Magazine - Year 1973 - Version 2
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Language: HINDI
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सोहम्-साधना से भावोर्त्कष एवं शक्ति अवतरण
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प्रत्यावर्तन सत्र में प्रात: 6.30 से 7 तक आधा घंटा की गायत्री उपासना के पश्चात 7 से 7.45 तक सोऽहम्-साधना की प्राणयोग-प्रक्रिया है। इन दोनों में कमर को सीधी रखकर, पालथी मारकर सुखासन में बैठना पड़ता है। ध्यान-साधनाओं से शरीर को ढीला और मन को खाली करना पड़ता है, इसलिए उनमें आराम-कुर्सी, दीवार, पेड़ का सहारा लेकर बैठने अथवा चित्त लेटने की आवश्यकता पड़ती है। गायत्री उपासना और सोऽहम्-साधना जपात्मक प्रक्रियाएँ हैं। सोऽहम्-साधना को अजपा गायत्री भी कहते हैं। प्राण निरंतर उसका बीजरूप में जप करता रहता है। अस्तु उसके लिए भी मेरुदंड को सीधा रखकर ही एवं पालथी मारकर ही बैठना पड़ता है।
श्वास लेते समय ‘सो’ ध्वनि का और छोड़ते समय ‘हम्’ ध्यान के प्रवाह को सूक्ष्म श्रवणशक्ति के सहारे अंतःभूमिका में अनुभव करना। यही है संक्षेप में ‘सोऽहम्-साधना’।
वायु जब छोटे छिद्र में होकर वेगपूर्वक निकलती है तो घर्षण के कारण ध्वनि-प्रवाह उत्पन्न होता है। बाँसुरी से स्वर-लहरी निकलने का यही आधार है। जंगलों में जहाँ बाँस बहुत उगे होते हैं, वहाँ अक्सर बाँसुरी जैसी ध्वनियाँ सुनने को मिलती हैं। कारण कि बाँसो में कहीं-कहीं कीड़े छेद कर देते हैं और उन छेदों से जब हवा वेगपूर्वक टकराती है तो उसमें उत्पन्न स्वर-प्रवाह सुनने को मिलता है। वृक्षों से टकराकर जब द्रुतगति से हवा चलती है तब भी सनसनाहट सुनाई पड़ती है। यह वायु के घर्षण की ही प्रतिक्रया है।
नासिका छिद्र भी बाँसुरी के छिद्रों की तरह हैं। उनकी सीमित परिधि में होकर जब वायु भीतर प्रवेश करेगी तो वहाँ स्वभावतः ध्वनि उत्पन्न होगी। साधारण श्वास-प्रश्वास के समय भी वह उत्पन्न होती है, पर इतनी धीमी रहती है कि कानों के छिद्र उन्हें सरलतापूर्वक नहीं सुन सकते। प्राणयोग की साधना में गहरे स्वासोच्छ्वास लेने पड़ते हैं। प्राणायाम का मूल स्वरूप ही यह है कि श्वास जितनी अधिक गहरी, जितनी मंदगति से ली जा सके लेनी चाहिए और फिर कुछ समय भीतर रोककर धीरे-धीरे उस वायु को पूरी तरह खाली कर देना चाहिए। गहरी और पूरी सांस लेने से स्वभावत: नासिका छिद्रों से टकराकर उत्पन्न होने वाला ध्वनि-प्रवाह और भी अधिक तीव्र हो जाता है। इतने पर भी वह ऐसा नहीं बन पाता कि खुले कानों से उसे सुना जा सके। कर्णेंद्रियों की सूक्ष्मचेतना में ही उसे अनुभव किया जा सकता है।
चित्त को श्वसन-क्रिया पर एकाग्र करना चाहिए और भावना को इस स्तर की बनानी चाहिए कि उससे श्वांस लेते समय ‘सो’ शब्द के ध्वनि-प्रवाह की मंद अनुभूति होने लगे। उसी प्रकार जब सांस छोड़ना पड़े तो यह मान्यता परिपक्व करनी चाहिए कि ‘हम्’ ध्वनि-प्रवाह विनिसृत हो रहा है। आरंभ में कुछ समय यह अनुभूति उतनी स्पष्ट नहीं होती; किंतु क्रम और प्रयास जारी रखने पर कुछ ही समय उपरांत इस प्रकार का ध्वनि-प्रवाह अनुभव में आने लगता है और उसे सुनने में न केवल चित्त ही एकाग्र होता है, वरन आनंद का अनुभव होता है।
‘सो’ का तात्पर्य परमात्मा और ‘हम्’ का जीवचेतना समझा जाना चाहिए। निखिल विश्व-ब्रह्मांड में संव्याप्त महाप्राण नासिका द्वारा हमारे शरीर में प्रवेश करता है और अंग-प्रत्यंग में जीवकोष तथा नाड़ीतंतु में प्रवेश करके उसको अपने संपर्क-संसर्ग का लाभ प्रदान कराता है। यह अनुभूति ‘सो’ शब्द ध्वनि के साथ अनुभूति भूमिका में उतरनी चाहिए और ‘हम्’ शब्द के साथ जीव द्वारा इस काय-कलेवर पर से अपना कब्जा छोड़कर चले जाने की मान्यता प्रगाढ़ की जानी चाहिए।
