Magazine - Year 1973 - Version 2
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Language: HINDI
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अनंत आनंद और उसकी प्राप्ति
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तैत्तिरीयोपनिषद् की तृतीय वल्ली (भृगु वल्ली) में एक बड़ी ही महत्त्वपूर्ण आख्यायिका आती है। उसमें पंचकोशो की साधना पर मार्मिक प्रकाश डाला गया है।
वरुण के पुत्र ने अपने पिता के निकट जाकर प्रार्थना की कि, “अधीहि भगवो ब्रह्मेति।” अर्थात— हे भगवान! मुझे ब्रह्मज्ञान की शिक्षा दीजिए। वरुण ने उत्तर दिया— “यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते, येन जातानि जीवन्ति यत्प्रन्त्यभिसंविशन्ति तद्विजिज्ञासस्व तद्ब्रह्मेति।” अर्थात— हे भृगु! जिससे समस्त प्राणी उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न होकर जीवित रहते हैं और अंत में जिसमें विलीन हो जाते हैं, तू उस ब्रह्म को जानने की इच्छा कर।
पिता के आदेशानुसार पुत्र ने, उस ब्रह्म को जानने के लिए तप आरंभ कर दिया। दीर्घकालीन तप के उपरांत, भृगु ने अन्नमय जगत (स्थूलसंसार) में फैली ब्रह्म की विभूति को जान लिया और वह पिता के पास पहुँचा।
वरुण ने भृगु से फिर कहा— “तपसो ब्रह्म विजिझासस्वतपो ब्रह्मेति।” अर्थात— हे पुत्र! तू तप करके ब्रह्म को जानने का प्रयत्न कर, क्योंकि ब्रह्म को तप द्वारा ही जाना जाता है।
भृगु ने फिर तपस्या की और ‘प्राणमय जगत’ की ब्रह्मविभूति को जान लिया और वह पिता के पास पहुँचा। वरुण ने फिर उसे तप द्वारा ब्रह्म को जानने का उपदेश दिया।
पुत्र ने पुन: कठोर तप किया और ‘मनोमय जगत’ की ब्रह्मविभूति से अभिज्ञान प्राप्त कर लिया। पिता ने उसे फिर तप में लगा दिया। अब उसने विज्ञानमय जगत की ईश्वरीय विभूति को प्राप्त कर लिया, अंत में पाँचवी बार भी पिता ने उसे तप में ही प्रवृत्त किया और भृगु ने उस आनंदमयी विभूति को भी उपलब्ध कर लिया।
‘आनंदमय जगत’ की अंतिम सीढ़ी पर पहुँचने से किस प्रकार पूर्ण ब्रह्मज्ञान प्राप्त होता है। इसका वर्णन करते हुए ‘तैत्तिरीयोपनिषद्’ की तृतीय वल्ली के पाँचवे मंत्र में बताया गया है कि—
“आनन्दो ब्रह्मेति व्यजानात्—आनंदाद्ध्येवखल्विमानि भूतानि जायन्ते, आनन्देन जातानि जीवन्ति, आनन्दं प्रयन्त्यभिसविशन्तीति। सैषाँ भार्गवी वारुणी विद्या परमेव्योंमन् प्रतिष्ठिता।”
अर्थात— उस (भृगु) ने जाना कि आनंद ही ब्रह्म है। आनंद से ही सब प्राणी उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न होकर आनंद से ही जीवित रहते हैं और अंत में आनंद में ही विलीन हो जाते हैं।
उपनिषद्कार ने उपरोक्त आख्यायिका में ब्रह्मानंद, परमानंद, आत्मानंद में ही ब्रह्मज्ञान का अंतिम लक्ष्य बताया है। आनंदमय जगत के कोश में पहुँचने के लिए तप करने का संकेत किया है। कोशों की सीढ़ियाँ जैसे-जैसे पार होती है, वैसे ही वैसे ब्रह्म की उपलब्धि निकट आती जाती है। आगे बताया है कि—
