Magazine - Year 1973 - Version 2
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Language: HINDI
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तत्त्वबोध के प्रकाश में भवबंधनों से मुक्ति
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भ्रमग्रस्त— मायाबद्ध जीवनक्रम ही हमें अवांछनीय चिंतन और हेय कर्तृत्व में उलझाता है। इसी से वर्त्तमान पर शोक-संताप की घटाएँ छाई रहती हैं और इसी से भविष्य अंधकारमय बनता है। यदि अपने और संसार के संबंधो का पुनर्निर्धारण किया जा सके तो उस तत्त्वबोध के आधार पर सहज ही विचार-क्षेत्र में उत्कृष्टता और क्रिया-क्षेत्र में आदर्शवादिता भर सकती है। फलस्वरूप बाह्यजीवन में स्वर्गीय वातावरण तथा अंतःजीवन में आनंद और संतोष से मुक्ति जैसा आलोक ज्योतिर्मय हो सकता है।
प्रत्यावर्तन सत्र में आत्मबोध के पश्चात तत्त्वबोध की साधना है। आत्मा का स्वरूप समझने के बाद दूसरा कदम यही उठाना पड़ता है कि संसार के साथ अपने संबंधो का पुनर्निर्धारण करें। इसके लिए सुधार का पहला प्रयास आत्मा और काय-कलेवर के संबंधो में उत्पन्न हुई भ्रांति के निवारण के रूप में आरंभ करना पड़ता है।
ध्यानमुद्रा में अवस्थित होकर अपने और शरीर के पृथक्करण का भावचित्र मनःक्षेत्र में अधिकाधिक स्पष्टता के साथ चित्रित करना ही पृथक्करण साधना है। भावना की जाती है कि शरीर में से प्राण निकल गया और किसी ऊँचे स्थान पर बैठकर मृत शरीर को, उसकी मरणोत्तर स्थिति को गंभीरतापूर्वक देख रहा है। मरी हुई निर्जीव काया अकड़ गई। कहीं सुनसान जंगल में पड़ी है और उसे कौए, गिद्ध, सियार और कुत्ते नोंच-नाँचकर खा रहे हैं, बोटियाँ इधर-उधर छितरी पड़ी हैं। कुछ खाया, कुछ अधखाया मांस इधर-उधर छितरा पड़ा है। कुछ सड़ गया, उसमें कीड़े पड़ रहे हैं। सड़न की दुर्गंध उड़ रही है। हड्डियों का कंकाल टूटा-फूटा, अस्त-व्यस्त पड़ा है। यदि वह घर पर है तो उसे जलाने-गाड़ने की तैयारी हो रही है। लाश को चिता पर रख दिया गया। वह धू-धूकर के जलने लगी। मांस जलने-रँधने लगा, भुना मांसपिंड गठरी जैसा इकट्ठा होने लगा। कपाल जलने में देर लगाने लगा तो उसे संबंधियों ने बांस मारकर फोड़ दिया और वह भी कुछ देर में जलकर राख हो गया। राख हवा में इधर-उधर उड़कर अपना अस्तित्व गँवा बैठी। स्वजन-संबंधी कुछ समय रो-धोकर अपने काम में लग गए। महीने-पंद्रह दिन मरण की चर्चा होती रही, इसके बाद वह प्रसंग भी बंद हो गया— भुला दिया गया।
मरणकाल यह करने के बाद शरीर का अस्तित्व समाप्त होने तक के भावचित्र का जितना अधिक विस्तृत और वीभत्स चित्र, जितना अधिक देर तक देखा जा सके, उतना ही अच्छा है। प्रत्यावर्तन-साधना में इसके लिए पैंतालीस मिनट रखे गए हैं। महत्त्व को देखते हुए यह समय अधिक नहीं, कम ही है। कारण कि मृत्यु को एक प्रकार से भुला ही दिया गया है, यदि वह याद रहती तो निश्चित रूप से यह भी स्मरण ही रहता कि हमें परमेश्वर ने असाधारण