प्रकारांतर से परमात्म सत्ता का अपने शरीर और मन:क्षेत्र पर आधिपत्य स्थापित हो जाने की ही यह धारणा है। जीव भाव अर्थात स्वार्थवादी संकीर्णता, काम, क्रोध, लोभ, मोह भरी मद-मत्सरता— अपने को शरीर या मन के रूप में अनुभव करते रहने वाली आत्मा भी दिग्भ्रांत स्थिति का नाम ही जीव-भूमिका है। इस भ्रम-जंजाल भरे जीव भाव को हटा दिया जाए तो फिर अपना विशुद्ध अस्तित्व ईश्वर के अविनाशी अंश आत्मा के रूप में ही शेष रह जाता है। काय-कलेवर के कण-कण पर परमात्मा के शासन की स्थापना और जीव-धारणा की बेदखली — यही है सोऽहम्-साधना का तत्त्वज्ञान। श्वास-प्रश्वास क्रिया के माध्यम से ‘सो’ और ‘हम्’ ध्वनि के सहारे उसी भाव-चेतना को जागृत किया जाता है कि अपना स्वरूप ही बदल रहा है। अब शरीर और मन पर से लोभ-मोह का, वासना-तृष्णा का आधिपत्य समाप्त हो रहा है और उसके स्थान पर उत्कृष्ट चिंतन एवं आदर्श कर्तृत्व के रूप में ब्रह्मसत्ता की स्थापना हो रही है। शासन परिवर्तन जैसी राज्यक्रांति जैसी यह भाव-भूमिका है, जिसमें अनाधिकारी-अनाचारी शासनसत्ता का तख्ता उलटकर उस स्थान पर सत्य, न्याय और प्रेम संविधान वाली धर्मसत्ता का राज्याभिषेक किया जाता है। सोऽहम्-साधना इसी अनुभूति स्तर को क्रमशः प्रगाढ़ करती चली जाती है और अंत:करण यह अनुभव करने लगता है कि अब उस पर असुरता का नियंत्रण नहीं रहा, उसका समग्र संचालन देवसत्ता द्वारा किया जा रहा है।
सोऽहम्-साधना के लिए प्रत्यावर्तन सत्र में पौन घंटा निर्धारित है। इसमें से आरंभ के पंद्रह मिनट श्वास-ध्वनि ग्रहण करते समय ‘सो’ और निकालते समय ‘हम्’ की धारणा में लगने चाहिए। प्रयत्न करना चाहिए कि इन शब्दों के आरंभ में अतिमंद स्तर की होने वाली अनुभूति में क्रमश: प्रखरता आती चली जाए। इसके उपरांत शेष आधा घंटे में चिंतन का स्तर यह होना चाहिए कि सांस में घुले हुए भगवान अपनी समस्त विभूतियों और विशेषताओं के साथ काय-कलेवर में भीतर प्रवेश कर रहे हैं। यह प्रवेश मात्र आवागमन नहीं है; वरन प्रत्येक अवयव पर सघन आधिपत्य बन रहा है। एक-एक करके शरीर के भीतरी प्रमुख अंगो के चित्र की कल्पना करनी चाहिए और अनुभव करना चाहिए, उसमें भगवान की सत्ता चिरस्थाई रूप से समाविष्ट हो गई। ह्रदय, फुफ्फुस, आमाशय, आंतें, गुर्दे, जिगर, तिल्ली आदि में भगवान का प्रवेश हो गया। रक्त के साथ प्रत्येक नस-नाड़ी और कोशिकाओं पर भगवान ने अपना शासन स्थापित किया।
बाह्य अंगों ने पाँच ज्ञानेंद्रियों ने भगवान के अनुशासन में रहना और उनका निर्देश पालन करना स्वीकार कर लिया। जीभ वही बोलेगी जो इश्वरीय प्रयोजनों की पूर्ति में सहायक हो। देखना, सुनना, बोलना, चखना आदि इंद्रियजन्य गतिविधियाँ दिव्य निर्देशों का ही अनुगमन करेंगी। जननेंद्रिय का उपयोग, वासना के लिए नहीं मात्र ईश्वरीय प्रयोजनों के लिए अनिवार्य आवश्यकता का धर्मसंकट सामने आ खड़ा होने पर ही किया जाएगा। हाथ-पाँव मानवोचित कर्त्तव्यपालन के अतिरिक्त ऐसा कुछ न करेंगे जो ईश्वरीय सत्ता को कलंकित करता हो। मस्तिष्क ऐसा कुछ न सोचेगा, जिसे उच्च आदर्शो के प्रतिफल ठहराया जा सके। बुद्धि कोई अनुचित न्याय विरुद्ध एवं अदूरदर्शी-अविवेक भरा निर्णय न करेगी। चित्त में अवांछनीय एवं निकृष्ट स्तरीय आकांक्षाएँ न जमने पाएँगी। अहंता का स्तर नर-कीटक जैसा नहीं नर-नारायण जैसा होगा।
यही हैं वे भावनाएँ जो शरीर और मन पर भगवान के शासन स्थापित होने के तथ्य को यथार्थ सिद्ध कर सकती हैं। यह सब उथली कल्पनाओं की तरह मनोविनोद भर नहीं रह जाना चाहिए; वरन उसकी आस्था इतनी प्रगाढ़ होनी चाहिए कि इस भाव-परिवर्तन को क्रियारूप में परिणत हुए बिना चैन ही न पड़े। सार्थकता उन्हीं विचारों की है जो क्रियारूप में परिणत होने की प्रखरता से भरे हों, अन्यथा स्वप्नदर्शी शेखचिल्ली ऐसे ही बैठे-ठाले मन-मोदक खाते रहते हैं। उनसे कुछ प्रयोजन सिद्ध हो सकता नहीं। सोऽहम्-साधना के पूर्वार्ध में अपने काय-कलेवर पर श्वसन-क्रिया के साथ प्रविष्ट हुए महाप्राण की, परब्रह्म की सत्ता स्थापना का इतना गहन चिंतन करना पड़ता है कि यह कल्पना स्तर की बात न रहकर एक व्यावहारिक यथार्थता के प्रत्यक्ष तथ्य के रूप में दृष्टिगोचर होने लगे।
