नर की सहायता के गर्भधारण करे तो इसे असाधारण
भर कहा जाना चाहिए, असंभव नहीं।”
इस दावे को लेकर पाश्चात्य देशों में एक बड़ा
विवाद उठ खड़ा हुआ। दावे को सिद्ध करने की चुनौती दी गई। अतः डॉ.पर्व
ने ब्रिटिश समाचारपत्रों में विज्ञापन छपाया कि जो महिलाएँ अपनी संतान की पिता भी
स्वयं ही बनना चाहती हों ,वे वैज्ञानिक परीक्षा के लिए आगे आएँ।
इस विज्ञापन के आधार पर लगभग 100 महिलाओं ने
इसके लिए अपने को प्रस्तुत किया। उनमें से प्राथमिक परीक्षा में 86
उत्तीर्ण हुई। इस प्रयोग की परीक्षा के लिए सुप्रसिद्ध जीवशास्त्रियों की
डॉ. स्टेनली वाल्फेर लिन की अध्यक्षता में एक समिति गठित की गई। इनके दल
में सम्मिलित सदस्य थे— प्रख्यात डॉक्टर वर्नाडे केंबर, डॉ. सिडनी और डॉ. डेविड बिन विलियम्स।
प्रयोग के लिए सबसे उपयुक्त शरीर पाया गया— श्रीमती
ऐमी मोरी जोंस का। प्रयोग सफल हुआ। श्रीमती जोंस ने एक लड़की को जन्म
दिया। इसमें कहीं किसी चालाकी की गुंजाइश न रहे, इस दृष्टि से प्रतिबंधों
की सारी व्यवस्था पूरी कर ली गई और पूरे गर्भकाल में चिकित्सकमंडली की
निरंतर देख-भाल रही। नियत समय पर कन्या को जन्म देकर श्रीमती जोंस ने उस
असंभव मानी जाने वाली बात को संभव करके दिखा दिया, जिसमें सृष्टि-संचालन के
लिए नर से नारी का संपर्क आवश्यक कहा जाता था।
इस प्रजनन से यह तथ्य स्पष्ट हो गया कि
प्रत्येक पानी के पूँछदार कीड़ों की तरह शुक्रकीटकों के सिर में 23
गुणसूत्र और पूँछ में माइटोकोंड्रिया नामक पिंड होते हैं। यह पिंड ही
शुक्राणुओं को गतिशील होने की शक्ति प्रदान करते हैं। अंडकों का
उद्दीपन और विभाजन आमतौर से शुक्राणु करते हें, पर यह अनिवार्य नहीं है। यह
उत्तेजना दूसरे प्रकार से भी उत्पन्न की जा सके तो नारी स्वयं ही प्रजनन
करने में सफल हो सकती है, क्योंकि उसके अंड में उत्पादन के सारे तत्त्व
मौजूद हैं। नारी के अंड में 23 गुणसूत्र होते हैं। वे 46 हो जाएँ तो
भ्रूणधारण हो सकता है। यह कार्य नारी के दो अंडों को मिला देने की
वैज्ञानिक पद्धति से भी संभव हो गया और श्रीमती जोंस ने कन्या को जन्म
दिया। नर का शुक्राणु रहने से यह लाभ था कि संतान में पिता की वंश-परंपरा और माता की वंश-परंपरा आपस में मिलकर संतान को मिश्रितधर्मी बना सकती थी, पर
यदि वैसा नहीं हुआ है तो केवल माता के स्वरूप और स्वभाव की ही संतान
उत्पन्न होगी। यह मिश्रण तो संभव नहीं, पर अंडाणु को उत्तेजित करना और
उसके गुणसूत्रों को द्विगुणित कर देना विज्ञान की पकड़ में है। यदि नर का
इस धरती पर से किसी कारणवश लोप हो जाए तो नारी अपने बलबूते पर सृष्टि