“सय एवं वित् अस्माल्लोकात्प्रेत्य, ऐतमन्नमयमात्मानमुपसंक्रामति, एतम् प्राणमयमात्मानमुपसंक्रामति, एतं मनोमयमात्मानमुपसंक्रामति, एतं विज्ञान मयमात्मानमुपसंक्रामति, एतमानन्दमयमात्मानमुपसंक्रामति।”
अर्थात— इस प्रकार जो मनुष्य ब्रह्मज्ञान को प्राप्त कर लेता है, वह इस अन्नमयकोश को पार करता है, इस प्राणमयकोश को पार करता है, इस मनोमयकोश को पार करता है, इस विज्ञानमयकोश को पार करता है, इस आनंदमयकोश को पार कर सकता है।
तैत्तिरीयोपनिषद् की अच्छी वल्ली में आनंद की मीमांसा करते हुए कहा गया है कि कोई मनुष्य यदि पूर्ण स्वस्थ, सुशिक्षित, गुणवान, सामर्थ्यवान एवं समस्त संसार की धन-संपत्ति का स्वामी हो तो उसे जो आनंद हो सकता है, उसे एक मानुषी आनंद कहते हैं। उससे करोड़ों-अरबों गुने आनंद को ब्रह्मानंद कहते हैं। 1— ब्रह्मानंद का ऐसा ही वर्णन शतपथ ब्राहमण 15/17/31 में तथा वृहदारण्यक उपनिषद् 4/3/33 में भी आया है।
पंचमुखी गायत्री साधना, पंचकोशों की साधना है। एक-एक कोश की, एक-एक ब्रह्मविभूति हैं। ये ब्रह्मविभूतियाँ वे सीढ़ी हैं, जो साधक को अपना सुखास्वादन कराती हुई अगली सीढ़ी पर चढ़ने के लिए अग्रसर करती हैं।
जीवन जैसी बहुमूल्य संपदा कीट-पतंगो की तरह व्यतीत करने के लिए नहीं है। चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करते हुए नर-तन बड़ी कठिनाई से मिलता है। इसको तुच्छ स्वार्थ में नहीं, परमार्थ में लगाना चाहिए। गायत्री साधना ऐसा परमार्थ है, जो हमारे व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन को सुख, शांति और समृद्धि से भर देता है।
यदि विचार किया जाए तो यह आश्चर्य और खेद का विषय है कि ऐसा साधन सुलभ होने पर भी केवल पेट भरने और निकृष्ट भोग करने की स्थिति में ही पड़ा रहे अथवा इससे भी नीचे उतरकर छल, कपट, चोरी, ह्त्या आदि जैसे जघन्यकृत्य करके, नरकवास करने के दंड का भागी बन जाए। ईश्वर ने हमको इस कार्यभूमि में मुख्यतः इसलिए भेजा है कि हम सत्कर्म और सात्विकी साधना तथा उपासना करके दैवी मार्ग पर अग्रसर हों और जीवन को उच्चतर बनाते हुए अपने महान लक्ष्य को प्राप्त करें। दैवी मार्ग को अपनाने और जीवन को शुद्ध, पवित्र, परोपकारमय बनाने में ऐसी कोई बात नहीं है, जो हमारी प्रगति में बाधास्वरूप सिद्ध हो। गरीब-से-गरीब और सांसारिक साधनों से रहित व्यक्ति भी इसको अपना सकता है और गायत्री उपासना तथा सेवामय जीवन के द्वारा निरंतर ऊपर की सीढ़ियों पर चढ़ता हुआ उच्चतम शिखर तक पहुँच सकता है। इसके लिए मुख्य आवश्यकता श्रद्धा, लगन व दृढ़ आत्मविश्वास की ही है, जिसको मनुष्य अभ्यास द्वारा प्राप्त कर सकता है।
पैङ्गल्योपनिषद् में लिखा है—
अथान्नमयप्राणमयमनोमयविज्ञानमयानंदमया: पंचकोशा: । अन्नरसेनैव भूत्वाऽन्नरसेनाभिवृद्धिं प्राप्यान्नरसमयपृथिव्यां यद्विलीयते सोऽन्नमयकोश: । तदेव स्थूलशरीरम् । कर्मेन्द्रियै: सह प्राणादिपंचकं प्राणमयकोश: । ज्ञानेन्द्रियै: सह मनो मनोमयकोश: । ज्ञानेन्द्रियै: सह बुद्धिविेज्ञानमयकोश: । एतत्कोशत्रयं लिङ्गशरीरम् । स्वरूपाज्ञानमानन्दमयकोश: । तत् कारणशरीरम् ।।3।।
अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनंदमय यह पाँच कोश हैं । अन्न से बनने वाला, अन्न से बढ़ने वाला, अन्नमय धरती में समा जाने वाला यह अन्नमयकोश है । इसी को स्थूलशरीर कहते हैं। पाँच प्राण और पाँच कर्मेंद्रियों से मिलकर प्राणमयकोश बना है। ज्ञानेंद्रियाँ और मन के मिलने से मनोमयकोश बनता है। ज्ञानेंद्रियाँ और बुद्धि मिलने से विज्ञानमयकोश बना है। इन तीनों के मिलने से सूक्ष्मशरीर बना है। जिसके कारण ज्ञान होता है, वह आनंदमयकोश है। इसी को कारणशरीर कहते हैं।
अस्थिस्नाय्यवादिरूपोऽयं शरीरं भाति देहिनाम् ।
योऽयमन्नमयो ह्यात्मा भाति सर्वशरीरिण: ।।21
तत: प्राणमयो ह्यात्मा विभिन्नश्चान्तरस्थित: ।
ततो मनोमयो ह्यात्मा विभिन्नश्चान्तरस्थित: ।।22
ततो विज्ञान आत्मा तु ततोऽन्यश्चान्तरस्थित: ।
आनंदमय आत्मा तु ततोऽन्यश्चान्तरस्थित: ।।23
योऽयमन्नमय: सोऽयं पूर्ण: प्राणमयेन तु ।
मनोमयेन प्राणोऽपि तथा पूर्ण: स्वभावत: ।।24
ततो मनोमयो ह्यात्मा पूर्ण: ज्ञानमयेन तु ।
आनन्देन सदा पूर्ण सदा ज्ञानमयेन सुखी ।।25
तथानन्दमयश्चापि ब्रह्मणान्येन साक्षिणा ।
सर्वान्तरेण पूर्णश्च ब्रह्म नान्येन केनचित् ।।26
— कठ रुद्रोपनिषद् 21से 26
प्राणियों में यह स्थूल अन्नमय शरीर दिखाई दे रहे हैं। इससे पृथक एक प्राणमय शरीर है। इससे आगे मनोमय शरीर है, फिर विज्ञानमय और उसके भीतर आनंदमय शरीर है। प्राणमय से अन्नमय पूर्ण होता है। मनोमय से प्राणमय पूर्ण होता है। विज्ञानमय से मनोमय पूर्ण होता है और आनंदमय शरीर मनोमय शरीर को पूर्ण करता है। इन पाँच शरीरों से ऊपर एक सर्वव्यापी सर्वांतर्यामी, परब्रह्म है। वह अपने आप पूर्ण है, उसे अन्य कोई पूर्ण नहीं करता।
वरुण के पुत्र ने अपने पिता के निकट जाकर प्रार्थना की कि, “अधीहि भगवो ब्रह्मेति।” अर्थात— हे भगवान! मुझे ब्रह्मज्ञान की शिक्षा दीजिए। वरुण ने उत्तर दिया— “यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते, येन जातानि जीवन्ति यत्प्रन्त्यभिसंविशन्ति तद्विजिज्ञासस्व तद्ब्रह्मेति।” अर्थात— हे भृगु! जिससे समस्त प्राणी उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न होकर जीवित रहते हैं और अंत में जिसमें विलीन हो जाते हैं, तू उस ब्रह्म को जानने की इच्छा कर।
पिता के आदेशानुसार पुत्र ने, उस ब्रह्म को जानने के लिए तप आरंभ कर दिया। दीर्घकालीन तप के उपरांत, भृगु ने अन्नमय जगत (स्थूलसंसार) में फैली ब्रह्म की विभूति को जान लिया और वह पिता के पास पहुँचा।
वरुण ने भृगु से फिर कहा— “तपसो ब्रह्म विजिझासस्वतपो ब्रह्मेति।” अर्थात— हे पुत्र! तू तप करके ब्रह्म को जानने का प्रयत्न कर, क्योंकि ब्रह्म को तप द्वारा ही जाना जाता है।
भृगु ने फिर तपस्या की और ‘प्राणमय जगत’ की ब्रह्मविभूति को जान लिया और वह पिता के पास पहुँचा। वरुण ने फिर उसे तप द्वारा ब्रह्म को जानने का उपदेश दिया।