इस साधना का उत्तरार्ध पाप निष्कासन का है। शरीर में से अवांछनीय इंद्रिय-लिप्साओं का, आलस्य-प्रमाद जैसी दुष्कृतियों का, मन से लोभ-मोह जैसी तृष्णाओं का, अंतस्तल से जीव भावी अहंता का निवारण-निराकरण हो रहा है। ऐसी भावनाएँ अत्यंत प्रगाढ़ होनी चाहिए। दुर्भावनाएँ और दुष्कृतियाँ, निष्कृताएँ और दुष्टताएँ, क्षुद्रताएँ और हीनताएँ सभी निरस्त हो रही हैं, सभी पलायन कर रही हैं। यह तथ्य हर घड़ी सामने खड़ा दीखना चाहिए। अनुपयुक्तताओं के निरस्त होने के उपरांत ही हलकापन— जो संतोष, जो उल्लास स्वभावतः होता है और निरंतर बना रहता है, उसी का प्रत्यक्ष अनुभव होना ही चाहिए। तभी यह कहा जा सकेगा कि सोऽहम्-साधना का उत्तरार्ध भी एक तथ्य बन गया।
भावोत्कर्ष की दृष्टि से जो ‘हम्’ साधना के साथ-साथ उपरोक्त भावचित्रों को मन:क्षेत्र पर अतिसघन चित्रित किया जाना चाहिए। इससे वह चिंतन कुछ ही समय में जीवन का एक प्रवाह बन जाता है और साधक का आंतरिक कायाकल्प होने से बाह्य जीवन अनासक्त कर्मयोगी जैसा उत्कृष्ट दृष्टिगोचर होने लगता है। ऐसा व्यक्ति सांसारिक दृष्टि से कृषक, पशुपालक, श्रमिक, व्यवसायी जैसे सामान्य आजीविका में निरत होने के कारण छोटा भले ही समझा जाए, पर वस्तुतः आंतरिक उत्कृष्टता के कारण वह होता अत्यंत महान ही है। अध्यात्म मूल्यांकनों की कसौटी पर कसने से उसे महामानव एवं ऋषिकाय ही ठहराया जा सकता है। राजा जनक यों सांसारिक दृष्टि से क्रियाव्यस्त व्यक्ति थे, पर अपने उदात्त दृष्टिकोण के कारण वे सदा ब्रह्मवेत्ता ही माने गए। किसी को साधारण स्तर का जीविकोपार्जन करना पड़े, इससे कुछ बनता बिगड़ता नहीं। यदि सोऽहम्-साधना स्तर की मान्यताएँ गहराई तक अंत:करण में जड़ जमा लें और वे कार्यरूप में परिणत होने के लिए आतुर हो उठें तो समझना चाहिए इस एक ही साधना ने जीवनलक्ष्य प्राप्त कराने का प्रयोजन पूरा कर दिया।
यों सोऽहम्-साधना का चमत्कारी प्रयोजन भी कम नहीं है। यह प्राणयोग की महती साधना है। दस प्रधान और चौवन गौण, इस प्रकार चौंसठ प्राणायामों का साधना विज्ञान के अंतर्गत विधि-विधान वर्णित है और उनके अनेकानेक लाभ-परिणाम बताए गए हैं। इन सब में प्रथम और सर्वोपरि ‘सोऽहम्-साधना’ में सन्निहित प्राणयोग ही है। जिस प्रकार मंत्रो में गायत्री सर्वोपरि है, उसमें प्राणयोग के विविध साधना-विधानों में सर्वोच्चत मान्यता सोऽहम् के अजपा गायत्री जाप की है। सभी प्राणायाम का लाभ इस एक से ही उठाया जा सकता है।
षट्चक्रवेधन के लिए प्राणतत्त्व के वरमें ही छेद करने का काम करते हैं। आज्ञाचक्र तक नासिका द्वारा प्राणतत्त्व खींचने का कार्य एक ही ढंग से चलता है। पीछे उसके दो भाग हो जाते हैं — एक भावपरक, दूसरा शक्तिपरक। भावपरक में फेफड़ों में पहुँचा हुआ प्राण समस्त शरीर के अंग-प्रत्यंगों में समाविष्ट होकर सत् का संस्थापन और असत् का निवारण संपन्न करता है। आज्ञाचक्र में एक दूसरी प्राणधारा पिछले मस्तिष्क को स्पष्ट करती हुई मेरुदंड में निकल जाती है। वही ब्रह्मनाड़ी का महाशक्तिनद है। इड़ा और पिंगला की दो विद्युत धाराएँ इसी में प्रवाहित होती हैं। वे मूलाधारचक्र तक पहुँचती हैं और सुषुम्ना सम्मिलन के बाद वापिस लौट आती हैं। षट्चक्र इसी मेरुदंड में स्थित ब्रह्मनाड़ी महानद के अंतर्गत पड़ने वाले भँवर हैं। इनमें ही लोक-लोकांतरों से, अतिमानवी शक्तिसंस्थानों से संबध मिलाने वाली रहस्यमय कुंजियाँ सुरक्षित रखी हुई हैं। षट्चक्रों में से जो जितने रत्नभंड़ारों से संबध स्थापित कर ले, वह उतना ही महान बन सकता है। कुंडलिनीशक्ति को भौतिक और आत्मिक शक्तियों का आदान-प्रदान संपन्न करने वाली महत्तत्त्व भूमिका कह सकते हैं। उसका जागरण षट्चक्रवेधन के उपरांत ही होता है। चक्रवेधन के लिए प्राणतत्त्व पर आधिपत्य स्थापित करने वाले वेधक प्राणायामों का अभ्यास करना पड़ता है। जो प्राणायाम षट्चक्रवेधन में सहायता करते हैं, उनसे सोऽहम् का प्राणयोग सर्वप्रथम और सर्वसुलभ है। पंचकोषों के अनावरण का क्रम भी चक्रवेधन स्तर का ही है। उसके लिए भी प्राण-प्रखरता बढ़ानी पड़ती है। यह प्रयोजन भी सोऽहम्-साधना से ही पूरा होता है।
