Magazine - Year 1973 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
साधना के उपयुक्त सतोगुणी आहार
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
प्रायश्चित्यों की परंपरा में पंचगव्य प्राशन और हविष्यान्न का लेने का शास्त्रीय विधान है। यों जान-बूझकर किए गए पापों के लिए भारतीय धर्म में एकमात्र प्रतिकार यही है कि दुष्कर्मो द्वारा समाज को जो क्षति पहुँचाई गई हो उसी स्तर के लोकोपयोगी पुण्यकार्य करके उसकी पूर्ति की जाए, साथ ही विगत दुष्कर्मों के लिए पश्चात्ताप करते हुए ऐसे उपाय-उपचार भी किए जाते हैं, जिनसे अंतःकरण पर जमे हुए अवांछनीय कुसंस्कारों का निवारण-निराकरण भी हो सके।
इस प्रकार के शोधन उपचारों में पंचगव्य-प्राशन और हविष्यान्न सेवन की चिर परंपरा है। गोरस से समाविष्ट सतोगुणी संस्कारों का बाहुल्य सर्वविदित है। गोदुग्ध, गोदधि, गोघृत, गोभय, गोमूत्र इन पाँचों के सम्मिश्रण को पंचगव्य कहते हैं। दूध, दही और घृत की उपयोगिता सर्वविदित है। गोमूत्र की आयुर्वेद में भूरि-भूरि प्रशंसा की गई है और उसे उदररोगों तथा रक्तविकारों की अमोघ औषधि माना गया है। यह बात गोबर के संबंध में ही है। लीपने से स्थानशुद्धि और यज्ञाग्नि में प्रयुक्त होने के लिए उपलों की महत्ता बताई गई है। उसका तनिक-सा रस होम्योपैथी दवाओं की तरह कितने ही प्रकार के लाभ उत्पन्न करता है। पंचगव्य में यों गाय का दूध, दही, घृत ही प्रधान होता है। गोमूत्र और गोबर के रस की मात्रा अत्यंत स्वल्प रहती है। इस सम्मिश्रण को यों आरोग्य की दृष्टि से भी बहुत उपयोगी माना जा सकता है, साथ ही भावनात्मक शोध-उपचार की दृष्टि से भी उसका महत्त्व कम नहीं है। प्रायश्चित विधानों में पंचगव्य-प्राशन का पग-पग पर निर्देश है।
हविष्यान्न में तिल, जौ, चावल इन तीन अन्नों की गणना है। इन्हें भी परम सात्विक सुसंस्कारों से युक्त माना गया है। यज्ञकार्य में आहुतियाँ देने के लिए इन तीनों का उपयोग होता है। सामयिक अन्न संकट के कारण इन दिनों उनकी मात्रा घटा दी गई है; पर प्रतीक रूप में उन्हें कुछ तो रखा ही जाता है। इन तीनों धान्यों को यज्ञ-सामग्री में प्रयुक्त होने वाली औषधियों की तरह ही प्रतिष्ठा दी गई है।
तपस्वियों के सामान्य आहार में इन्हीं को प्राथमिकता दी जाती है। कई तो गायत्री पुरुश्चरण जैसी लंबी तप-साधनाएँ इनमें से किसी एक अथवा तीनों के संमिश्रण से पूर्ण करते हैं। सामान्य आहार में भी इनको आधार मानकर चला जाए तो उससे शरीर और मन में सात्विकता का अंश और बढ़ेगा, साधना-तपस्या में आशाजनक प्रगति होगी।
‘जैसा खाए अन्न वैसा बने मन’ वाला निष्कर्ष अक्षरशः सत्य है। कुधान्य खाकर, अभक्ष्य अपनाकर किसी की तप-साधना ध्यान-धारणा सफल नहीं हो सकती। ऐसा अन्न पेट में जाकर ऐसे उपद्रव खड़े करता है, जिनके कारण मन में न शांति रह पाती है और न स्थिरता। इस विग्रह के निवारण करने को साधक सबसे पहले अपने आहार में सात्विक तत्त्वों के समावेश का प्रथम प्रयास करते हैं। इस प्रयोजन के लिए हविष्यान्न से बढ़कर और किसी की उपयोगिता नहीं हो सकी। प्रायश्चित्य-प्रक्रिया के लिए हविष्यान्न एवं पंचगव्य लेने का निर्देश धर्मग्रंथो में पग-पग पर पाया जाता है। इसके अतिरिक्त प्रायश्चित की आवश्यकता न होने पर भी सात्विक आहार की दृष्टि से भी इन दोनों की उपयोगिता है। यदि आहार में इनका पूरा या अधूरा स्थान रखा जाए तो मनःक्षेत्र में शरीर में निश्चित रूप से सात्विकता बढ़ेगी। इंद्रिय-लिप्सा पर नियंत्रण होगा और मनोनिग्रह का प्रयोजन सहज ही पूरा होने लगेगा।
