Magazine - Year 1972 - Version 2
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Language: HINDI
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जल में रहकर भी उससे दूर
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नदी के इस तट पर प्रकृति के सुरम्य वातावरण में
आचार्य वशिष्ठ का आश्रम था। आचार्य श्री अपनी पत्नी अरुंधती के साथ गृहस्थ
जीवन की मर्यादाओं का पालन करते हुए तपस्या में लीन थे। सूर्यवंशी राजाओं
के पुरोहित के रूप में विख्यात थे।
और थोड़ी ही दूर नदी के उस किनारे पर तेजस्वी
ऋषि विश्वामित्र का पवित्र आश्रम था। ऋषि यद्यपि ब्रह्मचर्य व्रत का पालन कर
रहे थे, किंतु आवश्यकता पड़ने पर नूतन सृष्टि का सृजन भी कर सकते थे।
वशिष्ठ एकाकी जीवन की कठिनाइयों से भली-भाँति
परिचित थे। वह अच्छी तरह जानते थे कि अकेले व्यक्ति को स्वयं अपने लिए भोजन
जुटाने में काफी समय लग जाता है और ऐसे समय में जबकि उसका एक-एक क्षण
लोकोपकार में बीत रहा हो तब तो वह सचमुच कठिनाई अनुभव करता होगा।
वशिष्ठ ने विश्वामित्र के लिए भोजन की
व्यवस्था अपने आश्रम में ही कर रखी थी। भोजन अपने संस्कार मानव के मन पर
छोड़ता है, इस बात को विश्वामित्र भली-भाँति जानते थे। ऋषिपत्नी अरुंधती के
बनाए भोजन में किसी भी प्रकार के कुसंस्कार का प्रश्न भी नहीं उठता।
विचारों की सात्विकता और मन की पवित्रता तो अरुंधती के जीवन की मुख्य
विशेषताएँ थीं। वह नित्य समय पर भोजन निर्मितकर, भगवान का भोग लगाकर
विश्वामित्र के आश्रम में पहुँचाया करती थीं।
वर्षा ऋतु की वह पहाड़ी नदी, 5-6 घंटे निरंतर
जोर का पानी गिरा कि घमंड में इतराकर चलने लगी। पानी इतना बढ़ गया कि उसे
पार करना कठिन। अरुंधती को चिंता हुई, मुनि भोजन की प्रतीक्षा में होंगे।
उन्होंने अपनी कठिनाई वशिष्ठ को बताई। उन्होंने कहा— "देवी! तुम नदी से
निवेदन करो कि यदि तुम निराहारी ऋषि की सेवा में भोजन लेकर जा रही हो तो वह
तुम्हें मार्ग प्रदान करें।"
अरुंधती ने वैसा ही किया। उन्होंने नदी से
विनम्र स्वर में राह माँगी और उसने अपने को दो भागों में विभाजितकर राह दे
दी। सूखा मार्ग बन गया।
ऋषिपत्नी को जाने में बड़ी सुविधा हुई।
विश्वामित्र को भोजन देकर वह चलने लगीं तो नदी
के पूर्ववत् प्रचंड-रूप को देखकर पार करने का साहस न हुआ। उन्होंने
विश्वामित्र से कहा— "मुनिवर! ऐसा प्रतीत होता है कि आज तो कुछ घंटे यहीं
पर रुकना होगा।"
‘नहीं! नहीं! रुकने की कोई आवश्यकता नहीं। तुम
जाओ। नदी के किनारे पर खड़ी होकर उससे कहो— "मैं आजन्म ब्रह्मचारी वशिष्ठ की
सेवा में जा रही हूँ तो वह मार्ग प्रदान करे।"
विश्वामित्र की आज्ञा पाकर अरुंधती चल दीं
पहले की तरह नदीतट पर। उनके आग्रह पर नदी को पुनः मार्ग बनाना पड़ा और वह
पार होकर अपने पति के पास पहुँच गई, पर उन्हें आश्चर्य अवश्य हुआ। दोनों ओर
से नदी पार की गई, पर निकलने का तरीका एक ही। वह सोचने लगी कि मैं स्वयं
विश्वामित्र को अपने हाथों से भोजन करा रही हूँ फिर वह निराहारी कैसे? और
मेरे पति ब्रह्मचारी कैसे? वह भी आजन्म, जबकि मैं उनके ही सौ पुत्रों की
माता बन चुकी हूँ।
अरुंधती को यह रहस्य लगा। वे जिज्ञासु की तरह
पति से पूछ बैठीं, उन दोनों प्रश्नों के उत्तर। वशिष्ठ बोले— "जिस प्रकार
कमल पानी में रहते हुए भी पानी से दूर रहता है। इसी प्रकार जो मनीषी केवल
जीवन-रक्षा के लिए भोजन को ग्रहण करता है और कर्म की साधना में रत रहता है, वह
सदा निराहारी ही है। जो अपने ज्ञानवंश की वृद्धि के लिए ही निष्काम भाव से
अपनी पत्नी से संबंध स्थापित करता है, वह आजन्म ब्रह्मचारी है। वह दोनों
कमलवत् निर्लिप्त स्थिति में हैं।" अब अरुंधती की जिज्ञासा पूर्णतया शांत
हो गई।