कहा जा चुका है कि सोऽहम् की भावना-साधना वाला पक्ष आज्ञाचक्र से मुड़कर फेफड़ों की तरह श्वास-प्रश्वास का रूप धारण करता है और वहीं से दूसरी धारा मेरुदंड की ओर मुड़कर शक्ति जागरण का काम करती है। सोऽहम्-साधना के हिमालय से मिकलने वाली गंगा-यमुना भावोत्कर्ष एवं शक्ति-संवर्द्धन के दोनों प्रयोजन पूरे करती है। इससे भौतिक और आत्मिक प्रगति के दोनों ही प्रयोजन पूरे होते हैं। शक्तिसंपन्न और भावोत्कर्ष की उभयपक्षीय उपलब्धियाँ ही समग्र अध्यात्म है। उसे प्राप्त करने में सोऽहम्-साधना कितनी महत्त्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत करती है। इसे अनुभव द्वारा ही जाना जा सकता है।
नासिका की वायु तत्त्व की तन्मात्रा गंध है। गंध के माध्यम से देवतत्त्वों की अनुभूति-साधना नासिका द्वारा ही होती है। सोऽहम्-साधना द्वारा गंध तन्मात्रा का विकास होता है और समय-समय पर अनायास ही दिव्य गंधों की अनुभूति होती है। इन गंधों में मन को प्रसन्न करना या कौतूहल दीखने जैसा साधारण लाभ नहीं; वरन वे विभूतियाँ भी भरी पड़ी हैं, जिनसे दिव्यशक्तियों और दिव्य सिद्धियों से लाभान्वित हुआ जा सकता है। सोऽहम्-साधना के लिए अगरबत्ती-धूपबत्ती जलाकर, गुलदस्ता सजाकर, चंदन-कपूर आदि लेपकर, इत्र लगाकर, गुलाबजल छिड़ककर उस स्थान पर सुगंध उत्पन्न की जाती है। साधना के समय अनुभव किया जाता है। प्रस्तुत गंध नासिका में — मस्तिष्क में बस रही है। उसकी अनुभूति सहज ही हो रही है। ऐसा क्रम साधना के समय चलता रहे तो आगे चलकर साधना-स्थल से बाहर निकलने पर भी, गंध का कोई उपकरण न होने पर भी, दिव्य गंध आती रहेगी। यह नासिका की सूक्ष्म तन्मात्रा के जागरण का, एकाग्रता की अभिवृद्धि का चिह्न है। इससे सफलता से प्रसन्नता का बढ़ना स्वाभाविक है।
मनुष्यों में नेत्र का महत्त्व बढ़ गया है। इसके बाद जिह्वा तथा कर्णेंद्रियों की बात है। दूसरी दृष्टि से देखा जाए तो नेत्र के बाद जननेंद्रिय को आवेशोत्पादक कहा जा सकता है; किंतु अन्य जीवधारियों में सबसे प्रबल और प्रधान नासिका ही होती है। वे गंध के आधार पर ही अपने जीवन संकट को गतिशील बनाए रहने में समर्थ होते हैं। आहार की खोज, यौन आमंत्रण, शत्रु से रक्षा, मौसम की जानकारी, रास्ता ढूँढना, अपने-विराने की पहचान जैसे आवश्यक कार्य पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़े प्राय: नासिका के आधार पर ही पूरे करते हैं। गंध ही उनका मार्गदर्शन करती है और भटकावों से— संकतों से बचाती है। प्रशिक्षित कुत्ते अपनी घ्राणशक्ति के आधार पर ही अपराधियों को खोज निकालने का कार्य करते हैं। इसी शक्ति को विकसित कर लिया जाए तो अविज्ञात हलचलों और अतींद्रिय संकेतों को समझा जा सकता है। दिव्य लोकों में, दिव्यशक्तियों से देव आत्माओं से संबध मिलाने का एक अतिमहत्त्वपूर्ण माध्यम गंधानुभूति भी है, जिसे सोऽहम्-साधना के आधार पर जाना जा सकता है।
स्वरयोग अपने आप में एक स्वतंत्र शास्त्र है। इड़ा और पिंगला नाड़ी के माध्यम से चलने वाले चंद्र-सूर्य स्वर — शरीर और मन की स्थिति में ऋण और धन विद्युत के आवेश घटाते-बढ़ाते रहते हैं। इस स्थिति का सही ज्ञान रहने पर मनुष्य यह जान सकता है कि उसकी अंतःक्षमता किस कार्य को कर सकने में समर्थ अथवा क्या करने में असमर्थ है। अंतर्जगत की वस्तुस्थिति का सही ज्ञान होने पर मनुष्य के लिए ऐसा कदम सरल हो जाता है, जिसके आधार पर सफलता का पथ अधिक प्रशस्त हो सके। किस स्वर की स्थिति में मनुष्य दूसरों की क्या सहायता कर सकता है, इसकी जानकारी भी स्वरयोग से मिलती है। तदनुसार दूसरों की स्वल्प सहायता करके भी उन्हें आधिक मात्रा में लाभान्वित किया जा सकता है। सामान्य बुद्धि से जो अविज्ञात जानकारियाँ प्राय: नहीं ही जानी जा सकतीं, उन्हें भी स्वरयोग के माध्यम से अधिक खूबी और खूबसूरती से समझा जा सकता है।
