Magazine - Year 1972 - Version 2
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Language: HINDI
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कुंडलिनी के षट्चक्र और उनकी सामर्थ्य
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पौराणिक उपाख्यान में पुरुषार्थ का प्रतीक और
शक्ति का पुत्र कार्तिकेय स्कंद को माना गया है। यह यों शक्ति पार्वती के
पुत्र हैं, पर शिवपुराण के अनुसार उन्हें छः कृत्तिकाओं ने पाला। अग्नि ने
उन्हें गर्भ में धारण किया। शिव का रेतस् अग्नि के रूप में ही स्फुरित हुआ
और उसे वैश्वानर ने नारी के रूप में ग्रहण करके अपने भीतर ही परिपक्व किया।
अगणित व्यवधानों के प्रतीक यातुधानो ने देव जीवन को दुर्लभ बना रखा था।
उसका निराकरण इन कार्तिकेय स्कंद द्वारा ही संपन्न हुआ। इन शक्तिपुत्र के
छह मुख थे।
इस स्कंद-अवतरण को कुंडलिनी महाशक्ति से
संबंधित षट्चक्र समूह और उसके प्रभाव का वर्णन ही समझना चाहिए।
जननेंद्रिय-मूल में अवस्थित आधार अग्नि का नाम ही कुंडलिनी है। शिवरूप
सहस्रार के जागृत— प्रफुल्लित होने पर उसका जो पराग मकरंद निर्झरित हुआ, उसे
शिव का रेतस् कहना चाहिए। कुंडलिनी अर्थात आधार अग्नि ने उसे ग्रहण किया। छह
कृत्तिकाओं ने उसे परिपक्व किया। यह छह कृत्तिकाएँ छह चक्र ही हैं। शिव और
शक्ति का यह समन्वय-संयोग स्कंदरूपी महापराक्रम के रूप में प्रकट होता है।
इसके छह मुख थे। छह कृत्तिकाओं द्वारा परिपोषित छह मुख वाले कार्तिकेय को
अलंकार के रूप में षट्चक्रों का प्रभाव-परिणाम ही माना जाए।
षट्चक्र क्या हैं? कहाँ हैं? क्यों हैं? किस
स्थिति में हैं? उनका क्या प्रयोजन है? इन प्रश्नों की यहाँ प्रारंभिक
जानकारी ही प्राप्त कर लेनी चाहिए। जब उनके प्रयोग-उपयोग का शिक्षण होगा,
विस्तृत चर्चा उसी समय होगी। जननेंद्रिय के मूल में मेरुदंड का जहाँ अंत
होता है। उसके बीच में जितना पोला स्थान है, उसे साधनात्मक भाषा में योनि कंद
कहते हैं। स्थूलशरीरशास्त्र के अनुसार वहाँ सुषुम्ना नाड़ीगुच्छक भर है
,पर सूक्ष्मशरीर-रचना विज्ञान के अनुसार यहाँ एक विशेष अवयव है, जिसे
मूलाधार चक्र कहते हैं। इसके नीचे की पीठ कछुए जैसी है। इसे कूर्म कहते
हैं। इसके ऊपर एक छोटा मेरुदंड है, उसे सुमेरु कहते हैं। इसके चारों ओर
साढ़े-तीन फेरे लगाए हुए एक शक्तिसूत्र विद्यमान है। बस यही मूलाधार है।
इसे सब मिलाकर एक कुंड गह्वर में अवस्थित गेद अथवा कंद की समता देकर समझाया जा
सकता है। पहला चक्र यही है। कुंडलिनी का मूल स्थान यही है। ईंधन न मिलने
से जैसे अग्निकुंड में आग तो बुझ-सी जाती है, पर वहाँ गर्मी बनी रहती है।
यही स्थिति सामान्यतया सभी साधारण व्यक्तियों की होती है। प्रयत्न करने से अर्थात
प्राणरूपी ईंधन देने से यह प्रदीप्त होती है। उसकी लौ ऊपर उठती है।
मूलाधार से ऊपर मेरुदंड के सहारे क्रमशः ऊपर
उठते हुए छह चक्र हैं। ब्रह्मरंध्र में अवस्थित सातवाँ चक्र ‘सहस्रार’ है।
इसे भी गिनें तो चक्रों की संख्या सात हो जाती है। इसे लक्ष्यबिंदु मानें