विभूतियाँ देकर क्यों यह सुरदुर्लभ शरीर दिया है और उसके साथ क्या-क्या जिम्मेदारियाँ सौंपी हैं। उन्हें पूरा करने के लिए कुछ किया जा रहा है या नहीं। अपने मन में यह भाव कभी उठते ही नहीं। दूसरों को मरते देखते हुए भी यही सोचते हैं कि अपने को तो लाख-करोड़ वर्ष जीना है। जल्दी क्या है, अभी तो जितना बन पड़े मौज-मजा कर लें, पीछे अगर मरना पड़ा तो तब कहीं लक्ष्य उद्देश्य की बात सोचेंगे।
मृत्यु की सच्चाई जो कभी भी सामने आकर खड़ी हो सकती है। हमारे सामने नग्न यथार्थता प्रस्तुत करती है और झकझोरती है कि यह सुरदुर्लभ सुअवसर ऐसे ही पेट-प्रजनन के पशु-प्रयोजनों में बर्बाद न किया जाए, इसका ऐसा उपयोग किया जाए जो दूरदर्शिता पूर्ण हो; परमात्मा का अवतार धर्म की स्थापना और अधर्म को निरस्त करने के लिए होता है। सृष्टि के अन्य जीवों की आँख से देखा जाए तो मनुष्य भी एक असीम सुविधा-साधनों से संपन्न अवतारी सत्ता ही है। उसी अंश-अवतार जैसी साधुता के परित्राण और दुष्कृतों के विनाश की भूमिका में सतत संलग्न रहना चाहिए। इस तथ्य का विस्मरण प्रायः इसीलिए हो जाता है कि हम मृत्यु का विस्मरण कर बैठे होते हैं और यह सोचते तक नहीं कि मरण निकट है और उपलब्ध अवसर को नष्ट किए बिना पूरी सजगता एवं तत्परता के साथ उस ईश्वरीय उद्देश्य में लगना चाहिए, जिसके लिए कि यह शरीर मिला है।
भगवान शंकर मरघट में निवास करते हैं। श्मशान की भस्म शरीर पर लपेटते हैं, गले में मुंडमाला पहनते हैं, भूत-प्रेतों को साथ रखते हैं। उन्हें मरण का देवता माना गया है। वे जीवन सहचरी के रूप में मृत्यु को साथ रखकर चलते हैं। इसी से मृत्युंजय कहलाते हैं। मृत्यु की प्रतिमा को सामने रखकर चलने वाला निश्चित रूप से मृत्युंजय ही बन सकता है। जिसे मरण के उपरांत आने वाली समस्याओं का ज्ञान है, जो उन्हें सुलझाने में निरत है, उसके लिए मृत्यु का स्वरूप पुराना कपड़ा बदलकर नया पहनने जैसा उत्साहवर्द्धक ही हो सकता है। ऐसी स्थिति प्राप्त की जा सके, इसके लिए मृत्युकाल के चित्र को अधिकाधिक स्पष्टता के साथ देखते हुए मायाग्रस्त मनःस्थिति को सुधारने का प्रयत्न किया जाता है।
शरीर और मन, यह दो औजार-उपकरण हैं— वाहन अथवा सेवक हैं, जो सौंपे गए उत्तरदायित्वों को निवाहने में समुचित सहायता कर सकें। बड़े अफसरों को मोटर की, ड्राइवर की सुविधा सरकार देती है, ताकि वे लंबे क्षेत्र में सुविधापूर्वक भाग-दौड़ कर सके। हमें उत्कृष्ट स्तर का शरीर और मन ऐसे उपकरण के रूप में मिले हैं कि निर्धारित कर्त्तव्यों को पूरा कर सकना अधिक सुविधा के साथ संभव हो सके। आत्मा और शरीर के बीच ही वाहन, सेवक, उपकरण, औजार और उसके उपयोगकर्त्ता स्वामी के बीच रहने वाला रिश्ता ही यथार्थ है। दोनों की सत्ता पृथक है, दोनों के स्वार्थ अलग हैं, दोनों एक नहीं हैं।