स्वरयोग की साधना के यों कई अभ्यास हैं, पर उनमें अधिक सरल और अधिक सफल सोऽहम्-साधना ही रहती है। यह विशुद्ध रूप से प्राणयोग है। उसमें प्राणायाम के, षट्चक्रवेधन, ग्रंथिवेधन, कुंडलिनी जागरण, स्वर-साधन, गंधानुभूति भावोत्कर्ष जैसी योगाभ्यास की अनेक ऐसी धाराएँ समाविष्ट हैं, जिनके माध्यम से साधक को उच्चस्तरीय आत्मविकास का लाभ मिल सकता है।
श्वास लेते समय ‘सो’ ध्वनि का और छोड़ते समय ‘हम्’ ध्यान के प्रवाह को सूक्ष्म श्रवणशक्ति के सहारे अंतःभूमिका में अनुभव करना। यही है संक्षेप में ‘सोऽहम्-साधना’।
वायु जब छोटे छिद्र में होकर वेगपूर्वक निकलती है तो घर्षण के कारण ध्वनि-प्रवाह उत्पन्न होता है। बाँसुरी से स्वर-लहरी निकलने का यही आधार है। जंगलों में जहाँ बाँस बहुत उगे होते हैं, वहाँ अक्सर बाँसुरी जैसी ध्वनियाँ सुनने को मिलती हैं। कारण कि बाँसो में कहीं-कहीं कीड़े छेद कर देते हैं और उन छेदों से जब हवा वेगपूर्वक टकराती है तो उसमें उत्पन्न स्वर-प्रवाह सुनने को मिलता है। वृक्षों से टकराकर जब द्रुतगति से हवा चलती है तब भी सनसनाहट सुनाई पड़ती है। यह वायु के घर्षण की ही प्रतिक्रया है।
नासिका छिद्र भी बाँसुरी के छिद्रों की तरह हैं। उनकी सीमित परिधि में होकर जब वायु भीतर प्रवेश करेगी तो वहाँ स्वभावतः ध्वनि उत्पन्न होगी। साधारण श्वास-प्रश्वास के समय भी वह उत्पन्न होती है, पर इतनी धीमी रहती है कि कानों के छिद्र उन्हें सरलतापूर्वक नहीं सुन सकते। प्राणयोग की साधना में गहरे स्वासोच्छ्वास लेने पड़ते हैं। प्राणायाम का मूल स्वरूप ही यह है कि श्वास जितनी अधिक गहरी, जितनी मंदगति से ली जा सके लेनी चाहिए और फिर कुछ समय भीतर रोककर धीरे-धीरे उस वायु को पूरी तरह खाली कर देना चाहिए। गहरी और पूरी सांस लेने से स्वभावत: नासिका छिद्रों से टकराकर उत्पन्न होने वाला ध्वनि-प्रवाह और भी अधिक तीव्र हो जाता है। इतने पर भी वह ऐसा नहीं बन पाता कि खुले कानों से उसे सुना जा सके। कर्णेंद्रियों की सूक्ष्मचेतना में ही उसे अनुभव किया जा सकता है।
चित्त को श्वसन-क्रिया पर एकाग्र करना चाहिए और भावना को इस स्तर की बनानी चाहिए कि उससे श्वांस लेते समय ‘सो’ शब्द के ध्वनि-प्रवाह की मंद अनुभूति होने लगे। उसी प्रकार जब सांस छोड़ना पड़े तो यह मान्यता परिपक्व करनी चाहिए कि ‘हम्’ ध्वनि-प्रवाह विनिसृत हो रहा है। आरंभ में कुछ समय यह अनुभूति उतनी स्पष्ट नहीं होती; किंतु क्रम और प्रयास जारी रखने पर कुछ ही समय उपरांत इस प्रकार का ध्वनि-प्रवाह अनुभव में आने लगता है और उसे सुनने में न केवल चित्त ही एकाग्र होता है, वरन आनंद का अनुभव होता है।
‘सो’ का तात्पर्य परमात्मा और ‘हम्’ का जीवचेतना समझा जाना चाहिए। निखिल विश्व-ब्रह्मांड में संव्याप्त महाप्राण नासिका द्वारा हमारे शरीर में प्रवेश करता है और अंग-प्रत्यंग में जीवकोष तथा नाड़ीतंतु में प्रवेश करके उसको अपने संपर्क-संसर्ग का लाभ प्रदान कराता है। यह अनुभूति ‘सो’ शब्द ध्वनि के साथ अनुभूति भूमिका में उतरनी चाहिए और ‘हम्’ शब्द के साथ जीव द्वारा इस काय-कलेवर पर से अपना कब्जा छोड़कर चले जाने की मान्यता प्रगाढ़ की जानी चाहिए।
प्रकारांतर से परमात्म सत्ता का अपने शरीर और मन:क्षेत्र पर आधिपत्य स्थापित हो जाने की ही यह धारणा है। जीव भाव अर्थात स्वार्थवादी संकीर्णता, काम, क्रोध, लोभ, मोह भरी मद-मत्सरता— अपने को शरीर या मन के रूप में अनुभव करते रहने वाली आत्मा भी दिग्भ्रांत स्थिति का नाम ही जीव-भूमिका है। इस भ्रम-जंजाल भरे जीव भाव को हटा दिया जाए तो फिर अपना विशुद्ध अस्तित्व ईश्वर के अविनाशी अंश आत्मा के रूप में ही शेष रह जाता है। काय-कलेवर के कण-कण पर परमात्मा के शासन की स्थापना और जीव-धारणा की बेदखली — यही है सोऽहम्-साधना का तत्त्वज्ञान। श्वास-प्रश्वास क्रिया के माध्यम से ‘सो’ और ‘हम्’ ध्वनि