प्रत्यावर्तन सत्र में इन दोनों को स्थान दिया गया है। प्रातःकाल जलपान में सर्वप्रथम आहार के रूप में पंचगव्य ही साधकों को दिया जाता है। इसके उपरांत ही वे कोई अन्य जलपान ले सकते हैं। मध्यान्ह को जौ, चावल और तिल की रोटी दी जाती हैं। यों साथ में चावल, दाल, दलिया जैसे सात्विक आहार की भी मात्रा रहती है, पर प्रथम आहार हविष्यान्न चरु का ही करना पड़ता है। मध्यान्हकालीन और सायंकालीन भोजन में, गंगाजल ही प्रयुक्त होता है और आहार के साथ गंगाजल ही पीने को दिया जाता है।
गंगा में शहरों के मल-मूत्र हरिद्वार के बाद ही पड़ते हैं। इससे ऊपर के जल में अभी गंदगी पड़ना शुरू नहीं हुआ है, इसलिए स्वभावतः उसमें गंगाजल की भौतिक विशेषता बनी रहती है। फिर सात ऋषियों की तपस्थली सप्तसरोवर— जहाँ ऋषियों के तप में विघ्न न पड़ने देने की बात को ध्यान में रखते हुए गंगा ने अपने को सात धाराओं में विभक्त कर लिया था, अपनी पवित्रता के लिए प्रसिद्ध है। शान्तिकुञ्ज का आश्रम इस पवित्रता को ध्यान में रखते हुए ही बनाया गया है। यहाँ का गंगाजल हविष्यान्न, पंचगव्य के साथ प्रयुक्त किया जाय तो स्वभावतः इससे सतोगुणी प्रभाव बढ़ेगा और इससे साधना की प्रगति में योगदान मिलेगा।
साधकों को आहार बनाने, परोसने के लिए साधनापरायण हाथों का ही उपयोग होता है। ब्रह्मचर्य से रहने वाले शरीर ही इस आहार का स्पर्श करते हैं। इससे पूर्व उसे और भी अधिक सुसंस्कारी बनाने के लिए आध्यात्मिक उपचारों से संपन्न किया जाता है। उस पर निरीक्षण दृष्टिपात उन आँखों का रहता है, जिन्होंने प्रत्यावर्तन सत्र शृंखला का आधार खड़ा किया है।
अन्नमयकोश का पंचकोशी साधना में प्रथम स्थान है। अन्नमयकोश के परिष्कार के लिए सात्विक आहार की व्यवस्था बनाई जाती है। भगवान का भोग, प्रसाद लगाकर गायत्री मंत्र का उच्चारण करने के बाद भोजन आरंभ करने से आहार का स्तर औषधि रूप हो जाता है। नियत समय पर भूख से कुछ कम मात्रा में, प्रसन्नता और संतोष की मनःस्थिति के साथ यदि सामान्य भोजन किया जाए तो उसका प्रभाव शरीर की आरोग्य वृद्धि के लिए ही नहीं, मन की सात्विकता बढ़ाने की दृष्टि से भी यह अत्यंत प्रभावशाली है।
हविष्यान्न से बनी रोटी के साथ ब्राह्मी-आँवला की चटनी स्वाद और पाचन की दृष्टि से तो उपयुक्त है ही उममें मस्तिष्क को बल देने वाले टानिक भी हैं। आँवला रसायन है, उसमें बुढ़ापा रोकने का गुण है। च्यवनप्राश वलेह में आँवला ही प्रधान है। वृद्ध च्यवन ऋषि इन्हीं फलों को खाकर वृद्ध से तरुण हुए थे। ब्राह्मी भारत की बुद्धिवर्धक बूटी है। सतावरि, शंखपुष्पी, गोरख, मुँडीबच और ब्राह्मी इन पाँच बूटियों को सरस्वती की प्रतीक