हमारे चिंतन में एक भारी भूल यह है कि शरीर और आत्मा को एक ही मान लिया गया है। हम अपने स्वरूप को भूल बैठे हैं और शरीर के साथ इतने रम गए हैं कि दोनों की सत्ता एक ही मानने लगे हैं। इसका दुष्परिणाम यह हुआ है कि शरीर के, मन के स्वार्थ अपने सुख-दुःख प्रतीत होने लगे हैं, जबकि वस्तुतः वे सर्वथा भिन्न हैं। शरीर का स्वार्थ वासना में और मन का तृष्णा की पूर्ति में हो सकता है; पर आत्मा की शांति तो जीवनोद्देश्य की पूर्ति के लिए किए गए प्रयासों के साथ ही जुड़ी हुई है।
समुद्र के खारे जल में नमक और पानी दोनों मिले होते हैं, अतएव वह किसी काम में नहीं आता। यदि जल और नमक पृथक कर दिए जाएँ तो दोनों ही उपयोगी हो सकते हैं। यदि शरीर आत्मा का वाहन मात्र बनकर रहे तो उसे महामानव, देवदूत, ऋषि स्तर का बनने, सुखी एवं यशस्वी बनने का अवसर मिल सकता है। आत्मा को भी शांति सद्गति मिलेगी; पर यदि वे दोनों इकट्ठे हो जाते हैं, आत्मा अपना स्वरूप भूलकर शरीर स्तर की बन जाती है, तो वासना और तृष्णा की, लोभ और मोह की दल-दल में गहराई तक धँस जाना पड़ेगा और गहरी कीचड़ में गरदन तक फँसे हाथी की तरह दयनीय दुर्दशा के साथ गँवाना पड़ेगा।
आत्मबोध के साथ तत्त्वबोध ही दूसरा चरण है। आत्मा के साथ शरीर का, मन का, परिवार का क्या संबंध है, उसी का पुनर्निर्माण समझना चाहिए। ऋतंभरा प्रज्ञा प्राप्त हो गई और ब्रह्मज्ञान का जो महात्म्य बनाया गया है, वह समग्र रूप में करतल गत हो गया।
शरीर इसलिए मिला है कि उससे आदर्शवादी कार्य कराए जाए, मन इसलिए मिला है कि जीवनोद्देश्य को पूरा करने की योजनाएँ बनाएँ और अवरोधों की गुत्थियाँ सुलझाएँ। परिवार इसलिए मिला है कि सद्भावनाओं और सत्प्रवृतियों को सुविकसित करने, अपनी आंतरिक परिपुष्टता के लिए इस प्रयोगशाला में वैसा ही अभ्यास करते रहा जाए जैसा पहलवान अखाड़े में जाकर किया करता है। भगवान ने परिवार के कुछ लोगों को सुविकसित बनाने के लिए हमें संरक्षक की तरह नियुक्त किया है और माली की तरह इस छोटे उद्यान को सुरम्य बनाने का उत्तरदायित्व सौंपा है। यह मान्यताएँ हम रखें तो इन तीनों में से किसी पर भी अपना आधिपत्य जमाने की आवश्यकता न मिले। तीनों के प्रति अपने कर्त्तव्यों का पालन करने भर की बात याद रहे और यह चेष्टा बनी रहे कि इन आधारों की सहायता से अधिक अच्छी तरह जीवनलक्ष्य की पूर्ति किस तरह हो सकती है।
भ्रांतियों की भूलभुलैया हमें कुछ का कुछ दिखाती-बताती हैं, अतएव हम यथार्थता से विपरीत स्थिति में अपने को फँसा लेते हैं और न सोचने जैसा सोचने, न करने लायक करने लगते हैं, उसका परिणाम पग-पग पर अशांति, उद्विग्नता, खीज और खिन्नता के रूप में सामने आता है। यदि कर्त्तव्यपालन और सदुपयोग भर की बात ध्यान में बनी रहे तो हर स्थिति में प्रसन्न एवं संतुलित रहा जा सकता है। ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग के अमृत, पारस एवं कल्पवृक्ष की त्रिविध सिद्धियाँ इसी स्तर की मनोभूमि में उपलब्ध होती हैं।