पुत्र ने पुन: कठोर तप किया और ‘मनोमय जगत’ की ब्रह्मविभूति से अभिज्ञान प्राप्त कर लिया। पिता ने उसे फिर तप में लगा दिया। अब उसने विज्ञानमय जगत की ईश्वरीय विभूति को प्राप्त कर लिया, अंत में पाँचवी बार भी पिता ने उसे तप में ही प्रवृत्त किया और भृगु ने उस आनंदमयी विभूति को भी उपलब्ध कर लिया।
‘आनंदमय जगत’ की अंतिम सीढ़ी पर पहुँचने से किस प्रकार पूर्ण ब्रह्मज्ञान प्राप्त होता है। इसका वर्णन करते हुए ‘तैत्तिरीयोपनिषद्’ की तृतीय वल्ली के पाँचवे मंत्र में बताया गया है कि—
“आनन्दो ब्रह्मेति व्यजानात्—आनंदाद्ध्येवखल्विमानि भूतानि जायन्ते, आनन्देन जातानि जीवन्ति, आनन्दं प्रयन्त्यभिसविशन्तीति। सैषाँ भार्गवी वारुणी विद्या परमेव्योंमन् प्रतिष्ठिता।”
अर्थात— उस (भृगु) ने जाना कि आनंद ही ब्रह्म है। आनंद से ही सब प्राणी उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न होकर आनंद से ही जीवित रहते हैं और अंत में आनंद में ही विलीन हो जाते हैं।
उपनिषद्कार ने उपरोक्त आख्यायिका में ब्रह्मानंद, परमानंद, आत्मानंद में ही ब्रह्मज्ञान का अंतिम लक्ष्य बताया है। आनंदमय जगत के कोश में पहुँचने के लिए तप करने का संकेत किया है। कोशों की सीढ़ियाँ जैसे-जैसे पार होती है, वैसे ही वैसे ब्रह्म की उपलब्धि निकट आती जाती है। आगे बताया है कि—
“सय एवं वित् अस्माल्लोकात्प्रेत्य, ऐतमन्नमयमात्मानमुपसंक्रामति, एतम् प्राणमयमात्मानमुपसंक्रामति, एतं मनोमयमात्मानमुपसंक्रामति, एतं विज्ञान मयमात्मानमुपसंक्रामति, एतमानन्दमयमात्मानमुपसंक्रामति।”
अर्थात— इस प्रकार जो मनुष्य ब्रह्मज्ञान को प्राप्त कर लेता है, वह इस अन्नमयकोश को पार करता है, इस प्राणमयकोश को पार करता है, इस मनोमयकोश को पार करता है, इस विज्ञानमयकोश को पार करता है, इस आनंदमयकोश को पार कर सकता है।
तैत्तिरीयोपनिषद् की अच्छी वल्ली में आनंद की मीमांसा करते हुए कहा गया है कि कोई मनुष्य यदि पूर्ण स्वस्थ, सुशिक्षित, गुणवान, सामर्थ्यवान एवं समस्त संसार की धन-संपत्ति का स्वामी हो तो उसे जो आनंद हो सकता है, उसे एक मानुषी आनंद कहते हैं। उससे करोड़ों-अरबों गुने आनंद को ब्रह्मानंद कहते हैं। 1— ब्रह्मानंद का ऐसा ही वर्णन शतपथ ब्राहमण 15/17/31 में तथा वृहदारण्यक उपनिषद् 4/3/33 में भी आया है।
पंचमुखी गायत्री साधना, पंचकोशों की साधना है। एक-एक कोश की, एक-एक ब्रह्मविभूति हैं। ये ब्रह्मविभूतियाँ वे सीढ़ी हैं, जो साधक को अपना सुखास्वादन कराती हुई अगली सीढ़ी पर चढ़ने के लिए अग्रसर करती हैं।
जीवन जैसी बहुमूल्य संपदा कीट-पतंगो की तरह व्यतीत करने के लिए नहीं है। चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करते हुए नर-तन बड़ी कठिनाई से मिलता है। इसको तुच्छ स्वार्थ में नहीं, परमार्थ में लगाना चाहिए। गायत्री साधना ऐसा परमार्थ है, जो हमारे व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन को सुख, शांति और समृद्धि से भर देता है।