और चक्र शृंखला में न गिनें तो उनकी संख्या छह रह जाती है। गणक इन्हें
दोनों ही तरह से गिनते रहे हैं। किसी ने छह कहा है तो किसी ने सात। प्रतिपादन
दोनों के ही ठीक हैं। इससे वस्तुस्थिति में कोई अंतर नहीं है। दोनों
पक्षों के कथनानुसार स्थिति बिलकुल एक है। गिनती समझने भर के लिए है।
जागृत कुंडलिनी की अग्निशिखा जैसे-जैसे अधिक
तीव्र होती जाती है, वह ऊपर उठती है और इन छहों को ऊष्ण करती हुई उनमें
हलचल उत्पन्न करती है। इसके फलस्वरूप जो शक्तितत्त्व उनके भीतर प्रसुप्त स्थिति
में— बीजरूप में दबे पड़े थे, वे जागृत एवं सक्रिय होने लगते हैं। इन चक्रों
को विश्वव्यापी विराट शक्तितत्त्व के संबंध स्थापित करने वाले मर्मस्थल
कहना चाहिए। जागृत अवस्था में इन्हीं के माध्यम से विश्वव्यापी समग्र चेतना
के साथ संबंध स्थापित किया जा सकता है और उस सामर्थ्य-सागर में से अपनी
अभीष्ट वस्तुओं को अभीष्ट मात्रा में ग्रहण किया जा सकता है।
सूक्ष्मशरीर में अवस्थित छह चक्रों को छह
ट्रांसफार्मर (Transformer) कहना चाहिए। जिनका काम निखिल आकाश में भरे
प्राणतत्त्व में से अभीष्ट मात्रा ग्रहण करना है। अपनी ग्राहकशक्ति के कारण
वे चक्र स्वयं गतिशील और मनुष्य की समग्र गतिशीलता को चलाते रहने का
प्रयोजन पूरा करते हैं। इन चक्रों की स्वस्थता और समर्थता पर हमारे
सूक्ष्मशरीर की समर्थता निर्भर रहती है। इनमें से कोई अशक्त या विकारग्रस्त
हो जाए तो उसका वैसा ही प्रभाव अंतरंग शरीर पर पड़ेगा। जैसे— हृदय,
मस्तिष्क, आमाशय, फुफ्फुस, यकृत, वृक्क आदि के क्षतिग्रस्त हो जाने से
सूक्ष्मशरीर पर पड़ता है। यदि ये चक्र ठीक काम करते रहें तो व्यक्ति की
मनस्विता विधिवत् काम करती रहती है। यदि उन्हें अधिक परिपुष्ट बना लिया
जाए तो जिस तरह पहलवान व्यक्ति अपनी परिपुष्ट काया के द्वारा अपना और
दूसरों का बहुत भला कर सकता है, इसी प्रकार इन चक्रों को समर्थ बनाने की
साधना का मार्ग अपनाकर निज की सर्वतोमुखी प्रतिभा एवं समर्थता को विकसित
किया जा सकता है और उससे आत्मकल्याण तथा विश्वकल्याण के दोनों प्रयोजन पूरे
किए जा सकते हैं।
छह चक्र प्रसिद्ध हैं। सातवाँ चक्र सहस्रार
है। इन सातों का एक समन्वय शक्तिपुंज (Logos) भी है। जिससे दृश्य सूर्य के
समान ही, किंतु अपने अलग ढंग की रश्मियाँ निकलती हैं। सूर्यकिरणों में सात
रंग अथवा ऐसी विशेषताएँ होती हैं, जिनका स्वरूप, विस्तार और कार्यक्षेत्र
सीमित है, पर इस आत्मतत्त्व के सूर्य का प्रभाव और विस्तार बहुत व्यापक है।
वह प्रकृति के प्रत्येक अणु को नियंत्रित एवं गतिशील रखता है, साथ ही चेतन
संसार की विधि-व्यवस्था को सँभालता-सँजोता है। इसे पाश्चात्य तत्त्ववेत्ता
संस आफ फोतह (Sons of fotah) कहते हैं और प्रतिपादित करते हैं कि
विश्वव्यापी शक्तियों का मानवीकरण (Grozs mauifestation) इसी केंद्रसंस्थान द्वारा हो सका है।
सामान्य शक्तिधाराओं में प्रधान गिनी जाने
वाली ये सात हैं— (1) गति, (2) शब्द, (3) ऊष्मा, (4) प्रकाश, (5) संयोग, (6)