आत्मा को शरीर और मन से भिन्न मानने पर सहज ही यह विवेक जागृत होता है कि जीवन संपदा का कितना अंश इन वाहनों की आवश्यकता पूर्ति के लिए खर्च किया जाए और कितना निर्दिष्ट लक्ष्य की पूर्ति में लगाया जाए। न्यायोचित विभाजन हो सके तो समय, श्रम, बुद्धि, प्रतिभा एवं संपत्ति की ईश्वरप्रदत्त विभूतियों का एक बड़ा अंश आत्मकल्याण के लिए निकल सकता है। अन्यथा यदि अपना आपा काय-कलेवर में ही धुला-खपा दिया गया तो लोभ और मोह के अतिरिक्त आकांक्षा एवं क्रिया का सारा उपार्जन उसी को समर्पित करना पड़ेगा। शरीर और मन की लिप्सा में ही सुख दीखने लगेगा, ऐसी दशा में वासना और तृष्णा की भूख बुझाने में ही अपनी सामर्थ्य कम पड़ने लगेगी। आत्मकल्याण की बात तो बन ही न पड़ेगी।
तत्त्वबोध होने पर संबद्ध व्यक्तियों तथा समीपवर्त्ती क्षेत्र में फैली हुई दुष्प्रवृत्तियाँ आक्रमणकारी, क्रोध, उद्वेग, द्वेष और प्रतिशोध उत्पन्न नहीं करतीं; वरन शांतिपूर्वक सुव्यवस्थित रीति से विकृतियों के सुधारक्रम में जुट जाने की प्रेरणा करती हैं। डॉक्टर रोग को मारता है, रोगी को बचाता है। विवेकवान पाप को मिटाता है और पापी को बचाता है, जबकि अविवेकी मस्तिष्क रोग और रोगी में अंतर न करके, जहाँ भी प्रतिकूलता दीखती है वहीं आमक्रणकारी बनकर मार-काट फैलाता है। वह भूल जाता है कि कीचड़ को कीचड़ से नहीं धोया जाता, सफाई तो स्वच्छ जल से होती है। क्रोध से नहीं, संतुलित सुधार-प्रक्रिया अपनाने से ही विकृतियों का समाधान होता है। संसार में फैली हुई विकृतियाँ हमारे लिए सेवा-साधना के सुधार-उपक्रम के लिए ही हैं। रोगी न रहे तो डॉक्टर की क्या उपयोगिता रहेगी। परमार्थपरायण पुरुषार्थ को प्रखर करने का सु-अवसर पाने के लिए ही संभव है। समीपवर्त्ती क्षेत्र में विकृति उत्पन्न हुई हो, ऐसा भी तो सोचा जा सकता है।
तत्त्वदर्शी यह भी जानता है कि पूजा-उपक्रमों का उद्देश्य ईश्वर को फुसलाकर भौतिक एवं आत्मिक वरदान झटक लेना नहीं; वरन उच्च भावनाओं और उच्च क्रियाशीलता के लिए आवश्यक प्रेरणा प्राप्त करना है ताकि व्यक्तित्व में दैवी तत्त्वों का अधिकाधिक समावेश करके पूर्णता की दिशा में द्रुतगति से बढ़ चलना संभव हो सके। जीवनोद्देश्य की पूर्ति छुट-पुट पूजा-पत्री मात्र से हो सकती है, ऐसा तत्त्वदर्शी नहीं मानता, अस्तु उसकी उपासना-साधना अज्ञानग्रस्त लोगों जैसी भ्रम-धारणाओं पर निर्धारित नहीं होती। वह ईश्वर अनुकंपा, बहुमूल्य उपलब्धियाँ पाने के लिए पूरी कीमत चुकाने पर विश्वास करता है और उसके लिए महामानवों जैसी स्थिति प्राप्त करने की प्रेरणा उपासना-उपक्रमों के माध्यम से प्राप्त करता है।