उत्पन्न करती रह सकती है। हाँ! वर्तमान उपलब्धियों के आधार पर वह केवल
कन्याएँ ही उत्पन्न कर सकती है। प्रकृति तो कुछ भी कर सकती है। उसके लिए मरियम के पेट से ईसा और कुंती के गर्भ से कर्ण का जन्म उनकी कुमारी माताओं
द्वारा पूर्णतया संभव है, पर विज्ञान अभी वहाँ तक नहीं पहुँचा। वह नारी के
पेट से कन्या उत्पन्न कर सका है। अभी नारी केवल कन्या की पिता बन सकी है।
आगे पुत्र की संभावना के लिए विज्ञान के अगले चरणों की प्रतीक्षा करनी
पड़ेगी।
श्रीमती जोंस के गर्भ से उत्पन्न ‘मोनका’ नाम
की लड़की अब किशोरावस्था में है। वह वैज्ञानिकों के लिए कौतूहलपूर्ण शोध
का विषय बनी हुई है। इन माँ-बेटी के शरीर में इतना साम्य है कि किसी भी
परीक्षण में उन दोनों की शरीररचना में कोई अंतर दिखाई नहीं पड़ता। रंग-रूप और अंगों की बनावट में इतनी समता है कि देखने वाले बड़ी उम्र की जोंस
को छोटी उम्र की जोंस में बदली हुई ही कहने लगते हैं। बच्ची को ट्रू
कापी अर्थात सत्य प्रतिलिपि के रूप में देखने के लिए लोग दूर-दूर से आते हैं।
नारी पर किया गया उपरोक्त प्रयोग अब
वैज्ञानिकों के लिए एक उत्साह और आशा का विषय बन गया है। जो पशु केवल दूध
के काम आते हैं, उनके नर बच्चे बेकार सिद्ध होते हैं और खाल-मांस के लिए
उन्हें मौत के घाट उतारना पड़ता है। बकरे और भैंसे जितना खाते हैं और जगह
घेरते हैं। उसकी तुलना में लाभ कम देते हैं; इसलिए उन्हें कसाई के हवाले ही
किया जाता है। यदि वे दुधारू पशु केवल मादाएँ ही जनने लगें तो फिर दूध की
भी कमी न रहे और मार-काट भी उतनी न मचानी पड़े, इसलिए पशुओं पर तथा दूसरे
जंतुओं पर यह प्रयोग किए जा रहे हैं कि मादा प्रजनन के संबंध में नर की
आश्रित न रहकर अपने पैरों पर आप खड़ी हो सके। इसके लिए केवल उस विधि को
व्यापक भर बनाना है, जिसके अनुसार मादा का अंड उत्तेजित और एकत्रित हो सके।
यह कार्य अब असंभव नहीं रहा। केवल यह कष्टसाध्य भर रह गया है। उसी को सरल
बनाने के प्रयत्न बहुत जोरों से चल रहे हैं।
फ्रांस के जीवविज्ञानी विग्यूर ने ‘सी अचिन’
नामक समुद्री जंतु पर संयोगरहित प्रजनन के सफल प्रयोग किए हैं। डॉ.ए. स्टाल्क भी ऐसी ही सफलता ट्रुथ स्कार्प मछलियों पर प्राप्त कर चुके हैं। अब
अन्य पक्षियों और पशुओं पर यह परीक्षण हो रहे हैं। संग्रहीत अनुभवों के
आधार पर मनुष्य की काया को यह सिद्ध करने के लिए हाथ में लिया जाएगा कि
नर-नारी का संपर्क दूसरी दृष्टि से भले ही उपयुक्त हो, पर संतानोत्पादन का
क्रम
तो उसके बिना भी चल सकता है। अब उन प्राचीन-पौराणिक उपाख्यान की सत्यता से
इनकार नहीं किया जा सकता, जिनमें बिना नर-संयोग के संतानजन्म का वर्णन है।