माना गया है। ये बुद्धिवर्धक हैं। ब्राह्मी इनमें सर्वोपरि है। हविष्यान्न के साथ जो चटनी दी जाती है उसमें ब्राह्मी-आँवला की मात्रा अधिक रहती है; पर साथ ही सरस्वती पंचक बूटियों का भी अनुपात संमिश्रण रहता है। इस प्रकार इसे एक मस्तिष्कीय बलवर्धक रसायन भी कह सकते हैं। ब्राह्मी-आँवला से बना हुआ तेल बालों को काला करता है, उनकी जड़ें मजबूत बनाता है। इससे स्पष्ट है — यह औषधी मस्तिष्क को कितना बल पहुँचाती है। स्मरण-शक्ति बढ़ाने और बुद्धि की बढ़ोतरी करने की दृष्टि से उपयुक्त यह वनस्पतियाँ भारत भूमि की अनुपम देन हैं। इनकी तुलना की औषधियाँ कदाचित ही अन्यत्र मिलती हों। आयुर्वेद शास्त्र में आंवले की भूरि-भूरि प्रशंसा की गई है, उसमें जितने उच्चकोटि के विटामिन होते हैं उतने शायद ही अन्य किसी फल में पाए जाते हों।
प्रत्यावर्तन सत्र में आने वाले साधकों को यों हविष्यान्न रोटी के साथ दी जाने वाली यह चटनी स्वास्थ्य की दृष्टि से भी एक महत्त्वपूर्ण रसायन आहार है; पर उसका मुख्य लाभ अंतःकरण चतुष्टय से संबंधित मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार का स्तर तमोगुण, रजोगुण की भूमिका से ऊँचा उठाकर सतोगुणी स्तर तक पहुँचाता है। आहार का विश्लेषणमात्र शरीर के लिए लाभदायक-हानिकारक समझकर ही नहीं करना चाहिए; वरन यह भी देखना चाहिए कि उसका मन और बुद्धि पर क्या प्रभाव पड़ता है। अन्न का मन से संबंध सुनिश्चित है। साधना का प्राण सात्विक आहार है। कहना न होगा कि इस तथ्य का इन सत्रों में पूरा-पूरा ध्यान रखा गया है। पंचगव्य, हविष्यान्न, आँवला कल्क का त्रिविध संयोग इसी दृष्टि से है। इसके अतिरिक्त चावल, दाल, दलिया आदि के बनाने, शोधने, पकाने में इस बात का पूरा-पूरा ध्यान रखा जाता है कि यह आहार-प्रक्रिया अन्नमयकोश को परिष्कृत करने में, मनःसंस्थान को उच्चस्तरीय बनाने की भूमिका ठीक तरह संपादित कर सके।
इस प्रकार के शोधन उपचारों में पंचगव्य-प्राशन और हविष्यान्न सेवन की चिर परंपरा है। गोरस से समाविष्ट सतोगुणी संस्कारों का बाहुल्य सर्वविदित है। गोदुग्ध, गोदधि, गोघृत, गोभय, गोमूत्र इन पाँचों के सम्मिश्रण को पंचगव्य कहते हैं। दूध, दही और घृत की उपयोगिता सर्वविदित है। गोमूत्र की आयुर्वेद में भूरि-भूरि प्रशंसा की गई है और उसे उदररोगों तथा रक्तविकारों की अमोघ औषधि माना गया है। यह बात गोबर के संबंध में ही है। लीपने से स्थानशुद्धि और यज्ञाग्नि में प्रयुक्त होने के लिए उपलों की महत्ता बताई गई है। उसका तनिक-सा रस होम्योपैथी दवाओं की तरह कितने ही प्रकार के लाभ उत्पन्न करता है। पंचगव्य में यों गाय का दूध, दही, घृत ही प्रधान होता है। गोमूत्र और गोबर के रस की मात्रा अत्यंत स्वल्प रहती है। इस सम्मिश्रण को यों आरोग्य की दृष्टि से भी बहुत उपयोगी माना जा सकता है, साथ ही भावनात्मक शोध-उपचार की दृष्टि से भी उसका महत्त्व कम नहीं है। प्रायश्चित विधानों में पंचगव्य-प्राशन का पग-पग पर निर्देश है।