के सहारे उसी भाव-चेतना को जागृत किया जाता है कि अपना स्वरूप ही बदल रहा है। अब शरीर और मन पर से लोभ-मोह का, वासना-तृष्णा का आधिपत्य समाप्त हो रहा है और उसके स्थान पर उत्कृष्ट चिंतन एवं आदर्श कर्तृत्व के रूप में ब्रह्मसत्ता की स्थापना हो रही है। शासन परिवर्तन जैसी राज्यक्रांति जैसी यह भाव-भूमिका है, जिसमें अनाधिकारी-अनाचारी शासनसत्ता का तख्ता उलटकर उस स्थान पर सत्य, न्याय और प्रेम संविधान वाली धर्मसत्ता का राज्याभिषेक किया जाता है। सोऽहम्-साधना इसी अनुभूति स्तर को क्रमशः प्रगाढ़ करती चली जाती है और अंत:करण यह अनुभव करने लगता है कि अब उस पर असुरता का नियंत्रण नहीं रहा, उसका समग्र संचालन देवसत्ता द्वारा किया जा रहा है।
सोऽहम्-साधना के लिए प्रत्यावर्तन सत्र में पौन घंटा निर्धारित है। इसमें से आरंभ के पंद्रह मिनट श्वास-ध्वनि ग्रहण करते समय ‘सो’ और निकालते समय ‘हम्’ की धारणा में लगने चाहिए। प्रयत्न करना चाहिए कि इन शब्दों के आरंभ में अतिमंद स्तर की होने वाली अनुभूति में क्रमश: प्रखरता आती चली जाए। इसके उपरांत शेष आधा घंटे में चिंतन का स्तर यह होना चाहिए कि सांस में घुले हुए भगवान अपनी समस्त विभूतियों और विशेषताओं के साथ काय-कलेवर में भीतर प्रवेश कर रहे हैं। यह प्रवेश मात्र आवागमन नहीं है; वरन प्रत्येक अवयव पर सघन आधिपत्य बन रहा है। एक-एक करके शरीर के भीतरी प्रमुख अंगो के चित्र की कल्पना करनी चाहिए और अनुभव करना चाहिए, उसमें भगवान की सत्ता चिरस्थाई रूप से समाविष्ट हो गई। ह्रदय, फुफ्फुस, आमाशय, आंतें, गुर्दे, जिगर, तिल्ली आदि में भगवान का प्रवेश हो गया। रक्त के साथ प्रत्येक नस-नाड़ी और कोशिकाओं पर भगवान ने अपना शासन स्थापित किया।
बाह्य अंगों ने पाँच ज्ञानेंद्रियों ने भगवान के अनुशासन में रहना और उनका निर्देश पालन करना स्वीकार कर लिया। जीभ वही बोलेगी जो इश्वरीय प्रयोजनों की पूर्ति में सहायक हो। देखना, सुनना, बोलना, चखना आदि इंद्रियजन्य गतिविधियाँ दिव्य निर्देशों का ही अनुगमन करेंगी। जननेंद्रिय का उपयोग, वासना के लिए नहीं मात्र ईश्वरीय प्रयोजनों के लिए अनिवार्य आवश्यकता का धर्मसंकट सामने आ खड़ा होने पर ही किया जाएगा। हाथ-पाँव मानवोचित कर्त्तव्यपालन के अतिरिक्त ऐसा कुछ न करेंगे जो ईश्वरीय सत्ता को कलंकित करता हो। मस्तिष्क ऐसा कुछ न सोचेगा, जिसे उच्च आदर्शो के प्रतिफल ठहराया जा सके। बुद्धि कोई अनुचित न्याय विरुद्ध एवं अदूरदर्शी-अविवेक भरा निर्णय न करेगी। चित्त में अवांछनीय एवं निकृष्ट स्तरीय आकांक्षाएँ न जमने पाएँगी। अहंता का स्तर नर-कीटक जैसा नहीं नर-नारायण जैसा होगा।
यही हैं वे भावनाएँ जो शरीर और मन पर भगवान के शासन स्थापित होने के तथ्य को यथार्थ सिद्ध कर सकती हैं। यह सब उथली कल्पनाओं की तरह मनोविनोद भर नहीं रह जाना चाहिए; वरन उसकी आस्था इतनी प्रगाढ़ होनी चाहिए कि इस भाव-परिवर्तन को क्रियारूप में परिणत हुए बिना चैन ही न पड़े। सार्थकता उन्हीं विचारों की है जो क्रियारूप में परिणत होने की प्रखरता से भरे हों, अन्यथा स्वप्नदर्शी शेखचिल्ली ऐसे ही बैठे-ठाले मन-मोदक खाते रहते हैं। उनसे कुछ प्रयोजन सिद्ध हो सकता नहीं। सोऽहम्-साधना के पूर्वार्ध में अपने काय-कलेवर पर श्वसन-क्रिया के साथ प्रविष्ट हुए महाप्राण की, परब्रह्म की सत्ता स्थापना का इतना गहन चिंतन करना पड़ता है कि यह कल्पना स्तर की बात न रहकर एक व्यावहारिक यथार्थता के प्रत्यक्ष तथ्य के रूप में दृष्टिगोचर होने लगे।
इस साधना का उत्तरार्ध पाप निष्कासन का है। शरीर में से अवांछनीय इंद्रिय-लिप्साओं का, आलस्य-प्रमाद जैसी दुष्कृतियों का, मन से लोभ-मोह जैसी तृष्णाओं का, अंतस्तल से जीव भावी अहंता का निवारण-निराकरण हो रहा है। ऐसी भावनाएँ अत्यंत प्रगाढ़ होनी चाहिए। दुर्भावनाएँ और दुष्कृतियाँ, निष्कृताएँ और दुष्टताएँ, क्षुद्रताएँ और हीनताएँ सभी निरस्त हो रही हैं, सभी पलायन कर रही हैं। यह तथ्य हर घड़ी सामने खड़ा दीखना चाहिए। अनुपयुक्तताओं के निरस्त होने के उपरांत ही हलकापन— जो संतोष, जो उल्लास स्वभावतः होता है और निरंतर बना रहता है, उसी का प्रत्यक्ष अनुभव होना ही चाहिए। तभी यह कहा जा सकेगा कि सोऽहम्-साधना का उत्तरार्ध भी एक तथ्य बन गया।