विद्युत और (7) चुंबक। इन्हें सात चक्रों का प्रतीक ही मानना
चाहिए।
कुंडलिनीशक्ति को कई विज्ञानवेत्ता विद्युतीय द्रव (Electric Fluid) या नाड़ीशक्ति (Nerve fluid) कहते हैं।
इस निखिल विश्व-ब्रहमांड में संव्याप्त
परमात्मा की छह चेतनशक्तियों का अनुभव हमें होता है। यों शक्तिपुंज पर
ब्रह्म की अगणित शक्तिधाराओं का पता पा सकना, मनुष्य की सीमित बुद्धि के
लिए असंभव है। फिर भी हमारे दैनिक जीवन में जिनका प्रत्यक्ष संपर्क-संयोग
रहता है, उनमें प्रमुख ये हैं— (१) पराशक्ति, (2) ज्ञानशक्ति, (3)
इच्छाशक्ति, (4) क्रियाशक्ति, (5) कुंडलिनीशक्ति, (6) मातृकाशक्ति और (7) गुह्य।
इन सबका सम्मिलित शक्तिपुंज ईश्वरीय प्रकाश (Light of lhgos) अथवा
सूक्ष्मप्रकाश (Astral light) कहा जाता है। यह सातवीं शक्ति है। कोई चाहे
तो इस
शक्तिपुंज को उपरोक्त छह शक्तियों का उद्गम भी कह सकता है। इन सबको हम
चेतनसत्ताएँ कह सकते हैं। उसे पवित्र अग्नि (Sacred fire) के रूप में भी
कई जगह वर्णित किया गया है और कहा गया है कि उसमें से आग-ऊष्मा नहीं,
प्रकाश-किरणें निकलती हैं। वे शरीर में विद्यमान ग्रंथियों (Glaudz) ,
केंद्रों (Centres), और गुच्छकों (Ganglion) को असाधारण रूप से प्रभावित
करती हैं। इससे मात्र शरीर या मस्तिष्क को ही बल नहीं मिलता, वरन समग्र
व्यक्तित्व की महान संभावना को और अग्रसर करती है।
इन सात चक्रों में अवस्थित सात उपरोक्त
शक्तियों का उल्लेख साधना ग्रंथों में अलंकारिक रूप में हुआ है। उन्हें सात
लोक, सात समुद्र, सात द्वीप, सात पर्वत, सात ऋषि आदि नामों से चित्रित किया
गया है। इस चित्रण में यह संकेत है कि इन चक्रों में किन-किन स्तर के
विराट शक्ति-स्रोतों के साथ संबंध हैं। बीजरूप से कौन महान सामर्थ्य इन
चक्रों में विद्यमान है और जागृत होने पर उन चक्र-संस्थानों के माध्यम से
मनुष्य का व्यक्तित्व छोटे से कितना विराट और कितना विशाल हो सकता है।
टोकरी भर बीज से लंबा-चौड़ा खेत हरा-भरा हो सकता है। अपने बीजभंडार में सात
टोकरी भरा हुआ सात किस्म का अनाज सुरक्षित रखा है। चक्र एक प्रकार के
शीतकृत गोदाम— कोल्ड स्टोर हैं और इन पर ताला जड़ा हुआ है। इन सात तालों की एक ही
ताली है और उसका नाम है— ‘कुंडलिनी'। जब उसके जागरण की साधना की जाती है तो
यह ताले खुलते हैं। बीज बाहर लाया जाता है। शरीररूपी साढ़े तीन एकड़ के खेत
में वह बोया जाता है। यह छोटा खेत अपनी सुसंपन्नता को अत्यधिक व्यापक बना
देता है। पुराणकथा के अनुसार राजा बलि का राज्य तीनों लोकों में था। भगवान
ने वामनरूप में उससे साढ़े तीन कदम भूमि की भिक्षा माँगी। बलि तैयार हो
गए। तीन कदम में तीन लोक और आधे कदम में बलि का शरीर नाप कर विराट ब्रह्म
ने उस सबको अपना लिया। हमारा शरीर साढ़े तीन हाथ लंबा है। चक्रों के जागरण
में यदि उसे लघु से महान अर्थात अणु से विभु कर लिया जाए तो उसकी साढ़े तीन
हाथ
की लंबाई या साढ़े तीन एकड़ जमीन न रहकर लोक-लोकांतरों तक विस्तृत हो सकती