यदि विचार किया जाए तो यह आश्चर्य और खेद का विषय है कि ऐसा साधन सुलभ होने पर भी केवल पेट भरने और निकृष्ट भोग करने की स्थिति में ही पड़ा रहे अथवा इससे भी नीचे उतरकर छल, कपट, चोरी, ह्त्या आदि जैसे जघन्यकृत्य करके, नरकवास करने के दंड का भागी बन जाए। ईश्वर ने हमको इस कार्यभूमि में मुख्यतः इसलिए भेजा है कि हम सत्कर्म और सात्विकी साधना तथा उपासना करके दैवी मार्ग पर अग्रसर हों और जीवन को उच्चतर बनाते हुए अपने महान लक्ष्य को प्राप्त करें। दैवी मार्ग को अपनाने और जीवन को शुद्ध, पवित्र, परोपकारमय बनाने में ऐसी कोई बात नहीं है, जो हमारी प्रगति में बाधास्वरूप सिद्ध हो। गरीब-से-गरीब और सांसारिक साधनों से रहित व्यक्ति भी इसको अपना सकता है और गायत्री उपासना तथा सेवामय जीवन के द्वारा निरंतर ऊपर की सीढ़ियों पर चढ़ता हुआ उच्चतम शिखर तक पहुँच सकता है। इसके लिए मुख्य आवश्यकता श्रद्धा, लगन व दृढ़ आत्मविश्वास की ही है, जिसको मनुष्य अभ्यास द्वारा प्राप्त कर सकता है।
पैङ्गल्योपनिषद् में लिखा है—
अथान्नमयप्राणमयमनोमयविज्ञानमयानंदमया: पंचकोशा: । अन्नरसेनैव भूत्वाऽन्नरसेनाभिवृद्धिं प्राप्यान्नरसमयपृथिव्यां यद्विलीयते सोऽन्नमयकोश: । तदेव स्थूलशरीरम् । कर्मेन्द्रियै: सह प्राणादिपंचकं प्राणमयकोश: । ज्ञानेन्द्रियै: सह मनो मनोमयकोश: । ज्ञानेन्द्रियै: सह बुद्धिविेज्ञानमयकोश: । एतत्कोशत्रयं लिङ्गशरीरम् । स्वरूपाज्ञानमानन्दमयकोश: । तत् कारणशरीरम् ।।3।।
अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनंदमय यह पाँच कोश हैं । अन्न से बनने वाला, अन्न से बढ़ने वाला, अन्नमय धरती में समा जाने वाला यह अन्नमयकोश है । इसी को स्थूलशरीर कहते हैं। पाँच प्राण और पाँच कर्मेंद्रियों से मिलकर प्राणमयकोश बना है। ज्ञानेंद्रियाँ और मन के मिलने से मनोमयकोश बनता है। ज्ञानेंद्रियाँ और बुद्धि मिलने से विज्ञानमयकोश बना है। इन तीनों के मिलने से सूक्ष्मशरीर बना है। जिसके कारण ज्ञान होता है, वह आनंदमयकोश है। इसी को कारणशरीर कहते हैं।
अस्थिस्नाय्यवादिरूपोऽयं शरीरं भाति देहिनाम् ।
योऽयमन्नमयो ह्यात्मा भाति सर्वशरीरिण: ।।21
तत: प्राणमयो ह्यात्मा विभिन्नश्चान्तरस्थित: ।
ततो मनोमयो ह्यात्मा विभिन्नश्चान्तरस्थित: ।।22
ततो विज्ञान आत्मा तु ततोऽन्यश्चान्तरस्थित: ।
आनंदमय आत्मा तु ततोऽन्यश्चान्तरस्थित: ।।23
योऽयमन्नमय: सोऽयं पूर्ण: प्राणमयेन तु ।
मनोमयेन प्राणोऽपि तथा पूर्ण: स्वभावत: ।।24
ततो मनोमयो ह्यात्मा पूर्ण: ज्ञानमयेन तु ।
आनन्देन सदा पूर्ण सदा ज्ञानमयेन सुखी ।।25
तथानन्दमयश्चापि ब्रह्मणान्येन साक्षिणा ।
सर्वान्तरेण पूर्णश्च ब्रह्म नान्येन केनचित् ।।26
— कठ रुद्रोपनिषद् 21से 26
प्राणियों में यह स्थूल अन्नमय शरीर दिखाई दे रहे हैं। इससे पृथक एक प्राणमय शरीर है। इससे आगे मनोमय शरीर है, फिर विज्ञानमय और उसके भीतर आनंदमय शरीर है। प्राणमय से अन्नमय पूर्ण होता है। मनोमय से प्राणमय पूर्ण होता है। विज्ञानमय से मनोमय पूर्ण होता है और आनंदमय शरीर मनोमय शरीर को पूर्ण करता है। इन पाँच शरीरों से ऊपर एक सर्वव्यापी सर्वांतर्यामी, परब्रह्म है। वह अपने आप पूर्ण है, उसे अन्य कोई पूर्ण नहीं करता।