भावोत्कर्ष की दृष्टि से जो ‘हम्’ साधना के साथ-साथ उपरोक्त भावचित्रों को मन:क्षेत्र पर अतिसघन चित्रित किया जाना चाहिए। इससे वह चिंतन कुछ ही समय में जीवन का एक प्रवाह बन जाता है और साधक का आंतरिक कायाकल्प होने से बाह्य जीवन अनासक्त कर्मयोगी जैसा उत्कृष्ट दृष्टिगोचर होने लगता है। ऐसा व्यक्ति सांसारिक दृष्टि से कृषक, पशुपालक, श्रमिक, व्यवसायी जैसे सामान्य आजीविका में निरत होने के कारण छोटा भले ही समझा जाए, पर वस्तुतः आंतरिक उत्कृष्टता के कारण वह होता अत्यंत महान ही है। अध्यात्म मूल्यांकनों की कसौटी पर कसने से उसे महामानव एवं ऋषिकाय ही ठहराया जा सकता है। राजा जनक यों सांसारिक दृष्टि से क्रियाव्यस्त व्यक्ति थे, पर अपने उदात्त दृष्टिकोण के कारण वे सदा ब्रह्मवेत्ता ही माने गए। किसी को साधारण स्तर का जीविकोपार्जन करना पड़े, इससे कुछ बनता बिगड़ता नहीं। यदि सोऽहम्-साधना स्तर की मान्यताएँ गहराई तक अंत:करण में जड़ जमा लें और वे कार्यरूप में परिणत होने के लिए आतुर हो उठें तो समझना चाहिए इस एक ही साधना ने जीवनलक्ष्य प्राप्त कराने का प्रयोजन पूरा कर दिया।
यों सोऽहम्-साधना का चमत्कारी प्रयोजन भी कम नहीं है। यह प्राणयोग की महती साधना है। दस प्रधान और चौवन गौण, इस प्रकार चौंसठ प्राणायामों का साधना विज्ञान के अंतर्गत विधि-विधान वर्णित है और उनके अनेकानेक लाभ-परिणाम बताए गए हैं। इन सब में प्रथम और सर्वोपरि ‘सोऽहम्-साधना’ में सन्निहित प्राणयोग ही है। जिस प्रकार मंत्रो में गायत्री सर्वोपरि है, उसमें प्राणयोग के विविध साधना-विधानों में सर्वोच्चत मान्यता सोऽहम् के अजपा गायत्री जाप की है। सभी प्राणायाम का लाभ इस एक से ही उठाया जा सकता है।
षट्चक्रवेधन के लिए प्राणतत्त्व के वरमें ही छेद करने का काम करते हैं। आज्ञाचक्र तक नासिका द्वारा प्राणतत्त्व खींचने का कार्य एक ही ढंग से चलता है। पीछे उसके दो भाग हो जाते हैं — एक भावपरक, दूसरा शक्तिपरक। भावपरक में फेफड़ों में पहुँचा हुआ प्राण समस्त शरीर के अंग-प्रत्यंगों में समाविष्ट होकर सत् का संस्थापन और असत् का निवारण संपन्न करता है। आज्ञाचक्र में एक दूसरी प्राणधारा पिछले मस्तिष्क को स्पष्ट करती हुई मेरुदंड में निकल जाती है। वही ब्रह्मनाड़ी का महाशक्तिनद है। इड़ा और पिंगला की दो विद्युत धाराएँ इसी में प्रवाहित होती हैं। वे मूलाधारचक्र तक पहुँचती हैं और सुषुम्ना सम्मिलन के बाद वापिस लौट आती हैं। षट्चक्र इसी मेरुदंड में स्थित ब्रह्मनाड़ी महानद के अंतर्गत पड़ने वाले भँवर हैं। इनमें ही लोक-लोकांतरों से, अतिमानवी शक्तिसंस्थानों से संबध मिलाने वाली रहस्यमय कुंजियाँ सुरक्षित रखी हुई हैं। षट्चक्रों में से जो जितने रत्नभंड़ारों से संबध स्थापित कर ले, वह उतना ही महान बन सकता है। कुंडलिनीशक्ति को भौतिक और आत्मिक शक्तियों का आदान-प्रदान संपन्न करने वाली महत्तत्त्व भूमिका कह सकते हैं। उसका जागरण षट्चक्रवेधन के उपरांत ही होता है। चक्रवेधन के लिए प्राणतत्त्व पर आधिपत्य स्थापित करने वाले वेधक प्राणायामों का अभ्यास करना पड़ता है। जो प्राणायाम षट्चक्रवेधन में सहायता करते हैं, उनसे सोऽहम् का प्राणयोग सर्वप्रथम और सर्वसुलभ है। पंचकोषों के अनावरण का क्रम भी चक्रवेधन स्तर का ही है। उसके लिए भी प्राण-प्रखरता बढ़ानी पड़ती है। यह प्रयोजन भी सोऽहम्-साधना से ही पूरा होता है।