है और उस उपलब्धि की याचना करने के लिए भगवान वामन के रूप में हमारे
दरवाजे
पर हाथ पसारे हुए उपस्थित हो सकते हैं।
सात चक्रों में सन्निहित शक्ति-स्रोतों की
तुलना किन भौतिक संस्थानों से— संपदाओं से— चेतनाओं से की जा सकती है। इसका
तुलनात्मक अलंकारिक उल्लेख साधना ग्रंथों में इस प्रकार मिलता है—
महीस्थतीर्थे विमले जले मुदा।
मूलाम्बुजे स्नाति स मुक्तिभाग्भवेत्॥
— महायोग विज्ञान
अर्थात पृथ्वी के समस्त तीर्थ मूलाधार चक्र में निवास करते हैं। उसमें जो स्नान करता है, मुक्त हो जाता है।
स्वर्गस्थं यावता तीर्थं स्वाधिष्ठाने सुपङ्कजे।
मनो निधाय योगीन्द्रः स्नाति गङ्गाजले तथा॥
मणिपूरे देवतीर्थं पञ्चकुण्ड सरोवरम्॥
तत्र श्रीकामना तीर्थं स्नाति यो मुक्तिमिच्छति॥
अनाहते सर्व तीर्थं सूर्यमंडलमध्यगम्।
विभाय सर्वतीर्थाणि स्नाति यो मुक्तिमिच्छति॥
— महायोग विज्ञान
स्वर्गस्थ तीर्थ स्वाधिष्ठान चक्र में
विद्यमान है। यहाँ निवास करने वाली देवगंगा में योगी लोग स्नान करते हैं।
मणिपूरचक्र देवतीर्थ है, उसमें पंचकुंड सरोवर है। वहाँ श्री कामतीर्थ है।
अनाहतचक्र में सूर्यमंडल में वर्तमान समस्त तीर्थ का निवास है। इनमें
स्नान करने वाले उन पुण्यलोकों के अधिकारी होते हैं।
मूलाधारेतु भूर्लोको स्वाधिष्ठाने भुवस्ततः।
स्वर्लोको नाभिदेशे च हृदये तु महस्तथा॥
जनलोकं कण्ठदेशे तपोलोकं ललाटके।
सत्यलोकं महारन्ध्रे इति लोकाः पृथक् पृथक्॥
लम्पादाङ्गष्ठतले तस्योपरि तलातलम्।
महातलं गुल्फमध्ये गुल्फोपरि रसातलम्॥
सुतलं जङ्घयोर्मध्ये वितलं जानुमध्यगम्।
ऊर्वोर्मध्ये तलम्प्रोक्तं सप्तपातालमीरितम्॥
— महायोग विज्ञान
मूलाधार चक्र में भूःलोक, स्वाधिष्ठान में
भुवःलोक, नाभि में स्वःलोक, हृदय में महःलोक, कंठ में जनःलोक, ललाट में तपःलोक और ब्रह्मरंध्र में
सत्यलोक है। इस प्रकार नीचे के भाग में सात पाताललोक हैं। पैरों के तले
में तललोक, पाँव के ऊपर भाग में तलातललोक, गुल्फ के बीच महातल, गुल्फ के ऊपर
रसातल, जंघाओं के मध्य वितल और उरुओं के मध्य पाताल है। इस प्रकार कटि से ऊपर
सात और नीचे सात कुल चौदह भुवन इसी शरीर में विद्यमान हैं, जो इस तथ्य को
जानता है वह दुःखों से छूटकर परम सुखी हो जाता है।
इसी शरीर में सुमेरु सातों द्वीप, समस्त
नदियाँ, सागर, पर्वत, क्षेत्र, क्षेत्रपाल, ऋषि-मुनि, नक्षत्र, ग्रह,
तीर्थ, पीठ, पीठदेवता, ब्रह्मा, विष्णु, महेश, सूर्य, चंद्रमा, आकाश,
वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, समस्त प्राणी और जो कुछ संसार में है, सो सब इस
सुमेरु (कुंडलिनीस्थित मेरु अथवा मेरुदंड) से लिपटे बैठे हैं और
अपने-अपने कार्य कर रहे हैं। जो इन सबको जानता है, वही योगी है।
देहेऽस्मिन् वर्त्ततो मेरुः सप्तद्वीपसमन्वितः।
सरितः सागराः शैलाः क्षेत्राणि क्षेत्रपालकाः॥
ऋषयो मुनयः सर्वे नक्षत्राणि ग्रहास्तथा ।
पुण्यतीर्थानि पीठानि वर्त्तन्ते पीठदेवताः॥
सृष्टिसंहारकर्त्तारौ भ्रमन्तौ शशिभास्करौ।