शरीर और मन को आत्मा से पृथक मानने, उनके बीच स्वामी-सेवक जैसा संबंध स्पष्ट करने से भ्रमग्रस्तता के भवबंधनों से छुटकारा मिल जाता है। माया के आकर्षणों में खिचते फिरने की अपेक्षा विवेक के आधार पर मान्यताओं, आकांक्षाओं एवं क्रियाकलापों का पुननिर्धारण करना होता है। मृत्यु का सघन चिंतन काया में रमी हुई अंतःचेतना को अपनी वस्तुस्थिति समझने का अवसर देता है, अस्तु उसे अपनी विचारणा में उत्कृष्ट एवं क्रियाशीलता को आदर्श बनाने के अतिरिक्त बुद्धिमत्ता भरा मार्ग और कोई सझता ही नहीं। तत्त्वबोध की प्रतिक्रिया ऋतंभरा प्रज्ञा को उपलब्ध होने के रूप में सामने आती है और व्यक्ति भ्रांतियों के भवबंधनो से मुक्त होकर समुन्नत जीवनधारा के साथ प्रवाहित होता हुआ; अंततः आनंद और ऐश्वर्य उपलब्ध करता है।
प्रत्यावर्तन सत्र में आत्मबोध के पश्चात तत्त्वबोध की साधना है। आत्मा का स्वरूप समझने के बाद दूसरा कदम यही उठाना पड़ता है कि संसार के साथ अपने संबंधो का पुनर्निर्धारण करें। इसके लिए सुधार का पहला प्रयास आत्मा और काय-कलेवर के संबंधो में उत्पन्न हुई भ्रांति के निवारण के रूप में आरंभ करना पड़ता है।
ध्यानमुद्रा में अवस्थित होकर अपने और शरीर के पृथक्करण का भावचित्र मनःक्षेत्र में अधिकाधिक स्पष्टता के साथ चित्रित करना ही पृथक्करण साधना है। भावना की जाती है कि शरीर में से प्राण निकल गया और किसी ऊँचे स्थान पर बैठकर मृत शरीर को, उसकी मरणोत्तर स्थिति को गंभीरतापूर्वक देख रहा है। मरी हुई निर्जीव काया अकड़ गई। कहीं सुनसान जंगल में पड़ी है और उसे कौए, गिद्ध, सियार और कुत्ते नोंच-नाँचकर खा रहे हैं, बोटियाँ इधर-उधर छितरी पड़ी हैं। कुछ खाया, कुछ अधखाया मांस इधर-उधर छितरा पड़ा है। कुछ सड़ गया, उसमें कीड़े पड़ रहे हैं। सड़न की दुर्गंध उड़ रही है। हड्डियों का कंकाल टूटा-फूटा, अस्त-व्यस्त पड़ा है। यदि वह घर पर है तो उसे जलाने-गाड़ने की तैयारी हो रही है। लाश को चिता पर रख दिया गया। वह धू-धूकर के जलने लगी। मांस जलने-रँधने लगा, भुना मांसपिंड गठरी जैसा इकट्ठा होने लगा। कपाल जलने में देर लगाने लगा तो उसे संबंधियों ने बांस मारकर फोड़ दिया और वह भी कुछ देर में जलकर राख हो गया। राख हवा में इधर-उधर उड़कर अपना अस्तित्व गँवा बैठी। स्वजन-संबंधी कुछ समय रो-धोकर अपने काम में लग गए। महीने-पंद्रह दिन मरण की चर्चा होती रही, इसके बाद वह प्रसंग भी बंद हो गया— भुला दिया गया।
मरणकाल यह करने के बाद शरीर का अस्तित्व समाप्त होने तक के भावचित्र का जितना अधिक विस्तृत और वीभत्स चित्र, जितना अधिक देर तक देखा जा सके, उतना ही अच्छा है। प्रत्यावर्तन-साधना में इसके लिए पैंतालीस मिनट रखे गए हैं। महत्त्व को देखते हुए यह समय अधिक नहीं, कम ही है। कारण कि मृत्यु को एक प्रकार से भुला ही दिया गया है, यदि वह याद रहती तो निश्चित रूप से यह भी स्मरण ही रहता कि हमें परमेश्वर ने असाधारण विभूतियाँ देकर क्यों यह सुरदुर्लभ शरीर दिया है और उसके साथ क्या-क्या जिम्मेदारियाँ सौंपी हैं। उन्हें पूरा करने के लिए कुछ किया जा रहा है या नहीं। अपने मन में यह भाव कभी उठते ही नहीं। दूसरों को मरते देखते हुए भी यही सोचते हैं कि अपने को तो लाख-करोड़ वर्ष जीना है। जल्दी क्या है, अभी तो जितना बन पड़े मौज-मजा कर लें, पीछे अगर मरना पड़ा तो तब कहीं लक्ष्य उद्देश्य की बात सोचेंगे।