कहा जा चुका है कि सोऽहम् की भावना-साधना वाला पक्ष आज्ञाचक्र से मुड़कर फेफड़ों की तरह श्वास-प्रश्वास का रूप धारण करता है और वहीं से दूसरी धारा मेरुदंड की ओर मुड़कर शक्ति जागरण का काम करती है। सोऽहम्-साधना के हिमालय से मिकलने वाली गंगा-यमुना भावोत्कर्ष एवं शक्ति-संवर्द्धन के दोनों प्रयोजन पूरे करती है। इससे भौतिक और आत्मिक प्रगति के दोनों ही प्रयोजन पूरे होते हैं। शक्तिसंपन्न और भावोत्कर्ष की उभयपक्षीय उपलब्धियाँ ही समग्र अध्यात्म है। उसे प्राप्त करने में सोऽहम्-साधना कितनी महत्त्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत करती है। इसे अनुभव द्वारा ही जाना जा सकता है।
नासिका की वायु तत्त्व की तन्मात्रा गंध है। गंध के माध्यम से देवतत्त्वों की अनुभूति-साधना नासिका द्वारा ही होती है। सोऽहम्-साधना द्वारा गंध तन्मात्रा का विकास होता है और समय-समय पर अनायास ही दिव्य गंधों की अनुभूति होती है। इन गंधों में मन को प्रसन्न करना या कौतूहल दीखने जैसा साधारण लाभ नहीं; वरन वे विभूतियाँ भी भरी पड़ी हैं, जिनसे दिव्यशक्तियों और दिव्य सिद्धियों से लाभान्वित हुआ जा सकता है। सोऽहम्-साधना के लिए अगरबत्ती-धूपबत्ती जलाकर, गुलदस्ता सजाकर, चंदन-कपूर आदि लेपकर, इत्र लगाकर, गुलाबजल छिड़ककर उस स्थान पर सुगंध उत्पन्न की जाती है। साधना के समय अनुभव किया जाता है। प्रस्तुत गंध नासिका में — मस्तिष्क में बस रही है। उसकी अनुभूति सहज ही हो रही है। ऐसा क्रम साधना के समय चलता रहे तो आगे चलकर साधना-स्थल से बाहर निकलने पर भी, गंध का कोई उपकरण न होने पर भी, दिव्य गंध आती रहेगी। यह नासिका की सूक्ष्म तन्मात्रा के जागरण का, एकाग्रता की अभिवृद्धि का चिह्न है। इससे सफलता से प्रसन्नता का बढ़ना स्वाभाविक है।
मनुष्यों में नेत्र का महत्त्व बढ़ गया है। इसके बाद जिह्वा तथा कर्णेंद्रियों की बात है। दूसरी दृष्टि से देखा जाए तो नेत्र के बाद जननेंद्रिय को आवेशोत्पादक कहा जा सकता है; किंतु अन्य जीवधारियों में सबसे प्रबल और प्रधान नासिका ही होती है। वे गंध के आधार पर ही अपने जीवन संकट को गतिशील बनाए रहने में समर्थ होते हैं। आहार की खोज, यौन आमंत्रण, शत्रु से रक्षा, मौसम की जानकारी, रास्ता ढूँढना, अपने-विराने की पहचान जैसे आवश्यक कार्य पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़े प्राय: नासिका के आधार पर ही पूरे करते हैं। गंध ही उनका मार्गदर्शन करती है और भटकावों से— संकतों से बचाती है। प्रशिक्षित कुत्ते अपनी घ्राणशक्ति के आधार पर ही अपराधियों को खोज निकालने का कार्य करते हैं। इसी शक्ति को विकसित कर लिया जाए तो अविज्ञात हलचलों और अतींद्रिय संकेतों को समझा जा सकता है। दिव्य लोकों में, दिव्यशक्तियों से देव आत्माओं से संबध मिलाने का एक अतिमहत्त्वपूर्ण माध्यम गंधानुभूति भी है, जिसे सोऽहम्-साधना के आधार पर जाना जा सकता है।
स्वरयोग अपने आप में एक स्वतंत्र शास्त्र है। इड़ा और पिंगला नाड़ी के माध्यम से चलने वाले चंद्र-सूर्य स्वर — शरीर और मन की स्थिति में ऋण और धन विद्युत के आवेश घटाते-बढ़ाते रहते हैं। इस स्थिति का सही ज्ञान रहने पर मनुष्य यह जान सकता है कि उसकी अंतःक्षमता किस कार्य को कर सकने में समर्थ अथवा क्या करने में असमर्थ है। अंतर्जगत की वस्तुस्थिति का सही ज्ञान होने पर मनुष्य के लिए ऐसा कदम सरल हो जाता है, जिसके आधार पर सफलता का पथ अधिक प्रशस्त हो सके। किस स्वर की स्थिति में मनुष्य दूसरों की क्या सहायता कर सकता है, इसकी जानकारी भी स्वरयोग से मिलती है। तदनुसार दूसरों की स्वल्प सहायता करके भी उन्हें आधिक मात्रा में लाभान्वित किया जा सकता है। सामान्य बुद्धि से जो अविज्ञात जानकारियाँ प्राय: नहीं ही जानी जा सकतीं, उन्हें भी स्वरयोग के माध्यम से अधिक खूबी और खूबसूरती से समझा जा सकता है।
स्वरयोग की साधना के यों कई अभ्यास हैं, पर उनमें अधिक सरल और अधिक सफल सोऽहम्-साधना ही रहती है। यह विशुद्ध रूप से प्राणयोग है। उसमें प्राणायाम के, षट्चक्रवेधन, ग्रंथिवेधन, कुंडलिनी जागरण, स्वर-साधन, गंधानुभूति भावोत्कर्ष जैसी योगाभ्यास की अनेक ऐसी धाराएँ समाविष्ट हैं, जिनके माध्यम से साधक को उच्चस्तरीय आत्मविकास का लाभ मिल सकता है।