नभो वायुश्च वह्निश्च जलं पृथ्वी तथैव च॥
त्रैलोक्ये यानि भूतानि तानि सर्व्वाणि देहतः।
मेरुं संवेष्ट्य सर्व्वत्र व्यवहारः प्रवर्त्तते॥
जानाति यः सर्वमिदं स योगी नात्र संशयः।
— महायोग विज्ञान
उपरोक्त प्रतिपादन से स्पष्ट होता है कि यह
शरीर मात्र सप्तधातुओं का ही बना नहीं है; उसमें (1) रस, (2) रक्त, (3) मांस,
(4) मज्जा, (5) अस्थि, (6) मेद और (7) वीर्य ही नहीं, वरन उनके भीतर और भी
दिव्य तत्त्व हैं। यह सातों धातुएँ सात चक्रों से प्रभावित होती हैं और
हमारा शरीर अविज्ञात रूप से उन्हीं के द्वारा स्वस्थ-अस्वस्थ होता रहता है।
आहार-व्यायाम ही नहीं, चक्रों से संबंधित अंतरंग की गुह्य स्थिति
यदि ठीक प्रकार संचारित होती रहे तो आरोग्य और दीर्घ जीवन की संभावनाएँ
प्रखर हो सकती हैं। गुह्य स्थिति अस्त-व्यस्त रहे तो पौष्टिक आहार और बहुत
साज-सँभालकर रखने पर भी शरीर दुर्बल एवं अस्वस्थ ही बना रहेगा। यही बात
मनःसंस्थान की है। चेतना के विभिन्न स्तर इन चक्रों से प्रभावित होते
है और
चेतन-अचेतन मस्तिष्क के अवसाद को चेतना के उत्कर्ष में परिणत किया जा सकता
है। ऋद्धियों-सिद्धियों का जो चमत्कारी वर्णन साधना ग्रंथों में मिलता है,
उतना ही नहीं; वरन उससे भी अधिक उपलब्धियाँ अपने भीतर भरे शक्तिभंडार के
साधना विज्ञान के आधार पर अभीष्ट प्रयोजनों के लिए उपयोग कर सकने योग्य
बनाया जा सकता है।
जीवन एक यज्ञ है। मात्र हवनकुंडों में
संपन्न होने वाले अग्निहोत्र ही यज्ञ नहीं हैं। शरीररूपी पिंड और विराट
ब्रह्मांड में उनके स्तर के अनुरूप छोटे और बड़े रूप से यह सूक्ष्मयज्ञ
चलता रहता है। चक्रों को सात कुंड कहा जा सकता है। उनमें सात अग्नियों की
स्थापना, सात ऋषियों का पौरोहित्य, सात देवताओं का आह्वान, सात चरु, सात
परिणाम भी यह साधना-यज्ञ के होते हैं, जिससे कुंडलिनी विद्या के अंतर्गत
चक्रों के जागरण की प्रक्रिया द्वारा संपन्न किया जाता है—
सप्त प्राणाः प्रमवन्ति तस्मात्
सप्तार्चिषः समिधः सप्त होमाः।
सप्त इमे लोका येषु चरन्ति प्राणा।
गुहाशया निहिताः सप्त सप्त॥८॥
—मुण्डक 2।1।8
सप्तप्राण उसी से उत्पन्न हुए। अग्नि की सात ज्वालाएँ, सप्तसमिधाएँ, सात यज्ञ, सात लोक, यह सभी उस परमेश्वर से उत्पन्न हुए।
भूर्लोकस्था त्वमेवासि धरित्री शौकधारिणी।
भुवो लोके वायुशक्तिः स्वर्लोके तेजसां निधिः।12।
महर्लोके महासिद्धिर्जनलोके जनेत्यपि।
तपस्विनी तपोलोके सत्यलोके तु सत्यवाक्।13।
— देवी भागवत
सात लोकों में आप सात शक्ति होकर विद्यमान हैं और उनका संचालन करती हैं। (1) भूःलोक में— धरित्री,
(2) भुवःलोक में— वायु, (3) स्वःलोक में— तेजपुंज, (4) महःलोक
में— महासिद्धि, (5) जनःलोक में— जननशक्ति, (6) तपःलोक में— तपस्विनी और (7)
सत्यलोक में— सत्यवाक्।
कुंडलिनी विज्ञान उस विराट ब्रह्मांड और लघु
अंड-पिंड के वियोग को दूरकर परस्पर संबद्ध करने और मूर्च्छना को निरस्तकर
प्रखरता उत्पन्न करने की सांगोपांग विद्या है। इसके माध्यम से साधक अपनी
लघुता को महानता में विकसित कर सकता है।