हविष्यान्न में तिल, जौ, चावल इन तीन अन्नों की गणना है। इन्हें भी परम सात्विक सुसंस्कारों से युक्त माना गया है। यज्ञकार्य में आहुतियाँ देने के लिए इन तीनों का उपयोग होता है। सामयिक अन्न संकट के कारण इन दिनों उनकी मात्रा घटा दी गई है; पर प्रतीक रूप में उन्हें कुछ तो रखा ही जाता है। इन तीनों धान्यों को यज्ञ-सामग्री में प्रयुक्त होने वाली औषधियों की तरह ही प्रतिष्ठा दी गई है।
तपस्वियों के सामान्य आहार में इन्हीं को प्राथमिकता दी जाती है। कई तो गायत्री पुरुश्चरण जैसी लंबी तप-साधनाएँ इनमें से किसी एक अथवा तीनों के संमिश्रण से पूर्ण करते हैं। सामान्य आहार में भी इनको आधार मानकर चला जाए तो उससे शरीर और मन में सात्विकता का अंश और बढ़ेगा, साधना-तपस्या में आशाजनक प्रगति होगी।
‘जैसा खाए अन्न वैसा बने मन’ वाला निष्कर्ष अक्षरशः सत्य है। कुधान्य खाकर, अभक्ष्य अपनाकर किसी की तप-साधना ध्यान-धारणा सफल नहीं हो सकती। ऐसा अन्न पेट में जाकर ऐसे उपद्रव खड़े करता है, जिनके कारण मन में न शांति रह पाती है और न स्थिरता। इस विग्रह के निवारण करने को साधक सबसे पहले अपने आहार में सात्विक तत्त्वों के समावेश का प्रथम प्रयास करते हैं। इस प्रयोजन के लिए हविष्यान्न से बढ़कर और किसी की उपयोगिता नहीं हो सकी। प्रायश्चित्य-प्रक्रिया के लिए हविष्यान्न एवं पंचगव्य लेने का निर्देश धर्मग्रंथो में पग-पग पर पाया जाता है। इसके अतिरिक्त प्रायश्चित की आवश्यकता न होने पर भी सात्विक आहार की दृष्टि से भी इन दोनों की उपयोगिता है। यदि आहार में इनका पूरा या अधूरा स्थान रखा जाए तो मनःक्षेत्र में शरीर में निश्चित रूप से सात्विकता बढ़ेगी। इंद्रिय-लिप्सा पर नियंत्रण होगा और मनोनिग्रह का प्रयोजन सहज ही पूरा होने लगेगा।
प्रत्यावर्तन सत्र में इन दोनों को स्थान दिया गया है। प्रातःकाल जलपान में सर्वप्रथम आहार के रूप में पंचगव्य ही साधकों को दिया जाता है। इसके उपरांत ही वे कोई अन्य जलपान ले सकते हैं। मध्यान्ह को जौ, चावल और तिल की रोटी दी जाती हैं। यों साथ में चावल, दाल, दलिया जैसे सात्विक आहार की भी मात्रा रहती है, पर प्रथम आहार हविष्यान्न चरु का ही करना पड़ता है। मध्यान्हकालीन और सायंकालीन भोजन में, गंगाजल ही प्रयुक्त होता है और आहार के साथ गंगाजल ही पीने को दिया जाता है।
गंगा में शहरों के मल-मूत्र हरिद्वार के बाद ही पड़ते हैं। इससे ऊपर के जल में अभी गंदगी पड़ना शुरू नहीं हुआ है, इसलिए स्वभावतः उसमें गंगाजल की भौतिक विशेषता बनी रहती है। फिर सात ऋषियों की तपस्थली सप्तसरोवर— जहाँ ऋषियों के तप में विघ्न न पड़ने देने की बात को ध्यान में रखते हुए गंगा ने अपने को सात धाराओं में विभक्त कर लिया था, अपनी पवित्रता के लिए प्रसिद्ध है। शान्तिकुञ्ज का आश्रम इस पवित्रता को ध्यान में रखते हुए ही बनाया गया है। यहाँ का गंगाजल हविष्यान्न, पंचगव्य के साथ प्रयुक्त किया जाय तो स्वभावतः इससे सतोगुणी प्रभाव बढ़ेगा और इससे साधना की प्रगति में योगदान मिलेगा।
साधकों को आहार बनाने, परोसने के लिए साधनापरायण हाथों का ही उपयोग होता है। ब्रह्मचर्य से रहने वाले शरीर ही इस आहार का स्पर्श करते हैं। इससे पूर्व उसे और भी अधिक सुसंस्कारी बनाने के लिए आध्यात्मिक उपचारों से संपन्न किया जाता है। उस पर निरीक्षण दृष्टिपात उन आँखों का रहता है, जिन्होंने प्रत्यावर्तन सत्र शृंखला का आधार खड़ा किया है।