मृत्यु की सच्चाई जो कभी भी सामने आकर खड़ी हो सकती है। हमारे सामने नग्न यथार्थता प्रस्तुत करती है और झकझोरती है कि यह सुरदुर्लभ सुअवसर ऐसे ही पेट-प्रजनन के पशु-प्रयोजनों में बर्बाद न किया जाए, इसका ऐसा उपयोग किया जाए जो दूरदर्शिता पूर्ण हो; परमात्मा का अवतार धर्म की स्थापना और अधर्म को निरस्त करने के लिए होता है। सृष्टि के अन्य जीवों की आँख से देखा जाए तो मनुष्य भी एक असीम सुविधा-साधनों से संपन्न अवतारी सत्ता ही है। उसी अंश-अवतार जैसी साधुता के परित्राण और दुष्कृतों के विनाश की भूमिका में सतत संलग्न रहना चाहिए। इस तथ्य का विस्मरण प्रायः इसीलिए हो जाता है कि हम मृत्यु का विस्मरण कर बैठे होते हैं और यह सोचते तक नहीं कि मरण निकट है और उपलब्ध अवसर को नष्ट किए बिना पूरी सजगता एवं तत्परता के साथ उस ईश्वरीय उद्देश्य में लगना चाहिए, जिसके लिए कि यह शरीर मिला है।
भगवान शंकर मरघट में निवास करते हैं। श्मशान की भस्म शरीर पर लपेटते हैं, गले में मुंडमाला पहनते हैं, भूत-प्रेतों को साथ रखते हैं। उन्हें मरण का देवता माना गया है। वे जीवन सहचरी के रूप में मृत्यु को साथ रखकर चलते हैं। इसी से मृत्युंजय कहलाते हैं। मृत्यु की प्रतिमा को सामने रखकर चलने वाला निश्चित रूप से मृत्युंजय ही बन सकता है। जिसे मरण के उपरांत आने वाली समस्याओं का ज्ञान है, जो उन्हें सुलझाने में निरत है, उसके लिए मृत्यु का स्वरूप पुराना कपड़ा बदलकर नया पहनने जैसा उत्साहवर्द्धक ही हो सकता है। ऐसी स्थिति प्राप्त की जा सके, इसके लिए मृत्युकाल के चित्र को अधिकाधिक स्पष्टता के साथ देखते हुए मायाग्रस्त मनःस्थिति को सुधारने का प्रयत्न किया जाता है।
शरीर और मन, यह दो औजार-उपकरण हैं— वाहन अथवा सेवक हैं, जो सौंपे गए उत्तरदायित्वों को निवाहने में समुचित सहायता कर सकें। बड़े अफसरों को मोटर की, ड्राइवर की सुविधा सरकार देती है, ताकि वे लंबे क्षेत्र में सुविधापूर्वक भाग-दौड़ कर सके। हमें उत्कृष्ट स्तर का शरीर और मन ऐसे उपकरण के रूप में मिले हैं कि निर्धारित कर्त्तव्यों को पूरा कर सकना अधिक सुविधा के साथ संभव हो सके। आत्मा और शरीर के बीच ही वाहन, सेवक, उपकरण, औजार और उसके उपयोगकर्त्ता स्वामी के बीच रहने वाला रिश्ता ही यथार्थ है। दोनों की सत्ता पृथक है, दोनों के स्वार्थ अलग हैं, दोनों एक नहीं हैं।
हमारे चिंतन में एक भारी भूल यह है कि शरीर और आत्मा को एक ही मान लिया गया है। हम अपने स्वरूप को भूल बैठे हैं और शरीर के साथ इतने रम गए हैं कि दोनों की सत्ता एक ही मानने लगे हैं। इसका दुष्परिणाम यह हुआ है कि शरीर के, मन के स्वार्थ अपने सुख-दुःख प्रतीत होने लगे हैं, जबकि वस्तुतः वे सर्वथा भिन्न हैं। शरीर का स्वार्थ वासना में और मन का तृष्णा की पूर्ति में हो सकता है; पर आत्मा की शांति तो जीवनोद्देश्य की पूर्ति के लिए किए गए प्रयासों के साथ ही जुड़ी हुई है।