अन्नमयकोश का पंचकोशी साधना में प्रथम स्थान है। अन्नमयकोश के परिष्कार के लिए सात्विक आहार की व्यवस्था बनाई जाती है। भगवान का भोग, प्रसाद लगाकर गायत्री मंत्र का उच्चारण करने के बाद भोजन आरंभ करने से आहार का स्तर औषधि रूप हो जाता है। नियत समय पर भूख से कुछ कम मात्रा में, प्रसन्नता और संतोष की मनःस्थिति के साथ यदि सामान्य भोजन किया जाए तो उसका प्रभाव शरीर की आरोग्य वृद्धि के लिए ही नहीं, मन की सात्विकता बढ़ाने की दृष्टि से भी यह अत्यंत प्रभावशाली है।
हविष्यान्न से बनी रोटी के साथ ब्राह्मी-आँवला की चटनी स्वाद और पाचन की दृष्टि से तो उपयुक्त है ही उममें मस्तिष्क को बल देने वाले टानिक भी हैं। आँवला रसायन है, उसमें बुढ़ापा रोकने का गुण है। च्यवनप्राश वलेह में आँवला ही प्रधान है। वृद्ध च्यवन ऋषि इन्हीं फलों को खाकर वृद्ध से तरुण हुए थे। ब्राह्मी भारत की बुद्धिवर्धक बूटी है। सतावरि, शंखपुष्पी, गोरख, मुँडीबच और ब्राह्मी इन पाँच बूटियों को सरस्वती की प्रतीक माना गया है। ये बुद्धिवर्धक हैं। ब्राह्मी इनमें सर्वोपरि है। हविष्यान्न के साथ जो चटनी दी जाती है उसमें ब्राह्मी-आँवला की मात्रा अधिक रहती है; पर साथ ही सरस्वती पंचक बूटियों का भी अनुपात संमिश्रण रहता है। इस प्रकार इसे एक मस्तिष्कीय बलवर्धक रसायन भी कह सकते हैं। ब्राह्मी-आँवला से बना हुआ तेल बालों को काला करता है, उनकी जड़ें मजबूत बनाता है। इससे स्पष्ट है — यह औषधी मस्तिष्क को कितना बल पहुँचाती है। स्मरण-शक्ति बढ़ाने और बुद्धि की बढ़ोतरी करने की दृष्टि से उपयुक्त यह वनस्पतियाँ भारत भूमि की अनुपम देन हैं। इनकी तुलना की औषधियाँ कदाचित ही अन्यत्र मिलती हों। आयुर्वेद शास्त्र में आंवले की भूरि-भूरि प्रशंसा की गई है, उसमें जितने उच्चकोटि के विटामिन होते हैं उतने शायद ही अन्य किसी फल में पाए जाते हों।
प्रत्यावर्तन सत्र में आने वाले साधकों को यों हविष्यान्न रोटी के साथ दी जाने वाली यह चटनी स्वास्थ्य की दृष्टि से भी एक महत्त्वपूर्ण रसायन आहार है; पर उसका मुख्य लाभ अंतःकरण चतुष्टय से संबंधित मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार का स्तर तमोगुण, रजोगुण की भूमिका से ऊँचा उठाकर सतोगुणी स्तर तक पहुँचाता है। आहार का विश्लेषणमात्र शरीर के लिए लाभदायक-हानिकारक समझकर ही नहीं करना चाहिए; वरन यह भी देखना चाहिए कि उसका मन और बुद्धि पर क्या प्रभाव पड़ता है। अन्न का मन से संबंध सुनिश्चित है। साधना का प्राण सात्विक आहार है। कहना न होगा कि इस तथ्य का इन सत्रों में पूरा-पूरा ध्यान रखा गया है। पंचगव्य, हविष्यान्न, आँवला कल्क का त्रिविध संयोग इसी दृष्टि से है। इसके अतिरिक्त चावल, दाल, दलिया आदि के बनाने, शोधने, पकाने में इस बात का पूरा-पूरा ध्यान रखा जाता है कि यह आहार-प्रक्रिया अन्नमयकोश को परिष्कृत करने में, मनःसंस्थान को उच्चस्तरीय बनाने की भूमिका ठीक तरह संपादित कर सके।