समुद्र के खारे जल में नमक और पानी दोनों मिले होते हैं, अतएव वह किसी काम में नहीं आता। यदि जल और नमक पृथक कर दिए जाएँ तो दोनों ही उपयोगी हो सकते हैं। यदि शरीर आत्मा का वाहन मात्र बनकर रहे तो उसे महामानव, देवदूत, ऋषि स्तर का बनने, सुखी एवं यशस्वी बनने का अवसर मिल सकता है। आत्मा को भी शांति सद्गति मिलेगी; पर यदि वे दोनों इकट्ठे हो जाते हैं, आत्मा अपना स्वरूप भूलकर शरीर स्तर की बन जाती है, तो वासना और तृष्णा की, लोभ और मोह की दल-दल में गहराई तक धँस जाना पड़ेगा और गहरी कीचड़ में गरदन तक फँसे हाथी की तरह दयनीय दुर्दशा के साथ गँवाना पड़ेगा।
आत्मबोध के साथ तत्त्वबोध ही दूसरा चरण है। आत्मा के साथ शरीर का, मन का, परिवार का क्या संबंध है, उसी का पुनर्निर्माण समझना चाहिए। ऋतंभरा प्रज्ञा प्राप्त हो गई और ब्रह्मज्ञान का जो महात्म्य बनाया गया है, वह समग्र रूप में करतल गत हो गया।
शरीर इसलिए मिला है कि उससे आदर्शवादी कार्य कराए जाए, मन इसलिए मिला है कि जीवनोद्देश्य को पूरा करने की योजनाएँ बनाएँ और अवरोधों की गुत्थियाँ सुलझाएँ। परिवार इसलिए मिला है कि सद्भावनाओं और सत्प्रवृतियों को सुविकसित करने, अपनी आंतरिक परिपुष्टता के लिए इस प्रयोगशाला में वैसा ही अभ्यास करते रहा जाए जैसा पहलवान अखाड़े में जाकर किया करता है। भगवान ने परिवार के कुछ लोगों को सुविकसित बनाने के लिए हमें संरक्षक की तरह नियुक्त किया है और माली की तरह इस छोटे उद्यान को सुरम्य बनाने का उत्तरदायित्व सौंपा है। यह मान्यताएँ हम रखें तो इन तीनों में से किसी पर भी अपना आधिपत्य जमाने की आवश्यकता न मिले। तीनों के प्रति अपने कर्त्तव्यों का पालन करने भर की बात याद रहे और यह चेष्टा बनी रहे कि इन आधारों की सहायता से अधिक अच्छी तरह जीवनलक्ष्य की पूर्ति किस तरह हो सकती है।
भ्रांतियों की भूलभुलैया हमें कुछ का कुछ दिखाती-बताती हैं, अतएव हम यथार्थता से विपरीत स्थिति में अपने को फँसा लेते हैं और न सोचने जैसा सोचने, न करने लायक करने लगते हैं, उसका परिणाम पग-पग पर अशांति, उद्विग्नता, खीज और खिन्नता के रूप में सामने आता है। यदि कर्त्तव्यपालन और सदुपयोग भर की बात ध्यान में बनी रहे तो हर स्थिति में प्रसन्न एवं संतुलित रहा जा सकता है। ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग के अमृत, पारस एवं कल्पवृक्ष की त्रिविध सिद्धियाँ इसी स्तर की मनोभूमि में उपलब्ध होती हैं।
आत्मा को शरीर और मन से भिन्न मानने पर सहज ही यह विवेक जागृत होता है कि जीवन संपदा का कितना अंश इन वाहनों की आवश्यकता पूर्ति के लिए खर्च किया जाए और कितना निर्दिष्ट लक्ष्य की पूर्ति में लगाया जाए। न्यायोचित विभाजन हो सके तो समय, श्रम, बुद्धि, प्रतिभा एवं संपत्ति की ईश्वरप्रदत्त विभूतियों का एक बड़ा अंश आत्मकल्याण के लिए निकल सकता है। अन्यथा यदि अपना आपा काय-कलेवर में ही धुला-खपा दिया गया तो लोभ और मोह के अतिरिक्त आकांक्षा एवं क्रिया का सारा उपार्जन उसी को समर्पित करना पड़ेगा। शरीर और मन की लिप्सा में ही सुख दीखने लगेगा, ऐसी दशा में वासना और तृष्णा की भूख बुझाने में ही अपनी सामर्थ्य कम पड़ने लगेगी। आत्मकल्याण की बात तो बन ही न पड़ेगी।
तत्त्वबोध होने पर संबद्ध व्यक्तियों तथा समीपवर्त्ती क्षेत्र में फैली हुई दुष्प्रवृत्तियाँ आक्रमणकारी, क्रोध, उद्वेग, द्वेष और प्रतिशोध उत्पन्न नहीं करतीं; वरन शांतिपूर्वक सुव्यवस्थित रीति से विकृतियों के सुधारक्रम में जुट जाने की प्रेरणा करती हैं। डॉक्टर रोग को मारता है, रोगी को बचाता है। विवेकवान पाप को मिटाता है और पापी को बचाता है, जबकि अविवेकी मस्तिष्क रोग और रोगी में अंतर न करके, जहाँ भी प्रतिकूलता दीखती है वहीं आमक्रणकारी बनकर मार-काट फैलाता है। वह भूल जाता है कि कीचड़ को कीचड़ से नहीं धोया जाता, सफाई तो स्वच्छ जल से होती है। क्रोध से नहीं, संतुलित सुधार-प्रक्रिया अपनाने से ही विकृतियों का समाधान होता है। संसार में फैली हुई विकृतियाँ हमारे लिए सेवा-साधना के सुधार-उपक्रम के लिए ही हैं। रोगी न रहे तो डॉक्टर की क्या उपयोगिता रहेगी। परमार्थपरायण पुरुषार्थ को प्रखर करने का सु-अवसर पाने के लिए ही संभव है। समीपवर्त्ती क्षेत्र में विकृति उत्पन्न हुई हो, ऐसा भी तो सोचा जा सकता है।
तत्त्वदर्शी यह भी जानता है कि पूजा-उपक्रमों का उद्देश्य ईश्वर को फुसलाकर भौतिक एवं आत्मिक वरदान झटक लेना नहीं; वरन उच्च भावनाओं और उच्च क्रियाशीलता के लिए आवश्यक प्रेरणा प्राप्त करना है ताकि व्यक्तित्व में दैवी तत्त्वों का अधिकाधिक समावेश करके पूर्णता की दिशा में द्रुतगति से बढ़ चलना संभव हो सके। जीवनोद्देश्य की पूर्ति छुट-पुट पूजा-पत्री मात्र से हो सकती है, ऐसा तत्त्वदर्शी नहीं मानता, अस्तु उसकी उपासना-साधना अज्ञानग्रस्त लोगों जैसी भ्रम-धारणाओं पर निर्धारित नहीं होती। वह ईश्वर अनुकंपा, बहुमूल्य उपलब्धियाँ पाने के लिए पूरी कीमत चुकाने पर विश्वास करता है और उसके लिए महामानवों जैसी स्थिति प्राप्त करने की प्रेरणा उपासना-उपक्रमों के माध्यम से प्राप्त करता है।
शरीर और मन को आत्मा से पृथक मानने, उनके बीच स्वामी-सेवक जैसा संबंध स्पष्ट करने से भ्रमग्रस्तता के भवबंधनों से छुटकारा मिल जाता है। माया के आकर्षणों में खिचते फिरने की अपेक्षा विवेक के आधार पर मान्यताओं, आकांक्षाओं एवं क्रियाकलापों का पुननिर्धारण करना होता है। मृत्यु का सघन चिंतन काया में रमी हुई अंतःचेतना को अपनी वस्तुस्थिति समझने का अवसर देता है, अस्तु उसे अपनी विचारणा में उत्कृष्ट एवं क्रियाशीलता को आदर्श बनाने के अतिरिक्त बुद्धिमत्ता भरा मार्ग और कोई सझता ही नहीं। तत्त्वबोध की प्रतिक्रिया ऋतंभरा प्रज्ञा को उपलब्ध होने के रूप में सामने आती है और व्यक्ति भ्रांतियों के भवबंधनो से मुक्त होकर समुन्नत जीवनधारा के साथ प्रवाहित होता हुआ; अंततः आनंद और ऐश्वर्य उपलब्ध करता है।